श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 726 गुरमुखि सखी सहेलीआ से आपि हरि भाईआ ॥ हरि दरगह पैनाईआ हरि आपि गलि लाईआ ॥११॥ जो गुरमुखि नामु धिआइदे तिन दरसनु दीजै ॥ हम तिन के चरण पखालदे धूड़ि घोलि घोलि पीजै ॥१२॥ पान सुपारी खातीआ मुखि बीड़ीआ लाईआ ॥ हरि हरि कदे न चेतिओ जमि पकड़ि चलाईआ ॥१३॥ जिन हरि नामा हरि चेतिआ हिरदै उरि धारे ॥ तिन जमु नेड़ि न आवई गुरसिख गुर पिआरे ॥१४॥ हरि का नामु निधानु है कोई गुरमुखि जाणै ॥ नानक जिन सतिगुरु भेटिआ रंगि रलीआ माणै ॥१५॥ {पन्ना 726} पद्अर्थ: सखी = सखियां, सहेलियां। से = वह सखियां। भाईआ = भाई, अच्छी लगीं। पैनाईआ = आदर मिला, उन्हें सिरोपा मिला। गलि = गले से। लाईआ = लगाई।11। दीजै = कृपा करके दे। पखालदे = धोते हैं। घोलि = घोल के।12। खातीआ = खाती। मुखि = मुँह में। बीड़ीआ = बीड़ी, बीड़े, पानों के बीड़े। जमि = जम ने, मौत ने। पकड़ि = पकड़ के।13। हिरदै = हृदय में। उरि = हृदय में। धारे = धार के। जमु = मौत, मौत का डर। आवई = आता।14। निधानु = खजाना। कोई = कोई विरला। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने वाला मनुष्य। भेटिआ = मिल गया। रंगि = प्रेम रंग में। माणै = माणता है। नानक = हे नानक!।15। अर्थ: हे भाई! गुरू की शरण पड़ कर (परस्पर प्रेम से रहने वाली सत्संगी) सहेलियाँ (ऐसी हो जाती हैं कि) वह अपने आप प्रभू को प्यारी लगने लगती हैं। परमात्मा की हजूरी में उन्हें आदर मिलता है, परमात्मा ने उन्हें स्वयं अपने गले से (सदा के लिए) लगा लिया है।11। हे प्रभू! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर (तेरा) नाम सिमरते हैं, उनके दर्शन मुझे बख्श। मैं उनके चरण धोता रहूँ, और, उनके चरणों की धूल घोल-घोल के पीता रहूँ।12। हे भाई! जो जीव-सि्त्रयाँ पान-सुपारी आदि खाती रहती हैं, मुँह में पान चबाती रहती हैं (भाव, सदा पदार्थों के भोग में मस्त हैं), और जिन्होंने परमात्मा का नाम कभी नहीं सिमरा, उनको मौत (के चक्कर) ने पकड़ के (सदा के लिए) आगे लगा लिया (अर्थात, वे चौरासी के चक्करों में पड़ गई)।13। हे भाई! जिन्होंने अपने मन में हृदय में टिका के परमात्मा का नाम सिमरा, उन गुरू के प्यारे गुरसिखों के नजदीक मौत (का डर) नहीं आता।14। हे भाई! परमात्मा का नाम खजाना है, कोई विरला मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर (नाम से) सांझ डालता है। हे नानक! (कह–) जिन मनुष्यों को गुरू मिल जाता है, वह (हरेक मनुष्य) हरी-नाम के प्रेम में जुड़ के आत्मिक आनंद का सुख लेता है।15। सतिगुरु दाता आखीऐ तुसि करे पसाओ ॥ हउ गुर विटहु सद वारिआ जिनि दितड़ा नाओ ॥१६॥ सो धंनु गुरू साबासि है हरि देइ सनेहा ॥ हउ वेखि वेखि गुरू विगसिआ गुर सतिगुर देहा ॥१७॥ गुर रसना अम्रितु बोलदी हरि नामि सुहावी ॥ जिन सुणि सिखा गुरु मंनिआ तिना भुख सभ जावी ॥१८॥ हरि का मारगु आखीऐ कहु कितु बिधि जाईऐ ॥ हरि हरि तेरा नामु है हरि खरचु लै जाईऐ ॥१९॥ जिन गुरमुखि हरि आराधिआ से साह वड दाणे ॥ हउ सतिगुर कउ सद वारिआ गुर बचनि समाणे ॥२०॥ तू ठाकुरु तू साहिबो तूहै मेरा मीरा ॥ तुधु भावै तेरी बंदगी तू गुणी गहीरा ॥२१॥ आपे हरि इक रंगु है आपे बहु रंगी ॥ जो तिसु भावै नानका साई गल चंगी ॥२२॥२॥ {पन्ना 726} पद्अर्थ: दाता = (नाम की दाति) देने वाला। आखीअै = कहना चाहिए। तुसि = प्रसन्न हो के। पसाओ = प्रसादि, कृपा। हउ = मैं। विटहु = से। वारिआ = कुर्बान। जिनि = जिस (गुरू) ने। नाओ = नाम।16। धंनु = सराहनीय। देइ = देता है। सनेहा = उपदेश। वेखि = देख के। विगसिआ = खिल पड़ा हूँ। गुर देहा = गुरू की देह।17। रसना = जीभ। अंम्रितु = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला हरी नाम। नामि = नाम से। सुहावी = सुंदर। जिन = जिनका। सिखा = सिखों ने। जावी = दूर हो जाती है।18। (‘जिनि’ और ‘जिन’ में फर्क नोट करें) मारगु = रास्ता। कहु = कहो। कितु बिधि = किस तरीके से?।19। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। से = वह (बहुवचन)। साह = शाह। दाणे = सियाणे, दानशमंद। सद = सदा। गुर बचनि = गुरू के बचनों के द्वारा।20। साहिबो = साहिब, मालिक। मीरा = सरदार, पातशाह। तुधु = तुझे। गुणी = गुणों का मालिक। गहीरा = गहरे जिगरे वाला।21। आपे = आप ही। इक रंगु = एक स्वरूप वाला। बहु रंगी = अनेकों स्वरूपों वाला।22। अर्थ: हे भाई! गुरू को (ही नाम की दाति) देने वाला कहना चाहिए। गुरू प्रसन्न हो के (नाम देने की) कृपा करता है। मैं (तो) सदा गुरू से (ही) कुर्बान जाता हूँ, जिसने (मुझे) परमात्मा का नाम दिया है।16। हे भाई! वह गुरू सराहनीय है, उस गुरू की प्रशन्सा करनी चाहिए, जो परमात्मा का नाम जपने का उपदेश देता है। मैं (तो) गुरू को देख-देख के गुरू का (सुंदर) शरीर देख के खिल रहा हूँ।17। हे भाई! गुरू की जीभ आत्मिक जीवन देने वाली हरी-नाम उचारती है, हरी-नाम (उच्चारण के कारण) सुंदर लगती है। जिन सिखों ने (गुरू का उपदेश) सुन के गुरू पर यकीन किया है, उनकी (माया की) सारी भूख दूर हो गई है।18। हे भाई! (हरी-नाम सिमरन ही) परमात्मा (के मिलाप) का रास्ता कहा जाता है। हे भाई! बताओ, किस ढंग से (इस रास्ते पर) चला जा सकता है? हे प्रभू! तेरा नाम ही (रास्ते का) खर्च है, ये खर्च ही पल्ले बाँध के (इस रास्ते पर) चलना चाहिए।19। हे भाई! जिन मनुष्यों ने गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम जपा है वे बड़े समझदार शाह बन गए हैं। मैं सदा गुरू से कुर्बान जाता हूँ, गुरू के बचनों के द्वारा (परमात्मा के नाम में) लीन हुआ जा सकता है।20। हे प्रभू! तू मेरा मालिक है। तू मेरा साहिब है, तू ही मेरा पातशाह है। अगर तू पसंद आए, तो ही तेरी भक्ति की जा सकती है। तू गुणों का खजाना है, तू गहरे जिगरे वाला है।21। हे नानक! (कह– हे भाई!) परमात्मा आप ही (निर्गुण स्वरूप में) एक मात्र हस्ती है, और, आप ही (सर्गुण स्वरूप में) अनेकों रूपों वाला है। जो बात उसे अच्छी लगती है, वही बात जीवों के भले के लिए होती है।22।2। तिलंग महला ९ काफी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ चेतना है तउ चेत लै निसि दिनि मै प्रानी ॥ छिनु छिनु अउध बिहातु है फूटै घट जिउ पानी ॥१॥ रहाउ ॥ हरि गुन काहि न गावही मूरख अगिआना ॥ झूठै लालचि लागि कै नहि मरनु पछाना ॥१॥ अजहू कछु बिगरिओ नही जो प्रभ गुन गावै ॥ कहु नानक तिह भजन ते निरभै पदु पावै ॥२॥१॥ {पन्ना 726} नोट: काफी एक रागिनी का नाम है। इन शबदों को तिलंग और काफी दोनों मिश्रित रागों में गाना है। पद्अर्थ: तउ = तो। निसि = रात। दिनि मै = दिन में। निस दिन महि = रात दिन में, रात दिन एक करके। प्रानी = हे मनुष्य! अउधु = उम्र। बिहातु है = बीतती जा रही है। जिउ = जैसे। फूटै = टूटे हुए घड़े में से।1। काहि = क्यों? गावही = तू गाता है। मूरख = हे मूर्ख! अगिआना = हे ज्ञान हीन! ललचि = लालच में। लागि कै = फस के। मरनु = मौत।1। अजहू = अभी भी। जो = अगर। गावै = गाने शुरू कर दे। कहु = कह। नानक = हे नानक! तिह भजन ते = उस परमात्मा के भजन से। तिह = उस। ते = से। निरभै पदु = वह आत्मिक दर्जा जहाँ कोई डर छू नहीं सकता। पावै = प्राप्त कर लेता है।2। अर्थ: हे मनुष्य! अगर तूने परमात्मा का नाम सिमरना है, तो दिन-रात एक करके सिमरना शुरू कर दे, (क्योंकि) जैसे चटके हुए घड़े में से पानी (सहजे-सहजे निकलता रहता है, वैसे ही) एक-एक छिन करके उम्र बीतती जा रही है।1। रहाउ। हे मूर्ख! हे बेसमझ! तू परमात्मा की सिफत सालाह के गीत गाने आरम्भ कर दे (भले ही सिमरन के बग़ैर कितनी ही उम्र बीत चुकी हो) फिर भी कोई नुकसान नहीं होता, (क्योंकि) उस परमात्मा के भजन की बरकति से मनुष्य वह आत्मिक दर्जा प्राप्त कर लेता है, जहाँ कोई डर छू नहीं सकता।2।1। तिलंग महला ९ ॥ जाग लेहु रे मना जाग लेहु कहा गाफल सोइआ ॥ जो तनु उपजिआ संग ही सो भी संगि न होइआ ॥१॥ रहाउ ॥ मात पिता सुत बंध जन हितु जा सिउ कीना ॥ जीउ छूटिओ जब देह ते डारि अगनि मै दीना ॥१॥ जीवत लउ बिउहारु है जग कउ तुम जानउ ॥ नानक हरि गुन गाइ लै सभ सुफन समानउ ॥२॥२॥ {पन्ना 726} पद्अर्थ: जाग लेहु = होश कर, सचेत हो। कहा = क्यों? गाफल = बेफिक्र। संग ही = संगि ही, साथ ही (‘संगि’ की ‘गि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)। संगि = साथ। सुत = पुत्र। बंध जन = रिश्तेदार। हितु = प्यार। जा सिउ = जिन से। जीउ = जिंद। छूटिओ = निकल जाती है। देह ते = शरीर में से। ते = से। डारि दीना = डाल दिया, फेंक दिया। अगनि महि = आग में।1। जीवत लउ = जिंदगी तक। लउ = तक। बिउहारु = व्यवहार। जग कउ = जगत को। जानउ = समझो। समानउ = समान, जैसा।2। अर्थ: हे मन! होश कर, होश कर! तू क्यों (माया के मोह में) बेपरवाह हो के सो रहा है? (देख) जो (ये) शरीर (मनुष्य के साथ) ही पैदा होता है; ये भी (आखिर) साथ नहीं जाता।1। रहाउ। हे मन! (देख,) माता, पिता, पुत्र, रिश्तेदार- जिनसे मनुष्य (सारी उम्र) प्यार करता रहता है, जब जीवात्मा शरीर से अलग होती है, तब (वह सारे रिश्तेदार, उसके शरीर को) आग में डाल देते हैं।1। हे नानक! (कह– हे मन!) जगत को तू ऐसा ही समझ (कि यहाँ) जिंदगी तक ही बर्ताव-व्यवहार रहता है। वैसे भी, ये सारा सपने की तरह ही है। (इस वास्ते जब तक जीता है) परमात्मा के गुण गाता रह।2।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |