श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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तिलंग महला ९ ॥ हरि जसु रे मना गाइ लै जो संगी है तेरो ॥ अउसरु बीतिओ जातु है कहिओ मान लै मेरो ॥१॥ रहाउ ॥ स्मपति रथ धन राज सिउ अति नेहु लगाइओ ॥ काल फास जब गलि परी सभ भइओ पराइओ ॥१॥ जानि बूझ कै बावरे तै काजु बिगारिओ ॥ पाप करत सुकचिओ नही नह गरबु निवारिओ ॥२॥ जिह बिधि गुर उपदेसिआ सो सुनु रे भाई ॥ नानक कहत पुकारि कै गहु प्रभ सरनाई ॥३॥३॥ {पन्ना 727}

पद्अर्थ: जसु = सिफत सालाह। संगी = साथी। अउसरु = अवसर, (जिंदगी का) समय। बीतिओ जातु है = बीतता जा रहा है। मेरो कहिओ = मेरा कहा, मेरा वचन।1। रहाउ।

संपति = धन पदार्थ। सिउ = साथ। नेहु = प्यार। फास = फासी। जब = जब। गलि = गले में। परी = पड़ती है। सभ = हरेक चीज। पराइओ = बेगानी।1।

जानि कै = जान के, जानते हुए। बूझि कै = समझ के, समझते हुए। बावरे = हे झल्ले! तै बिगारिओ = तूने बिगाड़ लिया है। काजु = काम। करत = करता। सुकचिओ = संकोचित हुआ, शर्माया। गरबु = अहंकार। निवारिओ = दूर किया।2।

जिह बिधि = जिस तरीके से। गुरि = गुरू ने। रे = हे! पुकारि कै = ऊँचा बोल के। गहु = पकड़। प्रभ सरनाई = प्रभू की शरण।3।

अर्थ: हे मन! परमात्मा के सिफत सालाह के गीत गाया कर, ये सिफत सालाह ही तेरा असल साथी है। मेरे वचन मान ले। उम्र का समय बीतता जा रहा है।1। रहाउ।

हे मन! मनुष्य धन-पदार्थ, रथ, माल, राज माल से बड़ा मोह करता है। पर जब मौत की फाही (उसके) गले में पड़ती है, हरेक चीज बेगानी हो जाती है।1।

हे झल्ले मनुष्य! ये सब कुछ जानते हुए समझते हुए भी तू अपना काम बिगाड़ रहा है। तू पाप करते हुए (कभी) संकोचित नहीं होता, तू (इस धन-पदार्थ का) अहंकार भी दूर नहीं करता।2।

नानक (तुझे) पुकार के कहता है–हे भाई! गुरू ने (मुझे) जिस तरह उपदेश किया है, वह (तू भी) सुन ले (कि) प्रभू की शरण पड़ा रह (सदा प्रभू का नाम जपा कर)।3।3।

तिलंग बाणी भगता की कबीर जी    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ बेद कतेब इफतरा भाई दिल का फिकरु न जाइ ॥ टुकु दमु करारी जउ करहु हाजिर हजूरि खुदाइ ॥१॥ बंदे खोजु दिल हर रोज ना फिरु परेसानी माहि ॥ इह जु दुनीआ सिहरु मेला दसतगीरी नाहि ॥१॥ रहाउ ॥ दरोगु पड़ि पड़ि खुसी होइ बेखबर बादु बकाहि ॥ हकु सचु खालकु खलक मिआने सिआम मूरति नाहि ॥२॥ असमान म्यिाने लहंग दरीआ गुसल करदन बूद ॥ करि फकरु दाइम लाइ चसमे जह तहा मउजूदु ॥३॥ अलाह पाकं पाक है सक करउ जे दूसर होइ ॥ कबीर करमु करीम का उहु करै जानै सोइ ॥४॥१॥ {पन्ना 727}

पद्अर्थ: कतेब = पष्चिमी मतों की धार्मिक पुस्तक (तौरेत, ज़ंबूर, अंजील, कुरान)। इफतरा = (अरबी) मुबालग़ा, बनावट, अस्लियत से बढ़ा चढ़ा के बताई हुई बातें। फिकरु = सहम, अशांति। टुकु = थोड़ी सी। टुकु दमु = पलक भर। करारी = टिकाउ एकाग्रता। जउ = अगर। हाजिर हजूरि = हर जगह मौजूद। खुदाइ = रॅब, परमात्मा।1।

बंदे = हे मनुष्य! परेसानी = घबराहट। सिहरु = जादू, वह जिसकी अस्लियत कुछ और हो पर देखने को कुछ अजीब मन मोहना दिखता हो। मेला = खेल, तमाशा। दसतगीरी = (दसत = हाथ। गीरी = पकड़ना) हाथ पल्ले पड़ने वाली चीज, सदा संभाल के रखने वाली चीज। रहाउ।

दरोगु = झूठ। दरोगु पढ़ि पढ़ि = ये पढ़ के कि वेद झूठे हैं अथवा ये पढ़ के कि कतेब झूठे हैं। होइ = हो के। बेखबर = अन्जान मनुष्य। बादु = झगड़ा, बहस। बकाहि = बोलते हैं। बादु बकाहि = बहस करते हैं। हकु सचु = सदा कायम रहने वाला रॅब। मिआने = में। सिआम मूरति = श्याम मूर्ति, कृष्ण जी की मूर्ति। नाहि = (रॅब) नहीं है।2।

असमान = आकाश, दसम द्वार, अंतहकर्ण, मन। मिआने = मिआने, अंदर। लहंग = लांघता है, गुजरता है, बहता है। दरीआ = (सर्व व्यापक प्रभू = रूप) नदी। गुसल = स्नान। करदन बूद = (करदनी बूद) करना चाहिए था। फकरु = फकीरी, बंदगी वाला जीवन। चसमे = ऐनकें। जह तहा = हर जगह।3।

अलाह = अल्लाह। पाकं पाक = पवित्र से भी पवित्र, सबसे पवित्र। सक = शक, भ्रम। करउ = मैं करूँ। दूसर = (उस जैसा कोई और) दूसरा। करम = बख्शश। करीम = बख्शिश करने वाला। उहु = वह प्रभू। सोइ = वह मनुष्य (जिस पर प्रभू बख्शिश करता है)।4।

अर्थ: हे भाई! (वाद-विवाद की खातिर) वेदों-कतेबों के हवाले दे-दे कर ज्यादा बातें करने से (मनुष्य के अपने) दिल का सहम दूर नहीं होता। (हे भाई!) अगर तुम अपने मन को पलक भर के लिए ही टिकाओ, तो तुम्हें सब में ही बसता ईश्वर दिखेगा (किसी के विरुद्ध तर्क करने की आवश्यक्ता नहीं पड़ेगी)।1।

हे भाई! (अपने ही) दिल को हर वक्त खोज, (बहस मुबाहसे की) घबराहट में ना भटक। ये जगत एक जादू सा है, एक तमाशे जैसा है, (इसमें से इस व्यर्थ के वाद-विवाद से) हाथ-पल्ले पड़ने वाली कोई चीज़ नहीं।1। रहाउ।

बेसमझ लोग ( दूसरे मतों की धर्म-पुस्तकों के बारे में ये) पढ़-पढ़ के (कि इनमें जो लिखा है) झूठ (है), खुश हो-हो के बहस करते हैं। (पर, वे ये नहीं जानते कि) सदा कायम रहने वाला ईश्वर ख़लकत में (भी) बसता है, (ना वह अलग सातवें आसमान पर बैठा है और) ना ही वह परमात्मा कृष्ण की मूर्ति है।2।

(सातवें आसमान में बैठा समझने की जगह, हे भाई!) वह प्रभू-रूप दरिया व अंतहकर्ण में लहरें मार रहा है, तूने उसमें स्नान करना था। सो, हमेशा उसकी बँदगी कर, (ये भक्ति की) ऐनक लगा (के देख), वह हर जगह मौजूद है।3।

ईश्वर सब से पवित्र (हस्ती) है (उससे पवित्र और कोई नहीं है), इस बात पर मैं तब ही शक करूँ, अगर उस ईश्वर जैसा दूसरा और कोई हो। हे कबीर! (इस भेद को) वह मनुष्य ही समझ सकता है जिसको वह समझने के काबिल बनाए। और, ये बख्शिश उस बख्शिश करने वाले के अपने हाथ में है।4।1।

नोट: इस शबद के दूसरे बँद के शब्द ‘बादु’ व ‘सिआम मूरति’ से ऐसा प्रतीत होता है कि कबीर जी किसी काजी और पण्डित की बहस को ना–पसंद करते हुए ये शबद उचार रहे हैं। बहसों में आम–तौर पर एक–दूसरे की धर्म–पुस्तकों पर कीचड़ उछालने के यत्न किए जाते हैं, दूसरे मत को झूठा साबित करने की कोशिश की जाती है। पर बहस करने वाले से कोई पूछे कि कभी इस में से दिल को भी कोई शांति हासिल हुई है? कोई कहता है कि रॅब सातवें स्थान पर है, कोई कहता है कृष्ण जी की मूर्ति ही परमात्मा है; पर ये भेद बँदगी करने वाले को समझ में आता है कि परमात्मा ख़लकत में बसता है, परमात्मा हर जगह मौजूद है।4।

शबद का भाव: दूसरे की धर्म-पुस्तकों पर कीचड़ उछाल के मन को शांति नहीं मिल सकती। अंदर बसते रॅब की बँदगी करो, सारी ख़लकत में दिख जाएगा।

नामदेव जी ॥ मै अंधुले की टेक तेरा नामु खुंदकारा ॥ मै गरीब मै मसकीन तेरा नामु है अधारा ॥१॥ रहाउ ॥ करीमां रहीमां अलाह तू गनीं ॥ हाजरा हजूरि दरि पेसि तूं मनीं ॥१॥ दरीआउ तू दिहंद तू बिसीआर तू धनी ॥ देहि लेहि एकु तूं दिगर को नही ॥२॥ तूं दानां तूं बीनां मै बीचारु किआ करी ॥ नामे चे सुआमी बखसंद तूं हरी ॥३॥१॥२॥ {पन्ना 727}

पद्अर्थ: टेक = ओट, सहारा। खुंदकारा = सहारा। खुंदकार = बादशाह, हे मेरे पातशाह! मसकीन = आजिज़। अधारा = आसरा।1। रहाउ।

करीमां = हे करीम! हे बख्शिश करने वाले! रहीमां = हे रहीम! ळे रहम करने वाले! गनीं = अमीर, भरा पूरा। हाजरा हजूरि = हर जगह मौजूद, प्रत्यक्ष, मौजूद। दरि = में। पेसि = सामने। दरि पेसि मनीं = मेरे सामने।1।

दिहंद = देने वाला, दाता। बिसीआर = बहुत। धनी = धनवाला। देहि = तू देता है। लेहि = तू लेता है। दिगर = कोई और, दूसरा।2।

दानां = जानने वाला। बीनां = देखने वाला। च = का। चे = के। ची = की। नामे चे = नामे के। नामे चे सुआमी = हे नामदेव के स्वामी!।4।

अर्थ: हे मेरे पातशाह! तेरा नाम मुझ अंधे की डंगोरी है, सहारा है; मैं कंगाल हूँ, मैं मसकीन हूँ, तेरा नाम (ही) मेरा आसरा है।1। रहाउ।

हे अल्लाह! हे करीम! हे रहीम! तू (ही) अमीर है, तू हर वक्त मेरे सामने है (फिर, मुझे किसी और की क्या मुथाजी?)।1।

तू (रहमत का) दरिया है, तू दाता है, तू बहुत ही धन वाला है; एक तू ही (जीवों को पदार्थ) देता है, और मोड़ लेता है, कोई और ऐसा नहीं (जो ये समर्था रखता हो)।2।

हे नामदेव के पति-परमेश्वर! हे हरी! तू सब बख्शिशें करने वाला है, तू (सबके दिल की) जानने वाला है और (सबके काम) देखने वाला है; हे हरी! मैं तेरे कौन-कौन से गुण बखान करूँ?।3।1।2।

नोट: अगर इस्लामी शब्द, अल्लाह, करीम, रहीम के प्रयोग से हम नामदेव जी को मुसलमान नहीं समझ सकते, तो कृष्ण और बीठुल आदि शब्दों के प्रयोग पर भी ये अंदाजा लगाना ग़लत है कि नामदेव जी बीठुल मूर्ति के पुजारी थे।

भाव: प्रभू का गुणानुवाद: तू ही मेरा सहारा है। सब का राज़क तू ही है।

हले यारां हले यारां खुसिखबरी ॥ बलि बलि जांउ हउ बलि बलि जांउ ॥ नीकी तेरी बिगारी आले तेरा नाउ ॥१॥ रहाउ ॥ कुजा आमद कुजा रफती कुजा मे रवी ॥ द्वारिका नगरी रासि बुगोई ॥१॥ खूबु तेरी पगरी मीठे तेरे बोल ॥ द्वारिका नगरी काहे के मगोल ॥२॥ चंदीं हजार आलम एकल खानां ॥ हम चिनी पातिसाह सांवले बरनां ॥३॥ असपति गजपति नरह नरिंद ॥ नामे के स्वामी मीर मुकंद ॥४॥२॥३॥ {पन्ना 727}

पद्अर्थ: हले यारां = हे मित्र! हे सज्जन! खुसि = खुशी देने वाली, ठंड डालने वाली। खबरी = तेरी ख़बर, तेरी सोय (जैसे; “सोइ सुणंदड़ी मेरा तनु मनु मउला”)। बलि बलि = सदके जाता हूँ। हउ = मैं। नीकी = सुंदर, अच्छी, प्यारी। बिगारी = वेगार, किसी और के लिए किया हुआ काम।

(नोट: दुनिया के सारे धंधे हम इस शरीर की खातिर और पुत्र-स्त्री आदि संबंधियों की खातिर करते हैं, पर समय आता है जब ना ये शरीर साथ निभाता है ना ही संबंधी। सो सारी उम्र वेगार ही करते रहते हैं)।

तेरी बिगारी = ये रोजी आदि कमाने का काम जिस में तूने हमें लगाया हुआ है। आले = आहला, ऊँचा, बड़ा, सब से प्यारा।1। रहाउ।

कुजा = (अज़) कुजा, कहाँ से? आमद = आमदी, तू आया। कुजा = कहाँ? रफती = तू गया था। मे रवी = तू जा रहा है।

कुजा...मे रवी = तू कहाँ से आया? तू कहाँ गया? तू कहाँ जा रहा है? (भाव, ना तू कहीं से आया, ना तू कहीं कभी गया, और ना ही तू कहीं जा रहा है; तू सदा अटल है)।

रासि = (संस्कृत: रास, a kind of dance practiced by ज्ञrishna and the cowherds but particularly the gopis or cowherdesses of Vrindavana, 2. Speech) रासें जहाँ कृष्ण जी नृत्य करते व गीत सुनाते थे।

(रासि मंडलु कीनो आखारा। सगलो साजि रखिओ पासारा।1।2।45। सूही महला ५)।

बुगोई = तू (ही) कहता है।1।

खूब = सुंदर। द्वारिका नगरी....मगोल = काहे के द्वारका नगरी, काहे के मगोल; किस लिए द्वारका नगरी में और किसलिए मुगल (-धर्म) के नगर में? ना तू सिर्फ द्वारका में है, और ना तू सिर्फ मुसलमानी धर्म केन्द्र मक्के में है।2।

चंदीं हजार = कई हजारों। आलम = दुनिया। ऐकल = अकेला। खानां = खान, मालिक। हम चिनी = इसी ही तरह का। हम = भी। चिनी = ऐसा। सांवले बरनां = साँवले रंग वाला, कृष्ण।3।

असपति = (अश्वपति = Lord of horses) सूर्य देवता। गजपति = इन्द्र देवता। नरह मरिंद = नरों का राजा, ब्रहमा। मुकंद = (संस्कृत: मुकुंद = मुकुं दाति इति) मुक्ति देने वाला, विष्णु और कृष्ण जी का नाम है।4।

नोट: अंक 4 का भाव है कि इस शबद के 4 बंद हैं। अंक 2 बताता है कि नामदेव जी का ये दूसरा शबद है। अंक 3 ये बताने के लिए है कि भगतों के सारे शबदों का जोड़ 3 है– 1 कबीर जी का और 2 नामदेव जी के।

अर्थ: हे सज्जन! हे प्यारे! तेरी खबर ठंडक देने वाली है (भाव, तेरी कथा-कहानियाँ सुन के मुझे सकून मिलता है); मैं सदा तुझसे सदके जाता हूँ, कुर्बान हूँ। (हे मित्र!) तेरा नाम (मुझे) सबसे ज्यादा प्यारा (लगता) है, (इस नाम की बरकति से ही, दुनिया की किरत वाली) तेरी दी हुई वेगार भी (मुझे) मीठी लगती है।1। रहाउ।

(हे सज्जन!) ना तू कहीं से आया, ना तू कभी कहीं गया और ना ही तू कहीं जा रहा है (भाव, तू सदा अटल है) द्वारिका नगरी में रास भी तू स्वयं ही डालता है (भाव, कृष्ण भी तू खुद ही है)।1।

हे यार! सुंदर सी तेरी पगड़ी है (भाव, तेरा स्वरूप सुंदर है) और प्यारे तेरे वचन हैं, ना तू सिर्फ द्वारिका में है और तू सिर्फ इस्लामी धर्म केन्द्र मक्के में है (बल्कि, तू हर जगह है)।2।

(सृष्टि के) कई हजार मण्डलों का तू इकलौता (खद ही) मालिक है। हे पातशाह! ऐसा ही साँवले रंग वाला कृष्ण है (भाव, कृष्ण भी तू स्वयं ही है)।3।

हे नामदेव के पति-प्रभू! तू स्वयं ही मीर है तू खुद ही कृष्ण है, तू स्वयं ही सूर्य देवता है, तू खुद ही इन्द्र है, और तू खुद ही ब्रहमा है।4।2।3।

नोट: श्री गुरू ग्रंथ साहिब में दर्ज हुई बाणी (चाहे वह सतिगुरू जी की अपनी उचारी हुई है और चाहे किसी भगत की) सिख में जीवन पैदा करने के लिए है, सिख के जीवन का स्तम्भ है। अगर वह मुगल की कहानी ठीक मान ली जाए, तो सिख इस वक्त इस शबद को अपने जीवन का आसरा कैसे बनाएं? हुकम है–“परथाइ साखी महापुरख बोलदै साझी सगल जहानै”। मुगलों के राज के वक्त नामदेव जी को किसी मुग़ल हाकम में रॅब दिखाई दे गया, तो क्या अंग्रेजी हकूमत के वक्त अगर कोई अंग्रेज़ किसी सिख पर वहिशियाना जुल्म करे तो सिख उस अंग्रेज में रॅब देखे? क्या ये शबद सिर्फ पिछली बीत चुकी कहानी से ही संबंध रखता था? क्या इसकी अब किसी सिख को अपने अमली जीवन में जरूरत नहीं दिखती?

अगर नामदेव जी किसी उच्च जाति के होते, धन–पदार्थ वाले भी होते और किसी अति नीच कंगाल आदमी को देख के वज़द में आते और उसे रॅब कहते, तब तो हमें गुरू नानक देव जी का ऊँचा निशाना इस तरह सामने दिखाई दे जाता;

“नीचा अंदरि नीच जाति नीची हू अति नीच॥
नानकु तिन कै संगि साथि वडिआ सिउ किआ रीस॥ ”

पर, कमजोर आदमी हमेश बलवान को ‘माई बाप’ कह दिया करता है। इस में कोई फख्र नहीं किया जा सकता। सो, मुग़ल और उसकी बछेरी वाली कहानी यहाँ बेमतलब और जल्दबाजी में जोड़ी गई है।

इस शबद में बरते हुए शब्द ‘पगरी’ और ‘मगोल’ से शायद ये कहानी चल पड़ी हो, क्योंकि शब्द ‘पगरी’ का प्रयोग करके तो किसी मनुष्य का ही जिक्र किया प्रतीत होता है। पर, ऐसे तो गुरू नानक देव जी परमात्मा की उस्तति करते–करते उसके नाक व सुंदर केसों का भी जिक्र करते हैं। क्या वहाँ भी किसी मनुष्य की कहानी जोड़नी पड़ेगी? देखें;

वडहंस महला १ छंत
तेरे बंके लोइण दंत रीसाला॥ सोहणे नक जिन लंमड़े वाला॥
कंचन काइआ सुइने की ढाला॥ .....॥7॥
तेरी चाल सुहाई मधुराड़ी बाणी॥ ....
बिनवंति नानकु दासु हरि का तेरी चाल सुहावी मधुराड़ी बाणी॥8॥2॥

नामदेव जी के इस शबद में किसी घोड़ी अथवा घोड़ी के बछड़े का तो कोई वर्णन नहीं, सिर्फ शब्द ‘बिगार’ ही मिलता है; पर ये शब्द सतिगुरू जी ने भी कई बार प्रयोग किया है; जैसे,

नित दिनसु राति लालचु करे, भरमै भरमाइआ॥
वेगारि फिरै वेगारीआ, सिरि भारु उठाइआ॥
जो गुर की जनु सेवा करे, सो घर कै कंमि हरि लाइआ॥1॥48॥
(गउड़ी बैरागणि महला ४, पन्ना 166)

क्यों ना इस शबद में भी ये शब्द उसी भाव में समझा जाए जिसमें सतिगुरू जी ने प्रयोग किया है? फिर, किसी घोड़ी के वर्णन को लाने की आवश्यक्ता ही नहीं रहेगी।

जिस तरीके से मुगल की घोड़ी का संबंध इस शबद के साथ जोड़ा जाता है, वह बड़ा अप्रासंगिक सा लगता है। कहते कि जब वृद्ध अवस्था में नामदेव जी कपड़ों की गठड़ी उठा के घाट तक पहुँचाने में मुश्किल महसूस करने लगे, तो उनके मन में विचार उठा कि अगर एक घोड़ी ले लें तो कपड़े उस पर लाद लिए जाया करें। पर नामदेव जी का ये ख्याल परमात्मा को अच्छा ना लगा, क्योंकि इस तरह नामदेव के माया में फसने का खतरा प्रतीत होता था।

कहानी बहुत ही कच्ची सी लगती है। कुदरत के नियम के मुताबिक ही मनुष्य पर वृद्ध अवस्था आती है। तब शारीरिक कमजोरी के कारण भगत नामदेव जी को अपने जीवन निर्वाह के लिए मजदूरी करने में घोड़ी की जरूरत हुई तो ये कोई पाप नहीं। खाली रह के, भक्ति के बदले लोगों पर अपनी रोटी का भार डालना तो प्रत्यक्ष तौर पर बुरा काम है। पर, भक्ति के साथ–साथ किरत–कार भी अपने हाथों से करनी, ये तो बल्कि धर्म का सही निशाना है।

पंडित तारा सिंह जी ने इस कहानी की जगह सिर्फ यही लिखा है कि द्वारका से चलने के समय नामदेव जी को थकावट से बचने के लिए घोड़ी की आवश्यक्ता महसूस हुई। शबद में चुँकि घोड़ी और बछेड़े का कोई जिक्र नहीं है, अब के विद्वानों ने ये लिखा है कि द्वारिका में नामदेव को किसी मुग़ल ने वेगारे पकड़ लिया, तो उस मुग़ल में भी रॅब देख के ये शबद उचारा।

एक ही शबद के बारे में अलग–अलग उथानकें बन जाएं तो ही शक पक्का होता जाता है कि शबद के अर्थ की मुश्किल ने मजबूर किया है कोई आसान हल तलाशने के लिए, वरना किसी घोड़ी अथवा वेगार वाली कोई घटना नहीं घटी। इस बात के बारे में विद्वान मानते हैं कि नामदेव जी की उस वक्त इतनी ऊँची आत्मिक अवस्था थी कि वे अकाल-पुरख को हर जगह प्रत्यक्ष देख रहे थे, उस मुग़ल में भी उन्होंने अपने परमात्मा को ही देखा;उस वक्त वे जगत के करतार के निर्गुण स्वरूप के अनिन्य भक्त थे। पर यहाँ एक भारी मुश्किल आ पड़ती है, वह ये कि भगत नामदेव जी तब द्वारिका क्या करने गए थे? कई कारण हो सकते हैं– सैर करने, किसी साक–संबंधी को मिलने, रोजी संबंधी किसी कार्य–व्यवहार के लिए, किसी वैद्य–हकीम से कोई दवा दारू लेने? जब हम ये देखते हैं कि नामदेव जी के नगर पंडरपुर से द्वारका की दूरी छे सौ मील के करीब है, तो उपरोक्त सारे अंदाजे बेअर्थ रह जाते हैं, क्योंकि उस जमाने में गाड़ियों आदि का कोई सिलसिला नहीं था। इतनी लंबी दूरी तक चल के जाने के लिए आखिर कोई खासी जरूरत ही पड़ी होगी। द्वारिका कृष्ण जी की नगरी है और कृष्ण जी के भक्त दूर–दूर से द्वारिका के दर्शनों को जाते हैं। गुरू अमरदास जी के समय की पण्डित माई दास की कथा भी बहुत प्रसिद्ध है। सो, क्या भगत नामदेव जी बाकी के कृष्ण भक्तों की ही तरह द्वारिका के दर्शनों को गए थे? ये नहीं हो सकता। नामदेव जी का ये शबद ही बताता है कि वे ‘चंदी हजार आलम’ के ‘एकल खानां’ के अनिन्य भक्त थे। मुग़ल की कहानी लिखने वाले भी ये मानते हैं कि उन्होंने मुग़ल में भी रॅब देखा। इसलिए सर्व–व्यापक परमात्मा के भक्त को विशेष तौर पर छे सौ मील रास्ता चल के मूर्ति के दर्शनों के लिए द्वारका जाने की जरूरत नहीं थी। ये कहानी इस शबद के शब्द “दुआरका, मगोल, पगरी, बिगारी” को जल्दबाजी में जोड़ के बनाई गई है। इस शबद में निरोल अकाल-पुरख की सिफत सालाह की गई है बस।

भाव: परमात्मा सदा अटल है, और हर जगह मौजूद है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh