श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 724 तिलंग महला ५ घरु ३ ॥ मिहरवानु साहिबु मिहरवानु ॥ साहिबु मेरा मिहरवानु ॥ जीअ सगल कउ देइ दानु ॥ रहाउ ॥ तू काहे डोलहि प्राणीआ तुधु राखैगा सिरजणहारु ॥ जिनि पैदाइसि तू कीआ सोई देइ आधारु ॥१॥ जिनि उपाई मेदनी सोई करदा सार ॥ घटि घटि मालकु दिला का सचा परवदगारु ॥२॥ कुदरति कीम न जाणीऐ वडा वेपरवाहु ॥ करि बंदे तू बंदगी जिचरु घट महि साहु ॥३॥ तू समरथु अकथु अगोचरु जीउ पिंडु तेरी रासि ॥ रहम तेरी सुखु पाइआ सदा नानक की अरदासि ॥४॥३॥ {पन्ना 724} पद्अर्थ: मिहरवानु = दयालु। साहिबु = मालिक। जीअ = (‘जीव’ का बहुवचन)। देइ = देता है। रहाउ। डोलहि = तू घबराता है। प्राणीआ = हे प्राणी! तुधु = तुझे। सिरजणहारु = पैदा करने वाला प्रभू। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। तू = तुझे। आधारु = आसरा।1। मेदनी = धरती। सार = संभाल। घटि घटि = हरेक शरीर में। परवदगारु = पालने वाला।2। कीम = कीमति, मूल्य। वेपरवाहु = बेमुथाज। घट महि = शरीर में। साहु = सांस।3। समरथु = सब ताकतों का मालिक। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञानेन्द्रियां) जिस तक ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। रासि = पूँजी, सरमाया। रहम = रहिमत, कृपा।4। अर्थ: हे भाई! मेरा मालिक प्रभू सदा दया करने वाला है, सदा दयालु है, सदा दयालु है। वह सारे जीवों को (सब पदार्थों का) दान देता है। रहाउ। हे भाई! तू क्यों घबराता है? पैदा करने वाला प्रभू तेरी (जरूर) रक्षा करेगा। जिस (प्रभू) ने तुझे पैदा किया है, वही (सारी सृष्टि को) आसरा (भी) देता है।1। हे भाई! जिस परमात्मा ने सृष्टि पैदा की है, वही (इसकी) संभाल करता है। हरेक शरीर में बसने वाला प्रभू (सारे जीवों के) दिलों का मालिक है, वह सदा कायम रहने वाला है, और, सब की पालना करने वाला है।2। हे भाई! उस मालिक की कुदरत का मूल्य नहीं समझा जा सकता, वह सबसे बड़ा है उसे किसी की मुथाजी नहीं। हे बँदे! जब तक तेरे शरीर में सांस चलती है तब तक उस मालिक की बँदगी करता रह।3। हे प्रभू! तू सब ताकतों का मालिक है, तेरा स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता, ज्ञानेन्दिंयों के द्वारा तुझ तक पहुँच नहीं की जा सकती। (हम जीवों का ये) शरीर और जिंद तेरी ही दी हुई पूँजी है। जिस मनुष्य पर तेरी मेहर हो उस को (तेरे दर से बँदगी का) सुख मिलता है। नानक की भी सदा तेरे दर पे यही अरदास है (कि तेरी बँदगी का सुख मिले)।4।3। तिलंग महला ५ घरु ३ ॥ करते कुदरती मुसताकु ॥ दीन दुनीआ एक तूही सभ खलक ही ते पाकु ॥ रहाउ ॥ खिन माहि थापि उथापदा आचरज तेरे रूप ॥ कउणु जाणै चलत तेरे अंधिआरे महि दीप ॥१॥ खुदि खसम खलक जहान अलह मिहरवान खुदाइ ॥ दिनसु रैणि जि तुधु अराधे सो किउ दोजकि जाइ ॥२॥ अजराईलु यारु बंदे जिसु तेरा आधारु ॥ गुनह उस के सगल आफू तेरे जन देखहि दीदारु ॥३॥ दुनीआ चीज फिलहाल सगले सचु सुखु तेरा नाउ ॥ गुर मिलि नानक बूझिआ सदा एकसु गाउ ॥४॥४॥ {पन्ना 724} पद्अर्थ: करते = हे करतार! कुदरती = कुदरत से, तेरी कुदरत देख के। मुसताकु = मुश्ताक, (तेरे दर्शनों का) चाहवान। ते = से। पाकु = निर्लिप। रहाउ। माहि = में। थापि = बना के, पैदा करके। उथापदा = नाश कर देता है। आचरज = हैरान कर देने वाला। चलत = करिश्मे। दीप = दीया, प्रकाश।1। खुदि = खुद। अलह = हे अल्लाह! हे परमात्मा! जहान = दुनिया। खुदाइ = ख़ुदाय, परमात्मा। रैणि = रात। जि = जो। तुधु = तुझे। दोजकि = नर्क में।2। अजराईलु = मौत का फरिश्ता। आधारु = आसरा। गुनह = गुनाह, पाप। सगल = सारे। आफू = अफ़व, बख्शे जाते हैं। तेरे जन = तेरे दास। देखहि = देखते हें।3। दुनीआ चीज = दुनिया के सारे पदार्थ। फिलहाल = फिल हाल, अभी अभी के लिए, छण भंगुर, जल्दी नाश हो जाने वाले। सचु = सदा कायम रहने वाला। गुर मिलि = गुरू को मिल के। ऐकसु = एक को ही। गाउ = गाऊँ।4। अर्थ: हे करतार! तेरी कुदरत को देख के मैं दशनों का चाहवान हो गया हूँ। मेरे दीन और दुनिया की दौलत एक तू ही है। तू सारी ख़लकत से निर्लिप रहता है। रहाउ। हे करतार! तू एक-छिन में (जीवों को) बना के नाश भी कर देता है तेरे स्वरूप हैरान कर देने वाले हैं। कोई जीव तेरे करिश्मों को समझ नहीं सकता। (अज्ञानता के) अंधेरे में (तू खुद ही जीवों के वास्ते) रौशनी है।1। हे अल्लाह! हे मेहरवान ख़ुदा! सारी ख़लकत का सारे जहान का तू खुद ही मालिक है। जो मनुष्य दिन-रात तुझे आराधता है, वे दोज़क कैसे जा सकता है?।2। हे प्रभू! जिस मनुष्य को तेरा आसरा मिल जाता है, मौत का फरिश्ता उस मनुष्य का मित्र बन जाता है (उसे मौत का डर नहीं रहता) (क्योंकि) उस मनुष्य के सारे पाप बख्शे जाते हैं।3। हे प्रभू! दुनिया के (और) सारे पदार्थ जल्दी ही नाश हो जाने वाले हैं। सदा कायम रहने वाला सुख तेरा नाम (ही बख्शता) है। हे नानक! कह– ये बात (मैंनें गुरू को मिल के समझी है, इस वास्ते) मैं सदा एक परमात्मा का ही यश गाता रहता हूँ।4।4। तिलंग महला ५ ॥ मीरां दानां दिल सोच ॥ मुहबते मनि तनि बसै सचु साह बंदी मोच ॥१॥ रहाउ ॥ दीदने दीदार साहिब कछु नही इस का मोलु ॥ पाक परवदगार तू खुदि खसमु वडा अतोलु ॥१॥ दस्तगीरी देहि दिलावर तूही तूही एक ॥ करतार कुदरति करण खालक नानक तेरी टेक ॥२॥५॥ {पन्ना 724} पद्अर्थ: मीरां = हे सरदार! दानां = हे समझदार! दिल सोच = हे (जीवों के) दिलों को पवित्र करने वाले! सोच = पवित्रता। मुहबते = तेरी मुहब्बत। मनि = मन में। तनि = तन में। सचु साह = हे सदा कायम रहने वाले शाह! बंदी मोच = हे बँधनों से छुड़ाने वाले! बँदी = कैद।1। रहाउ। दीदन = देखना। साहिब = हे मालिक! पाक = हे पवित्र! परवदगार = हे पालनहार! खुदि = खुद, आप।1। इस का: ‘इसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है। दस्त = हाथ। दस्तगीरी = हाथ पकड़ने की क्रिया, सहायता। दस्तगीरी देहि = (मेरा) हाथ पकड़, मेरी सहायता कर। दिलावर = हे दिलावर! हे सूरमे प्रभू! करतार = हे करतार! कुदरति करण = हे कुदरति के रचनहार! खालक = हे ख़लकत के मालिक! टेक = आसरा।2। अर्थ: हे सरदार! हे समझदार! हे (जीवों के) दिल को पवित्र करने वाले! हे सदा स्थिर शाह! हे बँधनों से छुड़ाने वाले! तेरी मुहब्बत मेरे मन में मेरे दिल में बस रही है।1। रहाउ। हे मालिक! तेरे दर्शन करना (एक अमोलक दाति है), तेरे इस (दर्शन) का कोई मुल्य नहीं आँका जा सकता। हे पवित्र! हे पालणहार! तू खुद (हमारा) पति है तू सबसे बड़ा है, तेरी बड़ी हस्ती को तोला नहीं जा सकता।1। हे सूरमे प्रभू! मेरी सहायता कर, एक तू ही (मेरा आसरा) है। हे नानक! (कह–) हे करतार! हे कुदरति के रचनहार! हे ख़लकत के मालिक! मुझे तेरा सहारा है।2।5। तिलंग महला १ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जिनि कीआ तिनि देखिआ किआ कहीऐ रे भाई ॥ आपे जाणै करे आपि जिनि वाड़ी है लाई ॥१॥ राइसा पिआरे का राइसा जितु सदा सुखु होई ॥ रहाउ ॥ जिनि रंगि कंतु न राविआ सा पछो रे ताणी ॥ हाथ पछोड़ै सिरु धुणै जब रैणि विहाणी ॥२॥ पछोतावा ना मिलै जब चूकैगी सारी ॥ ता फिरि पिआरा रावीऐ जब आवैगी वारी ॥३॥ {पन्ना 724-725} पद्अर्थ: जिनि = जिस (परमात्मा) ने। कीआ = बनाया है। तिनि = उस (परमात्मा) ने। देखिआ = संभाल की है। रे भाई = हे भाई! किआ कहीअै = (उसकी जगत संभाल के बाबत) कुछ नहीं कहा जा सकता। आपे = आप ही। वाड़ी = जगत-बगीची।1। राइसा = (राइसो) जीवन कथा, प्रसंग, सिफत सालाह की बातें। जितु = जिस (राइसो) के द्वारा। रहाउ। जिनि = जिस (जीव स्त्री) ने। रंगि = प्रेम में। राविआ = माणा, सिमरा। सा = वह जीव स्त्री। रे = हे भाई! पछोताणी = पछताती है। हाथ पछोड़ै = हाथ मलती है। सिरु धुणै = सिर मारती है। रैणि = रात। विहाणी = बीत जाती है।2। चुकैगी = बीत जाएगी, खत्म हो जाएगी। सारी = सारी उम्र रात। रावीअै = सिमरा जा सकता है। जब = जब। वारी = मनुष्य जन्म की बारी।3। अर्थ: हे प्यारे (भाई!) परमात्मा की सिफत सालाह करनी चाहिए, क्योंकि इसके द्वारा ही सदा आत्मिक आनंद मिलता है। रहाउ। हे भाई! जिस परमात्मा ने (ये जगत) बनाया है, उसने ही (सदा) इसकी संभाल की है। ये कहा नहीं जा सकता (कि वह कैसे संभाल करता है)। जिसने ये जगत-वाड़ी लगाई है वह खुद ही (इसकी जरूरतें) जानता है, और खुद (वह जरूरतें पूरी) करता है। हे भाई! जिस जीव-स्त्री ने प्रेम से पति-प्रभू का सिमरन नहीं किया, वह आखिर को पछताती है। जब उसकी जिंदगी की रात बीत जाती है तब वह अपने हाथ मलती है, सिर मारती है।2। (पर) जब जिंदगी की सारी रात समाप्त हो जाएगी, तब पछतावा करने से कुछ हासिल नहीं होता। उस प्यारे प्रभू को फिर तभी सिमरा जा सकता है, जब (फिर कभी) मानस जीवन की बारी मिलेगी।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |