श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 723 तिलंग महला ४ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सभि आए हुकमि खसमाहु हुकमि सभ वरतनी ॥ सचु साहिबु साचा खेलु सभु हरि धनी ॥१॥ सालाहिहु सचु सभ ऊपरि हरि धनी ॥ जिसु नाही कोइ सरीकु किसु लेखै हउ गनी ॥ रहाउ ॥ पउण पाणी धरती आकासु घर मंदर हरि बनी ॥ विचि वरतै नानक आपि झूठु कहु किआ गनी ॥२॥१॥ पद्अर्थ: सभि = सारे जीव। हुकमि = हुकम अनुसार। खसमाहु = पति से। हुकमि = हुकम में। सभ = सारी सृष्टि। वरतनी = काम कर रही है। सचु = सदा कायम रहने वाला। साचा = अटल (नियमों वाला)। खेलु = जगत तमाशा। सभ = हर जगह। धनी = मालिक।1। जिसु सरीकु = जिसके बराबर का। लेखै = लेखे में। हउ = मैं। गनी = मैं (गुण) बयान करूँ। रहाउ। वरतै = मौजूद है। कहु = बताओ। किआ = किस को?।2। अर्थ: हे भाई! सदा-स्थिर हरी की सिफत-सालाह किया करो। वह हरी सब के ऊपर है और मालिक है। जिस हरी के बराबर का और कोई नहीं है, मैं (तो) किस गिनती में हूँ कि उसके गुण बयान कर सकूँ? । रहाउ। हे भाई! सारे जीव हुकम अनुसार पति-प्रभू से ही जगत में आए हैं, सारी दुनिया उसके हुकम में (ही) काम कर रही है। वह मालिक सदा कायम रहने वाला है, उसका (रचा हुआ जगत-) तमाशा अॅटल (नियमों वाला है)। हर जगह वह मालिक खुद मौजूद है।1। हे भाई! हवा, पानी, धरती, आकाश- ये सारे परमात्मा के (रहने के वास्ते) घर-मंदिर बने हुए हैं। हे नानक! इन सभी में परमात्मा खुद बस रहा है। बताओ, इनमें से किसको मैं असत्य कहूँ?।2।1। तिलंग महला ४ ॥ नित निहफल करम कमाइ बफावै दुरमतीआ ॥ जब आणै वलवंच करि झूठु तब जाणै जगु जितीआ ॥१॥ ऐसा बाजी सैसारु न चेतै हरि नामा ॥ खिन महि बिनसै सभु झूठु मेरे मन धिआइ रामा ॥ रहाउ ॥ सा वेला चिति न आवै जितु आइ कंटकु कालु ग्रसै ॥ तिसु नानक लए छडाइ जिसु किरपा करि हिरदै वसै ॥२॥२॥ {पन्ना 723} पद्अर्थ: निहफल = वे काम जिनसे कोई लाभ नहीं होता। बफावै = फुकरी मारता है, गुमान करता है। दुरमतीआ = खोटी बुद्धि वाला मनुष्य। आवै = लाता है। वलवंच = छल। करि = कर के। जाणै = समझता है।1। बाजी = खेल, तमाशा। बिनसै = नाश हो जाता है। झूठु = नाशवंत। मन = हे मन! । रहाउ। चिति = चिक्त में। जितु = जिस (समय) में। आइ = आ के। कंटकु = काँटा, काँटे जैसा दुखदाई। ग्रसै = पकड़ लेता है। जिसु हिरदै = जिसके हृदय में।2। अर्थ: हे मेरे मन! जगत ऐसा है जैसे एक खेल, ये सारा नाशवंत है, एक छिन में नाश हो जाता है (पर खोटी बुद्धि वाला मनुष्य फिर भी) परमात्मा का नाम नहीं सिमरता। हे मेरे मन! तू तो परमात्मा का ध्यान धरता रह। रहाउ। हे मेरे मन! दुर्मति वाला मनुष्य सदा वह काम करता रहता है जिनका कोई लाभ नहीं होता, (फिर भी ऐसे व्यर्थ कर्म करके) फुकरियाँ मारता रहता है (बड़े-बड़े बोल बोलता फिरता है)। जब कोई ठॅगी करके, कोई झूठ बोल के (कुछ धन-माल) ले आता है, तब समझता है कि मैंने दुनिया को जीत लिया है।1। हे मेरे मन! खोटी मति वाले मनुष्य को वह वक्त (कभी) याद नहीं आता, जब दुखदाई काल आ के पकड़ लेता है। हे नानक! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा मेहर करके आ बसता है, उस को (मौत के डर से) छुड़ा लेता है।2।2।7। तिलंग महला ५ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ खाक नूर करदं आलम दुनीआइ ॥ असमान जिमी दरखत आब पैदाइसि खुदाइ ॥१॥ बंदे चसम दीदं फनाइ ॥ दुनींआ मुरदार खुरदनी गाफल हवाइ ॥ रहाउ ॥ गैबान हैवान हराम कुसतनी मुरदार बखोराइ ॥ दिल कबज कबजा कादरो दोजक सजाइ ॥२॥ वली निआमति बिरादरा दरबार मिलक खानाइ ॥ जब अजराईलु बसतनी तब चि कारे बिदाइ ॥३॥ हवाल मालूमु करदं पाक अलाह ॥ बुगो नानक अरदासि पेसि दरवेस बंदाह ॥४॥१॥ {पन्ना 723} पद्अर्थ: खाक = ख़ाक, मिट्टी, अचेतन। नूर = ज्योति, आत्मा। करदं = बना दिया। आलम = जहान। जिमी = धरती। दरखत = वृक्ष। आब = पानी। पैदाइसि खुदाइ = परमात्मा की रचना। खुदाइ = परमात्मा।1। बंदे = हे मनुष्य! चसम = आँखें। दीदं = दिखता। फनाइ = नाशवंत। मुरदार = हराम। खुरदनी = खाने वाली। गाफल = भूला हुआ। हवाइ = हिरस, लालच। रहाउ। गैबान = ना दिखने वाले, भूत प्रेत। हैवान = पशू। कुसतनी = कुश्तनी, मारने वाली। बखोराइ = बख़ोराय, खाती है। कबज कबजा = कबज़ कबज़ा, मुकम्मल कबज़ा। कादरो = पैदा करने वाला प्रभू! दोजक सजाइ = दोज़क सजाय, दोज़क की सज़ा देता है।2। वली निआमति = नियामतें देने वाला पिता। बिरादरा = भाई। मिलक = जाइदाद। खानाइ = ख़ानाय, घर। बसतनी = बाँध लेगा। चि कारे = किस काम के? चि = किस? बिदाइ = विदा होते समय, विदाई के वक्त। अजराईलु = मौत का फरिश्ता।3। पाक अलाह = पवित्र परमात्मा। अलाह = अल्लाह। हवाल मालूम करदं = (तेरे दिल का) हाल जानता है। बुगो = कह। पेसि = सामने, पेश। पेसि दरवेस बंदाह = दरवेश बँदों के सामने।4। अर्थ: हे मनुष्य! जो कुछ आँखों से देखता है नाशवंत है। पर दुनिया (माया के) लालच में (परमात्मा को) भूली हुई है, हराम खाती रहती है (पराया हक खोती रहती है)। रहाउ। हे भाई! चेतन ज्योति और अचेतन मिट्टी मिला के परमात्मा ने ये जगत ये जहान बना दिया है। आसमान, धरती, वृक्ष, पानी (आदि ये सब कुछ) परमात्मा की ही रचना है।1। हे भाई! ग़ाफ़ल मनुष्य भूतों, प्रेतों, पशुओं की तरह हराम मार के हराम खाता है। इसके दिल पर (माया का) पूरी तरह से कब्ज़ा हुआ रहता है, परमात्मा इसको दोजक की सजा देता है।2। हे भाई! जब मौत का फरिश्ता (आ के) बाँध लेता है, तब पालने वाला पिता, भाई, दरबार, जायदाद, घर- ये सारे (जगत से) विदा होने के वक्त किस काम आएंगे?।3। हे भाई! पवित्र परमात्मा (तेरे दिल का) सारा हाल जानता है। हे नानक! संत जनों की संगति में रह के (परमात्मा के दर पे) अरदास किया कर (कि तुझे माया की हवस में ना फसने दे)।4।1। तिलंग घरु २ महला ५ ॥ तुधु बिनु दूजा नाही कोइ ॥ तू करतारु करहि सो होइ ॥ तेरा जोरु तेरी मनि टेक ॥ सदा सदा जपि नानक एक ॥१॥ सभ ऊपरि पारब्रहमु दातारु ॥ तेरी टेक तेरा आधारु ॥ रहाउ ॥ है तूहै तू होवनहार ॥ अगम अगाधि ऊच आपार ॥ जो तुधु सेवहि तिन भउ दुखु नाहि ॥ गुर परसादि नानक गुण गाहि ॥२॥ जो दीसै सो तेरा रूपु ॥ गुण निधान गोविंद अनूप ॥ सिमरि सिमरि सिमरि जन सोइ ॥ नानक करमि परापति होइ ॥३॥ जिनि जपिआ तिस कउ बलिहार ॥ तिस कै संगि तरै संसार ॥ कहु नानक प्रभ लोचा पूरि ॥ संत जना की बाछउ धूरि ॥४॥२॥ {पन्ना 723-724} पद्अर्थ: करहि = तू करता है। जोरु = बल। मनि = मन में। टेक = आसरा। नानक = हे नानक!।1। आधारु = आसरा। रहाउ। तू है = तू ही। होवनहार = सदा कायम रहने वाला। अगम = अपहुँच। अगाधि = अथाह। आपार = बेअंत। तुधु = तुझे। सेवहि = सिमरते हैं। प्रसादि = कृपा से। गाहि = गाते हैं।2। दीसै = दिखता है। गुण निधान = हे गुणों के खजाने! अनूप = हे सुंदर! जन = हे जन! सेइ = उस परमात्मा को ही। करमि = मेहर से।3। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। कै संगि = के साथ। लोचा = तांघ। पूरि = पूरी कर। बाछउ = मैं चाहता हूँ। धूरि = चरन धूल।4। तिस कउ: ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कउ’ के कारण हटा दी गई है। तिस कै: ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कै’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! सब जीवों को दातें देने वाला परमात्मा सब जीवों के सर पर रखवाला है। हे प्रभू! (हम जीवों को) तेरा ही आसरा है, तेरा ही सहारा है। रहाउ। हे प्रभू! तू सारे जगत को पैदा करने वाला है, जो कुछ तू करता है, वही होता है, तेरे बिना और कोई दूसरा कुछ करने के काबिल नहीं है। (हम जीवों को) तेरा ही ताण है, (हमारे) मन में तेरा ही सहारा है। हे नानक! सदा उस एक परमात्मा का नाम जपता रह।1। हे अपहुँच प्रभू! हे अथाह प्रभू! हे सबसे ऊँचे और बेअंत प्रभू! हर जगह हर वक्त तू ही तू है, तू ही सदा कायम रहने वाला है। हे प्रभू! जो मनुष्य तुझे सिमरते हैं, उनको कोई डर, कोई दुख छू नहीं सकता। हे नानक! गुरू की कृपा से ही (मनुष्य परमात्मा के) गुण गा सकते हैं।2। हे गुणों के खजाने! हे सुंदर गोबिंद! (जगत में) जो कुछ दिखता है तेरा ही स्वरूप है। हे मनुष्य! सदा उस परमात्मा का सिमरन करता रह। हे नानक! (परमात्मा का सिमरन) परमात्मा की कृपा से ही मिलता है।3। हे भाई! जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम जपा है, उससे कुर्बान होना चाहिए। उस मनुष्य की संगति में (रह के) सारा जगत संसार समुंद्र से पार लांघ जाता है। हे नानक! कह– हे प्रभू! मेरी तमन्ना पूरी कर, मैं (तेरे दर से) तेरे संत जनों के चरणों की धूल माँगता हूँ।4।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |