श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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टोडी महला ५ ॥ निंदकु गुर किरपा ते हाटिओ ॥ पारब्रहम प्रभ भए दइआला सिव कै बाणि सिरु काटिओ ॥१॥ रहाउ ॥ कालु जालु जमु जोहि न साकै सच का पंथा थाटिओ ॥ खात खरचत किछु निखुटत नाही राम रतनु धनु खाटिओ ॥१॥ भसमा भूत होआ खिन भीतरि अपना कीआ पाइआ ॥ आगम निगमु कहै जनु नानकु सभु देखै लोकु सबाइआ ॥२॥६॥११॥ {पन्ना 714}

पद्अर्थ: ते = से। गुर किरपा ते = गुरू की कृपा से, जब गुरू की कृपा होती है। हाटिओ = हट जाता है, (निंदा करने की आदत से) हट जाता है। कै बाणि = के बाण से। सिव कै बाणि = कल्याण-रूप प्रभू के नाम-तीर से। सिरु = अहंकार। काटिओ = काट देता है।1। रहाउ।

काल = आत्मिक मौत। जालु = (माया का) जाल। जमु = मौत (का डर)। जोहि न साकै = देख भी नहीं सकता। सच का पंथा = सदा स्थिर हरी नाम सिमरन करने वाला रास्ता। पंथा = रास्ता। थाटिओ = कब्जा कर लेता है। खात = खाते हुए। खरचत = औरों को बाँटते हुए।1।

भसमा भूत = राख हो जाता है, नामो निशान मिट जाता है। अपना कीआ पाइआ = (जिस निंदा स्वभाव के कारण) अपना किया पाता था, दुखी होता रहता था। आगम निगमु = ईश्वरीय अगंमी खेल। सबाइआ = सारा।2।

अर्थ: हे भाई! जब गुरू कृपा करता है तो निंदा के स्वभाव वाला मनुष्य (निंदा करने से) हट जाता है। (जिस निंदक पर) प्रभू परमात्मा जी दयावान हो जाते हैं, कल्याण-रूवरूप हरी के नाम-तीर से (गुरू उसका) सिर काट देता है (उसका अहंकार नाश कर देता है)।1। रहाउ।

(हे भाई! जिस मनुष्य पर गुरू प्रभू दयावान होते हैं) उस मनुष्य को आत्मिक मौत, माया का जाल, मौत का डर (कोई भी) देख नहीं सकता, (क्योंकि गुरू की कृपा से वह मनुष्य) सदा-स्थिर हरी-नाम सिमरन वाले रास्ते पर कब्जा कर लेता है। वह मनुष्य परमात्मा का रत्न (जैसा कीमती) नाम-धन कमा लेता है। खुद बरत के, औरों को बाँट के ये धन रक्ती भर भी नहीं खत्म होता।1।

हे भाई! (जिस निंदा स्वभाव के कारण, जिस स्वै भाव के कारण, निंदक सदा) दुखी होता रहता था, (प्रभू के दयाल होने से, गुरू की कृपा से) एक छिन में ही उस स्वभाव का नामो-निशान मिट जाता है। (इस आश्चर्यजनक तब्दीली को) सारा जगत हैरान हो-हो के देखता है। दास नानक ये अगंमी-रॅबी खेल बयान करता है।2।6।11।

टोडी मः ५ ॥ किरपन तन मन किलविख भरे ॥ साधसंगि भजनु करि सुआमी ढाकन कउ इकु हरे ॥१॥ रहाउ ॥ अनिक छिद्र बोहिथ के छुटकत थाम न जाही करे ॥ जिस का बोहिथु तिसु आराधे खोटे संगि खरे ॥१॥ गली सैल उठावत चाहै ओइ ऊहा ही है धरे ॥ जोरु सकति नानक किछु नाही प्रभ राखहु सरणि परे ॥२॥७॥१२॥ {पन्ना 714}

पद्अर्थ: किरपन = हे कंजूस! (वह मनुष्य जो अपनी स्वासों की पूँजी को कभी भी सिमरन में खर्च नहीं करता)। किलविख = पाप। हरे = हरी।1। रहाउ।

छिद्र = छेद। बोहिथ = जहाज। थाम न करे जाही = थामे नहीं जा सकते। आराधे = आराध। संगि = साथ।1।

जिस का: ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।

गली = बातों से। सैल = पहाड़। ओइ = (‘ओह’ का बहुवचन)। प्रभ = हे प्रभू!।2।

अर्थ: हे कंजूस! (स्वासों की पूँजी सिमरन में ना खर्च करने के कारण तेरा) मन और शरीर पापों से भरे पड़े हैं। हे कंजूस! साध-संगति में टिक के मालिक प्रभू का भजन किया कर। सिर्फ वह प्रभू ही इन पापों पर पर्दा डालने में समर्थ है।1। रहाउ।

हे कंजूस! (सिमरन से सूना रहने के कारण तेरे शरीर-) जहाज में अनेकों छेद हो गए हैं, (सिमरन के बिना किसी भी और तरीके से) ये छेद बंद नहीं किए जा सकते। जिस परमात्मा का दिया हुआ ये (शरीर) जहाज है, उसकी आराधना किया कर। उसकी संगति में खोटी (हो चुकी ज्ञानेन्द्रियां) खरी हो जाएंगी।1।

पर मनुष्य निरी बातों से ही पहाड़ उठाना चाहता है (सिर्फ बातों से) वह पहाड़ वहीं के वहीं धरे रह जाते हैं। हे नानक! (कह–) हे प्रभू! (इन छेदों से बचने के लिए हम जीवों में) कोई जोर कोई ताकत नहीं। हम तेरी शरण आ पड़े हैं, हमें तू खुद ही बचा ले।2।7।12।

टोडी महला ५ ॥ हरि के चरन कमल मनि धिआउ ॥ काढि कुठारु पित बात हंता अउखधु हरि को नाउ ॥१॥ रहाउ ॥ तीने ताप निवारणहारा दुख हंता सुख रासि ॥ ता कउ बिघनु न कोऊ लागै जा की प्रभ आगै अरदासि ॥१॥ संत प्रसादि बैद नाराइण करण कारण प्रभ एक ॥ बाल बुधि पूरन सुखदाता नानक हरि हरि टेक ॥२॥८॥१३॥ {पन्ना 714}

पद्अर्थ: चरन कमल = कमल के फूल जैसे कोमल चरण। मनि = मन में। धिआउ = ध्याऊँ। काढि = निकाल के। कुठारु = कोहाड़ा। पित = पिक्त, गर्मी, (क्रोध)। बात = वायु, वाई (अहंकार)। अउखधु = दवा। को = का।1। रहाउ।

तीने ताप = आधि व्याधि, उपाधि (मानसिक रोग, शारीरिक रोग व झगड़े आदि)। रासि = पूँजी। ता कउ = उस (मनुष्य) को। बिघनु = रुकावट।1।

संत प्रसादि = गुरू की कृपा से। बैद = हकीम। करण कारण = जगत का मूल। बाल बुधि = बालकों वाली सरल बुद्धि वाले मनुष्य, जो चतुराई छोड़ देते हैं। टेक = आसरा।2।

अर्थ: हे भाई! मैं तो अपने मन में परमात्मा के कोमल चरणों का ध्यान धरता हूँ। परमात्मा का नाम (एक ऐसी) दवाई है जो (मनुष्य के अंदर से) क्रोध और अहंकार (आदि रोगों को) पूरी तरह से निकाल देती है (जैसे, दवा शरीर में से गर्मी और वाई के रोग दूर करती है)।1। रहाउ।

हे भाई! परमात्मा (का नाम मनुष्य के अंदर से आधि, व्याधि व उपाधि) तीनों ही ताप दूर करने वाला है, सारे दुखों का नाश करने वाला है, और सारे सुखों की राशि है। जिस मनुष्य की अरदास सदा प्रभू के दर पे जारी रहती है, उसके जीवन के रास्ते में कोई रुकावट नहीं आती।1।

हे भाई! एक परमात्मा ही जगत का मूल है, (जीवों के रोग दूर करने वाला) हकीम है। ये प्रभू गुरू की कृपा से मिलता है। हे नानक! जो मनुष्य अपने अंदर से चतुराई दूर कर देते हैं, सारे सुख देने वाला परमात्मा उन्हें मिल जाता है, उन (की जिंदगी) का सहारा बन जाता है।2।8।13।

टोडी महला ५ ॥ हरि हरि नामु सदा सद जापि ॥ धारि अनुग्रहु पारब्रहम सुआमी वसदी कीनी आपि ॥१॥ रहाउ ॥ जिस के से फिरि तिन ही सम्हाले बिनसे सोग संताप ॥ हाथ देइ राखे जन अपने हरि होए माई बाप ॥१॥ जीअ जंत होए मिहरवाना दया धारी हरि नाथ ॥ नानक सरनि परे दुख भंजन जा का बड परताप ॥२॥९॥१४॥ {पन्ना 714}

पद्अर्थ: सद = सदा। जापि = जपा कर। अनुग्रहु = कृपा। धारि = धर के, कर के। वसदी कीनी = बसा दी।1। रहाउ।

से = थे। तिन ही = तिनि ही, उसने ही (‘तिनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)। समाले = संभाल करता है। सोग = चिंता फिक्र। संताप = दुख कलेश। देइ = दे के।1।

जिस के: ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।

जीअ जंत = सारे ही जीव। जा का = जिस (परमात्मा) का।2।

अर्थ: हे भाई! सदा ही परमात्मा का नाम जपा कर। (जिस भी मनुष्य ने परमात्मा का नाम जपा है) मालिक प्रभू ने अपनी मेहर कर के (उसकी सूनी पड़ी हृदय-नगरी को सुंदर आत्मिक गुणों से) खुद बसा दिया।1। रहाउ।

हे भाई! जिस प्रभू के हम पैदा किए हुए हैं, वह प्रभू (उन मनुष्यों की) खुद संभाल करता है (जो उसका नाम जपते हैं, उनके सारे) चिंता-फिक्र, दुख-कलेश नाश हो जाते हैं। परमात्मा अपना हाथ दे के अपने सेवकों को ( चिंता-फिक्र, दुख-कलेशों से) आप बचाता है, उनका माँ-बाप बना रहता है।1।

हे भाई! परमात्मा सारे ही जीवों पर मेहर करने वाला है, वह पति प्रभू सब पे दया करता है। हे नानक! (कह–) मैं उस प्रभू की शरण पड़ा हूँ, जो सारे दुखों का नाश करने वाला है, और, जिसका तेज-प्रताप बहुत है।2।9।14।

टोडी महला ५ ॥ स्वामी सरनि परिओ दरबारे ॥ कोटि अपराध खंडन के दाते तुझ बिनु कउनु उधारे ॥१॥ रहाउ ॥ खोजत खोजत बहु परकारे सरब अरथ बीचारे ॥ साधसंगि परम गति पाईऐ माइआ रचि बंधि हारे ॥१॥ चरन कमल संगि प्रीति मनि लागी सुरि जन मिले पिआरे ॥ नानक अनद करे हरि जपि जपि सगले रोग निवारे ॥२॥१०॥१५॥ {पन्ना 714}

पद्अर्थ: स्वामी = हे नानक! परिओ = आ पड़ा हूँ। दरबारे = तेरे दर पर। कोटि = करोड़ों। अपराध = भूलें। खंडन के दाते = नाश करने के समर्थ, हे दातार! उधारे = (भूलों से) बचाए।1। रहाउ।

खोजत = तलाशते हुए। बहु परकारे = कई तरीकों से। सरब अरथ = सारी बातें। संगि = संगति में। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। रचि = रच के, फस के। बंधि = बंधन में। माइआ रचि बंधि = माया के (मोह के) बँधन में फंस के। हारे = मानस जन्म की बाजी हार जाते हैं।1।

संगि = साथ। मनि = मन में। सुरिजन = गुरमुख सज्जन। करे = करता है। जपि = जप के। सगले = सारे। निवारे = दूर कर लेता है।2।

अर्थ: हे मालिक प्रभू! मैं तेरी शरण आ पड़ा हूँ, मैं तेरे दर पर (आ गिरा हूँ)। हे करोड़ों भूलें नाश करने के समर्थ दातार! तेरे बिना और कौन मुझे भूलों से बचा सकता है?।1। रहाउ।

हे भाई! कई ढंगों से खोज कर करके मैंने सारी बातें विचारी हैं (और इस नतीजे पर पहुँचा हूँ, कि) गुरू की संगति में टिकने से सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था प्राप्त कर ली जाती है, और माया के (मोह के) बँधनों में फंस के (मानस जन्म की बाजी) हार जाते हैं।1।

हे नानक! जिस मनुष्य को प्यारे गुरसिख सज्जन मिल जाते हैं उसके मन में परमात्मा के कोमल चरणों का प्यार पैदा हो जाता है, वह मनुष्य परमात्मा का नाम जप-जप के आत्मिक आनंद लेता है और वह (अपने अंदर से) सारे रोग दूर कर लेता है।2।10।15।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh