श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 705

सलोकु ॥ चिति जि चितविआ सो मै पाइआ ॥ नानक नामु धिआइ सुख सबाइआ ॥४॥ छंतु ॥ अब मनु छूटि गइआ साधू संगि मिले ॥ गुरमुखि नामु लइआ जोती जोति रले ॥ हरि नामु सिमरत मिटे किलबिख बुझी तपति अघानिआ ॥ गहि भुजा लीने दइआ कीने आपने करि मानिआ ॥ लै अंकि लाए हरि मिलाए जनम मरणा दुख जले ॥ बिनवंति नानक दइआ धारी मेलि लीने इक पले ॥४॥२॥ {पन्ना 705}

पद्अर्थ: चिति = चिक्त में। जि = जो कुछ। चितविआ = सोचा, मांगा, धार लिया। सबाइआ = सारे।4।

छंतु। अब = अब। छूटि गइआ = (माया के मोह से) आजाद हो गया। साधू = गुरू। संगि = संगति में। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। जोती = प्रभू की ज्योति में। जोति = सुरति, जिंद। किलबिख = पाप। तपति = विकारों की जलन। अघानिआ = तृप्त हो गए। गहि = पकड़ के। भुजा = बाँह। करि = बना के। मानिआ = आदर दिया। अंकि = अंक में, गोद में, चरनों में। जले = जल जाते हैं। धारी = की। इक पले = एक पल में।2।

अर्थ: हे नानक! (कह– हे भाई!) परमात्मा का नाम सिमरा कर, (उसके दर से) सारे सुख (मिल जाते हैं), मैंने तो जो भी मांग अपनी चिक्त में (उससे) मांगी है, वह मुझे (सदा) मिल गई है।4।

छंतु। हे भाई! गुरू की संगति में मिल के अब (मेरा) मन (माया के मोह से) स्वतंत्र हासे गया है। (जिन्होंने भी) गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम सिमरा है, उनकी जिंद परमात्मा की ज्योति में लीन रहती है। हे भाई! परमात्मा का नाम सिमरने से सारे पाप मिट जाते हैं, (विकारों की) जलन समाप्त हो जाती है, (मन माया की ओर से) तृप्त हो जाता है। जिन पर प्रभू दया करता है, जिनकी बाँह पकड़ के अपना बना लेता है, आदर देता है, जिनको अपने चरणों में जोड़ लेता है अपने साथ मिला लेता ळै, उनके जनम-मरन के सारे दुख जल (के राख हो) जाते हैं, उनको एक पल में अपने साथ मिला लेता है।4।2।

जैतसरी छंत मः ५ ॥ पाधाणू संसारु गारबि अटिआ ॥ करते पाप अनेक माइआ रंग रटिआ ॥ लोभि मोहि अभिमानि बूडे मरणु चीति न आवए ॥ पुत्र मित्र बिउहार बनिता एह करत बिहावए ॥ पुजि दिवस आए लिखे माए दुखु धरम दूतह डिठिआ ॥ किरत करम न मिटै नानक हरि नाम धनु नही खटिआ ॥१॥ {पन्ना 705}

पद्अर्थ: पाधाणू = पांधी, मुसाफिर, राही। गारबि = अहंकार से। अटिआ = लिबड़ा हुआ। रंग रटिआ = रंग में रंगे हुए। लोभि = लोभ में। बूडे = डूबे हुए। मरणु = मौत। चीति = चिक्त में। आवऐ = आए, आता। बनिता = स्त्री। बिउहार = वर्तण-व्यवहार, मेल जोल। करत = करते हुए। पुजि आऐ = समाप्त हो गए। दिवस = जिंदगी के दिन। माऐ = हे माँ! किरत = किए हुए।1।

अर्थ: हे भाई! जगत मुसाफिर है (फिर भी) अहंकार में लिबड़ा रहता है। माया के कौतकों में मस्त जीव अनेकों पाप करते रहते हैं। (जीव) लोभ में, (माया के) मोह में, अहंकार में डूबे रहते हैं (इनको) मौत याद नहीं आती। पुत्र, मित्र, स्त्री (आदि) के मेल-मिलाप- यही करते हुए उम्र गुजर जाती है। हे माँ! (धुर से) लिखे हुए (उम्र के) दिन जब खत्म हो जाते हैं, तो धर्मराज के दूतों को देख कर बड़ी तकलीफ़ होती है। हे नानक! (मनुष्य यहाँ) परमात्मा का नाम-धन नहीं कमाता, (अन्य) किए कर्मों (का लेखा) नहीं मिटता।1।

उदम करहि अनेक हरि नामु न गावही ॥ भरमहि जोनि असंख मरि जनमहि आवही ॥ पसू पंखी सैल तरवर गणत कछू न आवए ॥ बीजु बोवसि भोग भोगहि कीआ अपणा पावए ॥ रतन जनमु हारंत जूऐ प्रभू आपि न भावही ॥ बिनवंति नानक भरमहि भ्रमाए खिनु एकु टिकणु न पावही ॥२॥ {पन्ना 705}

पद्अर्थ: करहि = करते हैं। गावही = गाते हैं। भरमहि = भटकते हैं। असंख = अनगिनत। मरि = मर के, आत्मिक मौत सहेड़ के। जनमहि = पैदा होते हैं। आवही = (जूनों में) आते हैं। सैल = पत्थर। तरवर = वृक्ष। न आवऐ = न आए, नही आती। बोवसि = (तू) बीजेगा। भोगहि = (तू) भोगेगा। पावऐ = पाता है। हारंत = हारने वाले। जूअै = जूए में। भावही = अच्छे लगते हैं। भरमहि = भटकते हैं। भरमाऐ = गलत राह पर पड़े हुए। न पावही = नहीं पाते।2।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य और बहुत सारे अनेकों उद्यम करते हैं, पर परमात्मा का नाम नहीं जपते, वे अनगिनत जूनियों में भटकते फिरते हैं, आत्मिक मौत सहेड़ के (बार-बार) पैदा होते हैं (बार-बार जगत में) आते हैं। (वह मनुष्य) पशु-पक्षी, पत्थर, वृक्ष (आदि अनेक जूनियों में पड़ते हैं, जिन की) कोई गिनती नहीं हो सकती। (हे भाई! चेते रख, जैसा) तू बीज बीजेगा (वैसा ही) फल खाएगा। (हरेक मनुष्य) अपना किया पाता है। जो मनुष्य इस कीमती मानस जन्म को जूए में हार रहे हैं, वे परमात्मा को भी अच्छे नहीं लगते। नानक विनती करता है ऐसे मनुष्य (माया के हाथों) गलत रास्ते पर पड़े हुए (जूनों में) भटकते फिरते हैं, (जूनों के चक्करों में से) एक छिन भर भी टिक नहीं सकते।2।

जोबनु गइआ बितीति जरु मलि बैठीआ ॥ कर क्मपहि सिरु डोल नैण न डीठिआ ॥ नह नैण दीसै बिनु भजन ईसै छोडि माइआ चालिआ ॥ कहिआ न मानहि सिरि खाकु छानहि जिन संगि मनु तनु जालिआ ॥ स्रीराम रंग अपार पूरन नह निमख मन महि वूठिआ ॥ बिनवंति नानक कोटि कागर बिनस बार न झूठिआ ॥३॥ {पन्ना 705}

पद्अर्थ: जोबनु = जवानी। कर = (बहुवचन) दोनों हाथ। कंपहि = काँपते हैं। डोल = झोला। दीसै = दिखता। ईस = ईश्वर। न मानहि = नहीं मानते। सिरि = सिर पर। संगि = साथ। जालिआ = जला दिया। रंग = प्यार। वूठिआ = बसा। कोटि = करोड़ों (कोटि = करोड़। कोटु = किला। कोट = किले)। बार = देर। झूठिआ = नाशवंत। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय।3।

अर्थ: हे भाई! आखिर जवानी बीत जाती है, (उसकी जगह) बुढ़ापा आ जाता है। हाथ काँपने लग जाते हैं, सिर कंपन करने लगता है, आँखों से कुछ दिखता नहीं। आँखों से कुछ नहीं दिखता, (जिस माया की खातिर) परमात्मा के भजन से वंचित रहा, (आखिर उस) माया को (भी) छोड़ के चल पड़ता है। जिन (पुत्र आदि संबन्धियों के) साथ (अपना) मन (अपना) शरीर (तृष्णा की आग में) जलता रहा; (बुढ़ापे के वक्त वह भी) कहा नहीं मानते, सिर पर राख ही डालते हैं (बात-बात पर टके सा कोरा जवाब ही देते हैं)। (माया के मोह में फंसे रहने के कारण) बेअंत, सर्व-व्यापक परमात्मा के प्रेम की बातें एक छिन के वास्ते भी मन में ना बसीं। नानक विनती करता है– ये नाशवंत (शरीर के) नाश होने में समय नहीं लगता जैसे करोड़ों (मन) काग़ज (पल में जल के राख हो जाते हैं)।3।

चरन कमल सरणाइ नानकु आइआ ॥ दुतरु भै संसारु प्रभि आपि तराइआ ॥ मिलि साधसंगे भजे स्रीधर करि अंगु प्रभ जी तारिआ ॥ हरि मानि लीए नाम दीए अवरु कछु न बीचारिआ ॥ गुण निधान अपार ठाकुर मनि लोड़ीदा पाइआ ॥ बिनवंति नानकु सदा त्रिपते हरि नामु भोजनु खाइआ ॥४॥२॥३॥ {पन्ना 705}

पद्अर्थ: चरन कमल = कमल फूल जैसे सुंदर कोमल चरन। दुतरु = दुस्तर, जिससे पार लांघना मुश्किल है। भै = (‘भउ’ से बहुवचन)। प्रभि = प्रभू ने। मिलि = मिल के। संगे = संगि, संगति मे। स्रीधर = लक्ष्मी का पति, परमात्मा। करि = कर के। अंगु = पक्ष। मानि लीऐ = आदर दिया। अवरु कछु = कुछ और। निधान = खजाना। मनि = मन में। लोड़ीदा = जिसको मिलने की तांघ रखी हुई थी। त्रिपते = अघाए रहते हैं।4।

अर्थ: हे भाई! नानक (तो प्रभू के) कोमल चरणों की शरण आ पड़ा है। ये संसार (समुंद्र) अनेकों डरों से भरपूर है, इससे पार लांघना मुश्किल है, (जो भी मनुष्य प्रभू की शरण आ पड़े उन्हें सदा ही) प्रभू ने खुद (इस संसार-समुंद्र से) पार लंघा लिया। प्रभू ने सदा उनको आदर-मान दिया, अपने नाम की दाति दी उनके किसी और गुण-अवगुण की विचार ना की।

नानक विनती करता है– जिन मनुष्यों ने (आत्मिक जीवन जिंदा रखने के लिए) परमात्मा के नाम का भोजन खाया, वे (माया की तृष्णा से) सदा के लिए तृप्त हो गए उन्होंने उस गुणों के खजाने बेअंत मालिक प्रभू को अपने मन में पा लिया, जिसको मिलने की उन्होंने तमन्ना रखी हुई थी।4।2।3।

जैतसरी महला ५ वार सलोका नालि    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सलोक ॥ आदि पूरन मधि पूरन अंति पूरन परमेसुरह ॥ सिमरंति संत सरबत्र रमणं नानक अघनासन जगदीसुरह ॥१॥ पेखन सुनन सुनावनो मन महि द्रिड़ीऐ साचु ॥ पूरि रहिओ सरबत्र मै नानक हरि रंगि राचु ॥२॥ {पन्ना 705-706}

पद्अर्थ: आदि = जगत के आरम्भ से। पूरन = हर जगह मौजूद। मधि = बीच के समय। अंति = जगत के समाप्त हो जाने पर। सरबत्र रमणं = हर जगह व्यापक प्रभू को। पूरि रहिओ = मौजूद है। सरबत्र मै = हर जगह व्यापक। हरि रंगि = हरी के प्यार में। राचु = लीन हो जा।2।

अर्थ: संत जन उस सर्व-व्यापक परमेश्वर को सिमरते हैं जो जगत के शुरू से हर जगह मौजूद है, अब भी सर्व व्यापक है और आखिर में भी हर जगह हाजर-नाजर रहेगा। हे नानक! वह जगत का मालिक प्रभू सब पापों को नाश करने वाला है।1।

उस सदा-स्थिर रहने वाले प्रभू को मन में अच्छी तरह धारण करना चाहिए जो (हर जगह) खुद ही देखने वाला है, खुद ही सुनने वाला है और खुद ही सुनाने वाला है। हे नानक! उस हरी की प्यारी याद में लीन हो जा जो सब जगह मौजूद है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh