श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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यार वे पिरु आपण भाणा किछु नीसी छंदा ॥ यार वे तै राविआ लालनु मू दसि दसंदा ॥ लालनु तै पाइआ आपु गवाइआ जै धन भाग मथाणे ॥ बांह पकड़ि ठाकुरि हउ घिधी गुण अवगण न पछाणे ॥ गुण हारु तै पाइआ रंगु लालु बणाइआ तिसु हभो किछु सुहंदा ॥ जन नानक धंनि सुहागणि साई जिसु संगि भतारु वसंदा ॥३॥ {पन्ना 704}

पद्अर्थ: यार वे = हे सत्सयंगी मित्र! भाणा = भा गया। नीसी = नहीं। छंदा = मुथाजी, अधीनगी। तै = तू। राविआ = मिलाप हासिल कर लिया। मू = मुझे। दसंदा = पूछता हूँ। आपु = स्वै भाव। जै धन मथाणे = जिस (जीव-) स्त्री के माथे पर। पकड़ि = पकड़ के। ठाकुरि = ठाकुर ने। घिधी = ले ली, अपनी बना ली। गुण हारु = गुणों का हार। हभो किछु = सब कुछ, सारा जीवन। तिसु = उसे (मिल के)। साई = वही। संगि = साथ।3।

अर्थ: हे सत्संगी सज्जन! (जिस जीव-स्त्री को) अपना प्रभू-पति प्यारा लगने लग जाता है (उसे किसी की) कोई मुथाजी नहीं रह जाती। हे सत्संगी सज्जन! तूने सोहाने प्रभू का मिलाप हासिल कर लिया है, मैं पूछता हूँ, मुझे भी उसके बारे में बता। तूने सोहणे लाल को ढूँढ लिया है, और (अपने अंदर से) स्वै भाव दूर कर लिया है। जिस जीव-स्त्री के माथे के भाग्य जागते हैं (उसे मिलाप होता है)। (हे सखी!) मालिक प्रभू ने (मेरी भी) बाँह पकड़ के मुझे अपनी बना लिया है, मेरा कोई गुण-अवगुण उसने नहीं परखा। हे दास नानक! (कह–) वह जीव-स्त्री भाग्यशाली है, जिसके साथ (जिसके हृदय में) पति-प्रभू बसता है।3।

यार वे नित सुख सुखेदी सा मै पाई ॥ वरु लोड़ीदा आइआ वजी वाधाई ॥ महा मंगलु रहसु थीआ पिरु दइआलु सद नव रंगीआ ॥ वड भागि पाइआ गुरि मिलाइआ साध कै सतसंगीआ ॥ आसा मनसा सगल पूरी प्रिअ अंकि अंकु मिलाई ॥ बिनवंति नानकु सुख सुखेदी सा मै गुर मिलि पाई ॥४॥१॥ {पन्ना 704}

पद्अर्थ: सुख = सुख की आस सुखणा। सुखेदी = मैं सुख की मनोकामना सुखती हूँ, निश्चय करती हूँ, संकल्प लेती हूँ (सुख की मन्नत माननी)। सा = वह (सुखना)। लोड़ींदा = जो मुझे जरूरत थी। वधाई = उत्साह। रहसु = आनंद। सद = सदा। नव रंगीआ = नए रंग वाला। भागि = किस्मत से। गुरि = गुरू ने। कै सत्संगीआ = की संगति में। मनसा = मुराद। अंकि = अंक में। अंकु = अंग, स्वै। मिलि = मिल के। गुर मिलि = गुरू को मिल के।4।

अर्थ: हे सत्संगी सज्जन! जो सुख की मन्नतें सदा मैं मनाती रहती थी, वह (सुखना, मुराद) मेरी पूरी हो गई है। जिस प्रभू-पति को मैं (चिरों से) ढूँढती आ रही थी वह (मेरे हृदय में) आ बसा है, अब मेरे अंदर आत्मिक उत्साह के बाजे बज रहे हैं। सदा नए प्रेम-रंग वाला और दया का सोमा प्रभू-पति (मेरे अंदर आ बसा है, अब मेरे अंदर) बड़ा आनंद और उत्साह बन रहा है। हे सत्संगी सज्जन! बड़ी किस्मत से वह प्रभू-पति मुझे मिला है, गुरू ने मुझे साध-संगति में (उससे) मिला दिया है। (गुरू ने) मेरा स्वै प्यारे के अंक में मिला दिया है, मेरी हरेक आस-मुराद पूरी हो गई है।

नानक विनती करता है–जो सुखना (सुख की मन्नत) मैं सुखती रहती थी, गुरू को मिल के वह (मुराद) मैंने हासिल कर ली है।4।

जैतसरी महला ५ घरु २ छंत    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सलोकु ॥ ऊचा अगम अपार प्रभु कथनु न जाइ अकथु ॥ नानक प्रभ सरणागती राखन कउ समरथु ॥१॥ छंतु ॥ जिउ जानहु तिउ राखु हरि प्रभ तेरिआ ॥ केते गनउ असंख अवगण मेरिआ ॥ असंख अवगण खते फेरे नितप्रति सद भूलीऐ ॥ मोह मगन बिकराल माइआ तउ प्रसादी घूलीऐ ॥ लूक करत बिकार बिखड़े प्रभ नेर हू ते नेरिआ ॥ बिनवंति नानक दइआ धारहु काढि भवजल फेरिआ ॥१॥ {पन्ना 704}

पद्अर्थ: अगम = अपहुँच। कथनु न जाइ = बयान नहीं हो सकता। अकथु = बयान से परे। प्रभ = हे प्रभू! राखन कउ = रक्षा करने के लिए। समरथु = ताकत वाला।1।

प्रभ = हे प्रभू! गनउ = मैं गिनूँ। असंख = अनगिनत। खते = पाप। फेरे = चक्कर। नि प्रति = सदा ही। सद = सदा। बिकराल = भयानक। तउ प्रसादी = तेरी कृपा से। घूलीअै = बच सकते हैं। लूक करत = छुपते हुए। बिखड़े = मुश्किल। नेर हू ते नेरिआ = नजदीक से नजदीक। भवजल = संसार समुंद्र। फेरिआ = चक्करों में से।1।

अर्थ: सलोकु। हे नानक! (कह–) हे प्रभू! मैं तेरी शरण आया हूँ, तू (शरण आए की) रक्षा करने की ताकत रखता है। हे सबसे ऊँचे! हे अपहुँच! हे बेअंत! तू सबका मालिक है, तेरा स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता, बयान से परे हैं।1।

छंतु। हे हरी! हे प्रभू! मैं तेरा हूँ, जैसे ठीक समझो वैसे (माया के मोह से) मेरी रक्षा कर। मैं (अपने) कितने अवगुण गिनूँ? मेरे अंदर अनगिनत अवगुण हैं। हे प्रभू! मेरे अनगिनत ही अवगुण हैं, पापों के चक्करों में फंसा रहता हूँ, नित्य ही हमेशा ही गलतियां करता रहता हँ (मात खा जाता हूँ)। (वैसे तो मनुष्य) भयानक माया के मोह में मस्त रहता है, तेरी कृपा से ही बचा जा सकता है। हम जीव दुखदाई विकार (अपनी ओर से) पर्दे में रह कर करते हैं, पर, हे प्रभू! तू हमारे नजदीक से नजदीक (हमारे साथ ही) बसता है। नानक विनती करता है हे प्रभू! हम पर मेहर कर, हम जीवों को संसार-समुंद्र के (विकारों के) चक्करों में से निकाल ले।1।

सलोकु ॥ निरति न पवै असंख गुण ऊचा प्रभ का नाउ ॥ नानक की बेनंतीआ मिलै निथावे थाउ ॥२॥ छंतु ॥ दूसर नाही ठाउ का पहि जाईऐ ॥ आठ पहर कर जोड़ि सो प्रभु धिआईऐ ॥ धिआइ सो प्रभु सदा अपुना मनहि चिंदिआ पाईऐ ॥ तजि मान मोहु विकारु दूजा एक सिउ लिव लाईऐ ॥ अरपि मनु तनु प्रभू आगै आपु सगल मिटाईऐ ॥ बिनवंति नानकु धारि किरपा साचि नामि समाईऐ ॥२॥ {पन्ना 704}

पद्अर्थ: निरति = निर्णय, परख। असंख = अनगिनत। निथावै = निआसरे को।2।

छंतु। ठाउ = जगह, आसरा। का पहि = किस के पास? कर = (बहुवचन) दोनों हाथ। जोड़ि = जोड़ कर। धिआईअै = सिमरना चाहिए। धिआइ = सिमर के। मनहि = मन में ही (‘मनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)। चिंदिआ = चितवा हुआ। तजि = छोड़ के। विकारु दूजा = कोई अन्य आसरा तलाशने की गुस्ताखी। सिउ = साथ। अरपि = भेटा कर के। आपु = स्वै भाव। साचि = सदा स्थिर रहने वाले में। साचि नामि = सदा स्थिर रहने वाले हरी नाम में। समाईअै = लीन रहना चाहिए।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के अनगिनत गुणों का निर्णय नहीं हो सकता, उसका बड़प्पन सबसे ऊँचा है। नानक की (उसके दर पर ही) अरदास है कि (मुझ) निआसरे को (उसके चरणों में) जगह मिल जाए।2।

छंतु। हे भाई! हम जीवों के लिए परमात्मा के बिना और कोई जगह नहीं है, (परमात्मा का दर छोड़ के) हम और किस के पास जा सकते हैं? दोनों हाथ जोड़ के आठों पहर (हर वक्त) प्रभू का ध्यान धरना चाहिए। हे भाई! अपने उस प्रभू का ध्यान धर के (उसके दर से) मन मांगी मुरादें हासिल कर ली जाती हैं। (अपने अंदर से) अहंकार, मोह, और कई अन्य आसरे तलाशने की बुराई त्याग के एक परमात्मा के चरणों से ही सुरति जोड़नी चाहिए। हे भाई! प्रभू की हजूरी में अपना मन अपना शरीर भेटा करके (अपने अंदर से) सारा स्वै भाव मिटा देना चाहिए। नानक (तो प्रभू के दर पर ही) बिनती करता है (और कहता है– हे प्रभू!) मेहर कर (तेरी मेहर से ही तेरे) सदा-स्थिर रहने वाले नाम में लीन हुआ जा सकता है।2।

सलोकु ॥ रे मन ता कउ धिआईऐ सभ बिधि जा कै हाथि ॥ राम नाम धनु संचीऐ नानक निबहै साथि ॥३॥ छंतु ॥ साथीअड़ा प्रभु एकु दूसर नाहि कोइ ॥ थान थनंतरि आपि जलि थलि पूर सोइ ॥ जलि थलि महीअलि पूरि रहिआ सरब दाता प्रभु धनी ॥ गोपाल गोबिंद अंतु नाही बेअंत गुण ता के किआ गनी ॥ भजु सरणि सुआमी सुखह गामी तिसु बिना अन नाहि कोइ ॥ बिनवंति नानक दइआ धारहु तिसु परापति नामु होइ ॥३॥ {पन्ना 704}

पद्अर्थ: ता कउ = उस (प्रभू के नाम) को। सभ बिधि = हरेक किस्म की जुगति। हाथि = हाथ में। जा कै हाथि = जिसके हाथ में। संचीअै = इकट्ठा करना चाहिए। निबहै = साथ करता है। साथि = साथ।3।

छंतु। साथीअड़ा = प्यारा साथी। थान थनंतरि = स्थान स्थान अंतर, हरेक जगह में। जलि = जल में। थलि = थल में। पूर = व्यापक। सोइ = वह ही। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, आकाश में, अंतरिक्ष में। धनी = मालिक। ता के = उसके। किआ गनी = मैं क्या गिन सकता हूँ? भजु = जा, भाग। सुखहगामी = सुख पहुँचाने वाला। अन = अन्य। धारहु = करते हो।3।

अर्थ: हे (मेरे) मन! जिस परमात्मा के हाथ में (हमारी) हरेक (जीवन-) जुगति है, उसका नाम सिमरना चाहिए। हे नानक! परमात्मा का नाम-धन एकत्र करना चाहिए, (यही धन) हमारे साथ साथ निभाता है।3।

छंतु। हे भाई! सिर्फ परमात्मा ही (सदा साथ निभने वाला) साथी है, उसके बिना और कोई (साथी) नहीं। वही परमात्मा पानी में, धरती पर, आकाश में बस रहा है। हे भाई! वह मालिक प्रभू पानी में, धरती पर, आकाश में व्याप रहा है, सब जीवों को दातें देने वाला है। उस गोपाल गोबिंद (के गुणों) का अंत नहीं पाया जा सकता, उसके गुण बेअंत हैं, मैं उसके क्या गुण गिन सकता हूँ? हे भाई! उस मालिक की शरण पड़ा रह, वह ही सारे सुख पहुँचाने वाला है। उसके बिना (हम जीवों का) और कोई (सहारा) नहीं है। नानक विनती करता है– हे प्रभू! जिस के ऊपर तू मेहर करता है, उसको तेरा नाम हासिल हो जाता है।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh