श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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कंतु लीआ सोहागणी मै ते वधवी एह ॥ से गुण मुझै न आवनी कै जी दोसु धरेह ॥४॥ जिनी सखी सहु राविआ तिन पूछउगी जाए ॥ पाइ लगउ बेनती करउ लेउगी पंथु बताए ॥५॥ हुकमु पछाणै नानका भउ चंदनु लावै ॥ गुण कामण कामणि करै तउ पिआरे कउ पावै ॥६॥ {पन्ना 725}

पद्अर्थ: कंतु = पति प्रभू। सोहागणी = सौभाग्यवती। मै ते = मेरे से। ते = से। वधवी = अच्छी। मुझै = मेरे अंदर, मुझे। आवनी = आते हैं, पैदा होते हैं। कै = किस पे? धरेह = धरूँ, रखूँ।4।

जिनी सखी = जिन सहेलियों ने। सहु = पति प्रभू। राविआ = सिमरा। जाऐ = जा के। पाइ = पैरों पर। लगउ = मैं लगूँगी। करउ = मैं करूँगी। पंथु = रास्ता। बताऐ लेउगी = पूछ लूँगी।5।

भउ = डर अदब। कामण = टूणे, जादू। कामणि = स्त्री। तउ = तब।6।

अर्थ: जिन अच्छे भाग्यों वाली (जीव-सि्त्रयों) ने प्रभू-पति का मिलाप हासिल कर लिया है, वह मुझसे अच्छी हैं, (जो गुण उनके अंदर हैं) वह गुण मेरे अंदर पैदा नहीं होते, (इस वास्ते) मैं किस को दोष दूँ (कि मुझे प्रभू-पति नहीं मिलता) ?

(अब) मैं उन सहेलियों को जा के पूछूंगी, जिन्होंने प्रभू-पति का मिलाप प्राप्त कर लिया है। मैं उनके चरणों में लगूँगी, मैं उनके आगे विनती करूँगी, (और उनसे प्रभू-पति के मिलाप का) रास्ता पूछ लूँगी।5।

हे नानक! जब (जीव-स्त्री प्रभू-पति की) रजा को समझ लेती है, जब उसके डर-अदब को (जिंद के लिए सुगंधि बनाती है, जैसे शरीर पर कोई स्त्री) चंदन लगाती है, जब स्त्री (पति को वश में करने के लिए आत्मिक) गुणों के टूणे बनाती है, तब वह प्रभू प्यारे का मिलाप हासिल कर लेती है।6।

जो दिलि मिलिआ सु मिलि रहिआ मिलिआ कहीऐ रे सोई ॥ जे बहुतेरा लोचीऐ बाती मेलु न होई ॥७॥ धातु मिलै फुनि धातु कउ लिव लिवै कउ धावै ॥ गुर परसादी जाणीऐ तउ अनभउ पावै ॥८॥ पाना वाड़ी होइ घरि खरु सार न जाणै ॥ रसीआ होवै मुसक का तब फूलु पछाणै ॥९॥ अपिउ पीवै जो नानका भ्रमु भ्रमि समावै ॥ सहजे सहजे मिलि रहै अमरा पदु पावै ॥१०॥१॥ {पन्ना 725}

पद्अर्थ: दिलि = दिल में। रे = हे भाई! सोई = वही मनुष्य। लोचीअै = तमन्ना करें। बाती = बातों से। मेलु = मिलाप।7।

धातु = (सोना आदि) धातु। फुनि = दोबारा (गल के)। कउ = को। लिव = लगन, प्यार। लिवै कउ = प्यार को ही। धावै = दौड़ता है। परसादी = कृपा से ही। जाणीअै = समझ आती है। तउ = तब। अनभउ = भय रहित प्रभू।8।

पना वाड़ी = पानों की क्यारी। घरि = घर में। खरु = गधा, मूर्ख मन। सार = कद्र। रसीआ = प्रेमी। मुसक = मुश्क, सुगंधि, कस्तूरी। पछाणै = सांझ डालता है।9।

अपिउ = अंमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। भ्रमु = भटकना। भ्रमि = भटकना में। सहजे = आत्मिक अडोलता में। अमर = मौत से रहित। अमरा पदु = वह दर्जा जहाँ आत्मिक मौत नहीं पहुँचती।10।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य अपने दिल के माध्यम से (परमात्मा के चरणों में) मिला है, वह सदा प्रभू से मिला रहता है, वही मनुष्य (प्रभू-चरणों में) मिला हुआ कहा जा सकता है। सिर्फ बातों से (प्रभू के साथ) मिलाप नहीं हो सकता, चाहे कितनी ही चाहत करते रहें।7।

हे भाई! (जैसे सोना आदि) धातु (कुठाली में गल के) फिर (और) (सोने-) धातु से मिल जाती है, (इसी तरह) प्यार प्यार की तरफ दौड़ता है (आकर्षित होता है)। जब गुरू की कृपा से ये सूझ पड़ती है, तब मनुष्य डर रहित प्रभू को मिल जाता है।8।

हे भाई! पानों की क्यारी (हृदय) घर में लगी हुई है, पर गधा (मूर्ख मन इसकी) कद्र नहीं जानता। जब मनुष्य सुगंधि का प्रेमी बन जाता है, तब फूलों से प्यार पाता है।9।

हे नानक! जो मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीता है, उस (के मन) की भटकना अंदर-अंदर से समाप्त हो जाती है। वह सदा आत्मिक अडोलता में टिका रहता है, वह मनुष्य वह आत्मिक दर्जा हासिल कर लेता है जहाँ आत्मिक मौत नजदीक नहीं फटकती।10।1।

नोट: इस बाणी के आरम्भ में कोई शीर्षक नहीं है, पर ये ‘अष्टपदी’ ही है। वैसे, साधारण नियम के अनुसार ‘अष्टपदीयां’ तब ही दर्ज होती हैं, जब महला ९ के शबद भी दर्ज हो चुकते हैं। इस राग में महला ९ के शबद अभी आगे आने हैं।

तिलंग महला ४ ॥ हरि कीआ कथा कहाणीआ गुरि मीति सुणाईआ ॥ बलिहारी गुर आपणे गुर कउ बलि जाईआ ॥१॥ आइ मिलु गुरसिख आइ मिलु तू मेरे गुरू के पिआरे ॥ रहाउ ॥ हरि के गुण हरि भावदे से गुरू ते पाए ॥ जिन गुर का भाणा मंनिआ तिन घुमि घुमि जाए ॥२॥ जिन सतिगुरु पिआरा देखिआ तिन कउ हउ वारी ॥ जिन गुर की कीती चाकरी तिन सद बलिहारी ॥३॥ हरि हरि तेरा नामु है दुख मेटणहारा ॥ गुर सेवा ते पाईऐ गुरमुखि निसतारा ॥४॥ जो हरि नामु धिआइदे ते जन परवाना ॥ तिन विटहु नानकु वारिआ सदा सदा कुरबाना ॥५॥ {पन्ना 725}

पद्अर्थ: कीआ = की। कथा कहाणीआ = सिफत सालाह की बातें। गुरि = गुरू ने। मीति = मित्र ने। कउ = को, से। बलि जाईआ = मैं सदके जाता हूँ।1।

आइ = आ के। गुरसिख = हे गुरू के सिख!। रहाउ।

भावदे = अच्छे लगते हैं। से = वह गुण (बहुवचन)। ते = से। भाणा = रजा। घुमि घुमि जाऐ = मैं बार बार सदके जाता हूँ।2।

हउ = मैं। वारी = कुर्बान। चाकरी = सेवा। सद = सदा।3।

हरि = हे हरी! ते = से। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने से। निसतारा = पार उतारा।4।

ते = वह (बहुवचन)। परवाना = कबूल, मंजूर। विटहु = से।5।

अर्थ: हे मेरे गुरू के प्यारे सिख! मुझे आ के मिल, मुझे आ के मिल। रहाउ।

हे गुरसिख! मित्र गुरू ने (मुझे) परमात्मा की सिफत सालाह की बातें सुनाई हैं। मैं अपने गुरू से बार-बार सदके कुर्बान जाता हूँ।1।

हे गुरसिख! परमात्मा के गुण (गाने) परमात्मा को पसंद आते हैं। मैंने वह गुण (गाने) गुरू से सीखे हैं। मैं उन (भाग्यशालियों से) बार-बार कुर्बान जाता हूँ, जिन्होंने गुरू के हुकम को (मीठा समझ के) माना है।2।

हे गुरसिख! मैं उनके सदके जाता हूँ, जिन प्यारों ने गुरू का दर्शन किया है, जिन्होंने गुरू की (बताई) सेवा की है।3।

हे हरी! तेरा नाम सारे दुख दूर करने के समर्थ है, (पर यह नाम) गुरू की शरण पड़ने से ही मिलता है। गुरू के सन्मुख रहने से ही (संसार-समुंद्र से) पार लांघा जा सकता है।4।

हे गुरसिख! जो मनुष्य परमात्मा का नाम सिमरते हैं, वे मनुष्य (परमात्मा की हजूरी में) कबूल हो जाते हैं। नानक उन मनुष्यों से कुर्बान जाता है, सदा सदके जाता है।5।

सा हरि तेरी उसतति है जो हरि प्रभ भावै ॥ जो गुरमुखि पिआरा सेवदे तिन हरि फलु पावै ॥६॥ जिना हरि सेती पिरहड़ी तिना जीअ प्रभ नाले ॥ ओइ जपि जपि पिआरा जीवदे हरि नामु समाले ॥७॥ जिन गुरमुखि पिआरा सेविआ तिन कउ घुमि जाइआ ॥ ओइ आपि छुटे परवार सिउ सभु जगतु छडाइआ ॥८॥ गुरि पिआरै हरि सेविआ गुरु धंनु गुरु धंनो ॥ गुरि हरि मारगु दसिआ गुर पुंनु वड पुंनो ॥९॥ जो गुरसिख गुरु सेवदे से पुंन पराणी ॥ जनु नानकु तिन कउ वारिआ सदा सदा कुरबाणी ॥१०॥ {पन्ना 725}

पद्अर्थ: सा = वह (स्त्री लिंग)। हरि प्रभ = हे हरी प्रभू! भावै = (तुझे) अच्छी लगती है। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। पावै = देता है।6।

सेती = से। पिरहड़ी = प्रेम। तिना जीअ = उनके दिल। जीअ = (‘जीउ’ का बहुवचन)। ओइ = (‘ओह’ का बहुवचन) वह लोग। जपि = जप के। जीवदे = आत्मिक जीवन हासिल करते हैं। समाले = हृदय में संभाल के।7।

कउ = को। घुमि जाइआ = मैं सदके जाता हूँ। सिउ = समेत। सभु = सारा।8।

गुरि पिआरै = प्यारे गुरू के द्वारा। धंनु = धन्य, सराहनीय। गुरि = गुरू ने। मारगु = रास्ता। गुर पुंनु = गुरू का उपकार।9।

गुरसिख = गुरू के सिख। पुंन = (विशेषण) पवित्र, भाग्यशाली। से पराणी = वह लोग।10।

अर्थ: हे हरी! हे प्रभू! वही सिफत सालाह तेरी सिफत सालाह कही जा सकती है जो तुझे पसंद आ जाती है। (हे भाई!) जो मनुष्य गुरू के सन्मुख हो के प्यारे प्रभू की सेवा-भक्ति करते हैं, उनको प्रभू (सुख-) फल देता है।6।

हे भाई! जिन लोगों का परमात्मा से प्यार पड़ जाता है, उनके दिल (सदा) प्रभू (के चरणों के) साथ ही (जुड़े रहते) हैं। वह मनुष्य प्यारे प्रभू को सिमर-सिमर के, प्रभू का नाम हृदय में संभाल के आत्मिक जीवन हासिल करते हैं।7।

हे भाई! मैं उन मनुष्यों से सदके जाता हूँ, जिन्होंने गुरू की शरण पड़ कर प्यारे प्रभू की सेवा भक्ति की है। वह मनुष्य स्वयं (अपने) परिवार समेत (संसार-समुंद्र के विकारों से) बच गए, उन्होंने सारा संसार भी बचा लिया है।8।

हे भाई! गुरू सराहनीय है, गुरू सराहना के योग्य है, प्यारे गुरू के द्वारा (ही) मैंने परमात्मा की सेवा-भक्ति आरम्भ की है। मुझे गुरू ने (ही) परमात्मा (के मिलाप) का रास्ता बताया है। गुरू का (मेरे पर ये) उपकार है, बड़ा उपकार है।9।

हे भाई! गुरू के जो सिख गुरू की (बताई) सेवा करते हैं, वे भाग्यशाली हो गए हैं। दास नानक उनसे सदके जाता है, सदा ही कुर्बान जाता है।10।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh