श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 713 टोडी महला ५ घरु २ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मागउ दानु ठाकुर नाम ॥ अवरु कछू मेरै संगि न चालै मिलै क्रिपा गुण गाम ॥१॥ रहाउ ॥ राजु मालु अनेक भोग रस सगल तरवर की छाम ॥ धाइ धाइ बहु बिधि कउ धावै सगल निरारथ काम ॥१॥ बिनु गोविंद अवरु जे चाहउ दीसै सगल बात है खाम ॥ कहु नानक संत रेन मागउ मेरो मनु पावै बिस्राम ॥२॥१॥६॥ {पन्ना 713} पद्अर्थ: मागउ = माँगू। ठाकुर = हे मालिक! अवरु कछु = और कुछ भी। संगि = साथ। गुण गाम = (तेरे) गुणों का गाना, (तेरी) सिफत सालाह।1। रहाउ। तरवर = वृक्ष। छाम = छाया। धाइ = दौड़ के। बहु बिधि = कई तरीकों से। धावै = दज्ञैड़ता है। धाइ धाइ धावै = सदा ही दौड़ता रहता है। निरारथ = व्यर्थ, निरर्थ।1। अवरु = और। चाहउ = चाहूँ, मैं माँगता रहूँ। खाम = खामी, कच्ची, नाशवंत। नानक = हे नानक! रेन = चरण धूड़। बिस्राम = (भटकने से) टिकाव।2। अर्थ: हे मालिक प्रभू! मैं (तेरे पास से तेरे) नाम का दान माँगता हूँ। कोई भी और चीज तेरे साथ नहीं जा सकती। अगर तेरी कृपा हो, तो मुझे तेरी सिफत सालाह मिल जाए।1। रहाउ। हे भाई! हकूमत, धन और अनेकों पदार्थों के स्वाद - ये सारे वृक्ष की छाया समान हैं (सदा एक जगह टिके नहीं रह सकते)। मनुष्य (इनकी खातिर) सदा ही कई तरीकों से दौड़-भाग करता रहता है, पर उसके सारे काम व्यर्थ चले जाते हैं।1। हे नानक! कह– (हे भाई!) अगर मैं परमात्मा के नाम के बिना कुछ और ही माँगता रहूँ, तो यही सारी बात कच्ची है। मैं तो संतजनों के चरणों की धूल माँगता हूँ, (ता कि) मेरा मन (दुनियावी दौड़-भाग से) ठिकाना हासिल कर सके।2।1।9। टोडी महला ५ ॥ प्रभ जी को नामु मनहि साधारै ॥ जीअ प्रान सूख इसु मन कउ बरतनि एह हमारै ॥१॥ रहाउ ॥ नामु जाति नामु मेरी पति है नामु मेरै परवारै ॥ नामु सखाई सदा मेरै संगि हरि नामु मो कउ निसतारै ॥१॥ बिखै बिलास कहीअत बहुतेरे चलत न कछू संगारै ॥ इसटु मीतु नामु नानक को हरि नामु मेरै भंडारै ॥२॥२॥७॥ {पन्ना 713} पद्अर्थ: को = का। मनहि = मन को। साधारै = आधार सहित करता है, आसरा देता है। जीअ = जिंद। कउ = के वास्ते। बरतनि = हर वक्त काम आने वाली चीज। हमारै = मेरे वास्ते।1। रहाउ। पति = इज्जत। परवारै = परिवार। सखाई = मित्र, साथी। संगि = साथ। मो कउ = मुझे। कउ = को। निसतारै = पार लंघाता है।1। बिखै बिलास = विषियों का भोग। कहीअत = कहे जाते हैं। चलत = चलता, जाता। कछु = कुछ भी। संगारै = संग, साथ। इसटु = ईष्ट, प्यारा। को = का। भंडारै = खजाने में।2। अर्थ: हे भाई! प्रभू जी का नाम (ही) मन को आसरा देता है। नाम ही इस मन के वास्ते जान है, और सुख है। मेरे वास्ते तो हरी-नाम ही हर वक्त काम आने वाली चीज है।1। रहाउ। हे भाई! प्रभू का नाम (ही मेरे वास्ते ऊँची) जाति है, हरी नाम ही मेरी इज्जत है, हरी नाम ही मेरा परिवार है। प्रभू का नाम (ही मेरा) मित्र है (जो) सदा मेरे साथ रहता है। परमात्मा का नाम (ही) मुझे संसार समुंद्र से पार लंघाने वाला है।1। हे भाई! विषियों के बहुत सारे भोग बताए जाते हैं, पर कोई भी चीज मनुष्य के साथ नहीं जाती। (इस वास्ते) नानक का सबसे प्यारा मित्र प्रभू का नाम ही है। प्रभू का नाम ही मेरे खजाने में (धन) है।2।2।7। टोडी मः ५ ॥ नीके गुण गाउ मिटही रोग ॥ मुख ऊजल मनु निरमल होई है तेरो रहै ईहा ऊहा लोगु ॥१॥ रहाउ ॥ चरन पखारि करउ गुर सेवा मनहि चरावउ भोग ॥ छोडि आपतु बादु अहंकारा मानु सोई जो होगु ॥१॥ संत टहल सोई है लागा जिसु मसतकि लिखिआ लिखोगु ॥ कहु नानक एक बिनु दूजा अवरु न करणै जोगु ॥२॥३॥८॥ {पन्ना 713} पद्अर्थ: नीके = सोहाने, अच्छे। गाउ = गा, गाया कर। मिटहि = मिट जाते हैं। ऊजल = रौशन। रहै = बना रहता है। ईहा ऊहा लोगु = ये लोक और परलोक।1। रहाउ। पाखारि = धो के। करउ = मैं करूँ। मनहि = मन को ही। चरावउ = मैं चढ़ा दूँ। भोग = भेट। छोडि = छोड़ के। आपतु = स्वै भाव। बादु = झगड़ा। मानु = मंन। होगु = होगा।1। सोई = वही मनुष्य। मसतकि = माथे पर। लिखोगु = लेख। करणै जोगु = करने की समर्था वाला।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सुंदर गुण गाता रहा कर। (सिफत सालाह की बरकति से) सारे रोग मिट जाते हैं। (इस तरह) तेरा ये लोक और परलोक संवर जाएंगे, मन पवित्र हो जाएगा, (लोक परलोक में) मुँह भी रौशन रहेगा।1। रहाउ। हे भाई! मैं (तो) गुरू के चरण धो के गुरू की सेवा करता हूँ, अपना मन गुरू के आगे भेटा करता हूँ (क्योंकि गुरू की कृपा से ही प्रभू की सिफत सालाह की जा सकती है)। हे भाई! तू भी (गुरू की शरण पड़ कर) स्वै भाव, (माया वाला) झगड़ा और अहंकार त्याग, जो कुछ प्रभू की रजा में होता है उस को (मीठा करके) मान।1। (पर) हे नानक! कह– गुरू की सेवा में वही मनुष्य लगता है जिसके माथे पर (धुर से यह) लेख लिखा होता है, उस एक परमात्मा के बिना कोई और (ये मेहर) करने के काबिल नहीं है।2।3।8। टोडी महला ५ ॥ सतिगुर आइओ सरणि तुहारी ॥ मिलै सूखु नामु हरि सोभा चिंता लाहि हमारी ॥१॥ रहाउ ॥ अवर न सूझै दूजी ठाहर हारि परिओ तउ दुआरी ॥ लेखा छोडि अलेखै छूटह हम निरगुन लेहु उबारी ॥१॥ सद बखसिंदु सदा मिहरवाना सभना देइ अधारी ॥ नानक दास संत पाछै परिओ राखि लेहु इह बारी ॥२॥४॥९॥ {पन्ना 713} पद्अर्थ: सतिगुर = हे गुरू! लाहि = दूर कर।1। रहाउ। अवर ठाहर = कोई और आसरा। हारि = हार के। तउ दुआरी = तेरे दर पे। अलेखै = बिना लेखा किए। छूटह = हम सुर्खरू हो सकते हैं। निरगुन = गुणहीन। लेहु उबारी = उबार लो।1। सद = सदा। बखसिंदु = बख्शिश करने वाला। देइ = देता है। अधारी = आसरा। संत पाछै = गुरू की शरण। इह बारी = इस बार, इस जनम में।2। अर्थ: हे गुरू! मैं तेरी शरण आया हूँ। मेरी चिंता दूर कर (मेहर कर, तेरे दर से मुझे) परमात्मा का नाम मिल जाए, (यही मेरे वास्ते) सुख (है, यही मेरे वास्ते) शोभा (है)।1। रहाउ। हे प्रभू! (मैं अन्य आसरों की तरफ से) हार के तेरे दर पर आ पड़ा हूँ, अब मुझे और कोई आसरा नहीं सूझता। हे प्रभू! हम जीवों के कर्मों का लेखा ना कर, हम तभी सुर्खरू हो सकते हैं, अगर हमारे कर्मों का लेखा ना किया जाए। हे प्रभू! हम गुणहीन जीवों को (विकारों से तू खुद) बचा ले।1। हे भाई! परमात्मा सदा बख्शिशें करने वाला है, सदा मेहर करने वाला है, वह सब जीवों को आसरा देता है। हे दास नानक! (तू भी आरजू कर और कह–) मैं गुरू की शरण आ पड़ा हूँ, मुझे इस जनम में (विकारों से) बचाए रख।2।4।9। टोडी महला ५ ॥ रसना गुण गोपाल निधि गाइण ॥ सांति सहजु रहसु मनि उपजिओ सगले दूख पलाइण ॥१॥ रहाउ ॥ जो मागहि सोई सोई पावहि सेवि हरि के चरण रसाइण ॥ जनम मरण दुहहू ते छूटहि भवजलु जगतु तराइण ॥१॥ खोजत खोजत ततु बीचारिओ दास गोविंद पराइण ॥ अबिनासी खेम चाहहि जे नानक सदा सिमरि नाराइण ॥२॥५॥१०॥ {पन्ना 713-714} पद्अर्थ: रसना = जीभ (से)। निधि = खजाना। सहजु = आत्मिक अडोलता। रहसु = हर्ष, खुशी। मुनि = मन में। पलाइण = दौड़ जाते हैं।1। रहाउ। मागहि = (जीव) माँगते हैं। सेवि = सेवा करके। रसाइण = सारे रसों का घर। ते = से। छूटहि = बच जाते हैं। भवजलु = संसार समुंद्र।1। ततु = अस्लियत। पराइण = आसरे। अबिनासी खेम = कभी नाश ना होने वाला सुख। चाहहि = तू चाहता है।2। अर्थ: हे भाई! (सारे सुखों के) खजाने गोपाल प्रभू के गुण जीभ से गाते हुए मन में शांति पैदा हो जाती है, आत्मिक अडोलता पैदा होती है, सुख पैदा होता है, सारे दुख दूर हो जाते हैं।1। रहाउ। हे भाई! प्रभू सारे रसों का घर है उसके चरनों की सेवा करके (मनुष्य) जो कुछ (उसके दर से) माँगते हैं, वही कुछ प्राप्त कर लेते हैं, (निरा यही नहीं, प्रभू की सेवा-भक्ति करने वाले मनुष्य) जन्म और मौत दोनों से बच जाते हैं, संसार-समुंद्र से पार लांघ जाते हैं।1। हे भाई! खोज करते-करते प्रभू के दास असल तत्व को समझ लेते हैं, और प्रभू के ही आसरे रहते हैं। हे नानक! (कह– हे भाई!) अगर तू कभी ना खत्म होने वाला सुख चाहता है, तो सदा परमात्मा का सिमरन किया कर।2।5।10। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |