श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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हरि धनु रतनु जवेहरु माणकु हरि धनै नालि अम्रित वेलै वतै हरि भगती हरि लिव लाई ॥ हरि धनु अम्रित वेलै वतै का बीजिआ भगत खाइ खरचि रहे निखुटै नाही ॥ हलति पलति हरि धनै की भगता कउ मिली वडिआई ॥३॥ हरि धनु निरभउ सदा सदा असथिरु है साचा इहु हरि धनु अगनी तसकरै पाणीऐ जमदूतै किसै का गवाइआ न जाई ॥ हरि धन कउ उचका नेड़ि न आवई जमु जागाती डंडु न लगाई ॥४॥ {पन्ना 734}

पद्अर्थ: जवेहरु = जवाहर। माणकु = मोती। अंम्रित वेलै = आत्मिक जीवन देने वाले समय में। वतै = वतर के समय। हरि भगती = हरी के भक्तों ने। लिव = लगन। लिव लाई = सुरति जोड़ी। निखुटै = खत्म होता। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। कउ = को।3।

असथिरु = सदा कायम रहने वाला। साचा = सदा टिके रहने वाला। तसकर = चोर। उचका = उठा के ले जाने वाला, लुटेरा। जागाती = मसूलिया। डंडु = दण्ड।4।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम (भी) धन (है, ये धन) रत्न-जवाहर-मोती (जैसा कीमती) है। प्रभू के भक्तों ने वत्र के वक्त उठ के अमृत बेला में उठ के (उस वक्त उठ के जब आत्मिक जीवन अंकुरित होता है) इस हरी-नाम-धन से सुरति जोड़ी होती है। अमृत बेला में (उठ के) बीजा हुआ ये हरी-नाम-धन भक्त जन खुद इस्तेमाल करते रहते हैं, औरों कोबाँटते रहते हैं, पर ये खत्म नहीं होता। भक्त जनों को इस लोक में परलोक में इस हरी-नाम-धन के कारण इज्जत मिलती है।3।

हे भाई! जिस हरी-नाम-धन को किसी किस्म का कोई खतरा नहीं, ये सदा ही कायम रहने वाला है, सदा ही टिका रहता है। आग-चोर-पानी-मौत, किसी के द्वारा भी इस धन का नुकसान नहीं किया जा सकता। कोई लुटेरा इस हरी-नाम-धन के नजदीक नहीं फटक सकता। जम मसूलिया इस धन को महसूल नहीं लगा सकता।4।

साकती पाप करि कै बिखिआ धनु संचिआ तिना इक विख नालि न जाई ॥ हलतै विचि साकत दुहेले भए हथहु छुड़कि गइआ अगै पलति साकतु हरि दरगह ढोई न पाई ॥५॥ इसु हरि धन का साहु हरि आपि है संतहु जिस नो देइ सु हरि धनु लदि चलाई ॥ इसु हरि धनै का तोटा कदे न आवई जन नानक कउ गुरि सोझी पाई ॥६॥३॥१०॥ {पन्ना 734}

पद्अर्थ: साकती = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्यों ने। बिखिआ = माया। संचिआ = इकट्ठा किया, जोड़ा। विख = कदम। दुहेले = दुखी। साकत = माया ग्रसित मनुष्य। हथहु = हाथ में से। छुड़कि = छूट गया। अगै पलति = आगे परलोक में। साकतु = माया ग्रसित मनुष्य (एक वचन)। ढोई = आसरा।5।

साहु = शाहू, सरामाए का मालिक। संतहु = हे संत जनो! देइ = देता है। लदि = लाद के। तोटा = कमी। आवई = आए। गुरि = गुरू ने। जन कउ = अपने दास को। नानक = हे नानक!।6।

जिस नो: ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! माया-ग्रसित मनुष्यों ने (सदा) पाप कर-करके माया-धन ही जोड़ा, (पर) उनके साथ (जगत से चलने के वक्त) ये धन एक कदम भी साथ नहीं निभा सका। (इस माया धन के कारण) माया-ग्रसित लोग इस लोक में दुखी ही रहे (मरने के वक्त ये धन) हाथों से छिन गया, आगे परलोक में जा के माया-ग्रसित मनुष्य को परमात्मा की हजूरी में कोई जगह नहीं मिलती।5।

हे संत जनो! इस हरी-नाम-धन का मालिक परमात्मा स्वयं ही है। जिस मनुष्य को शाहूकार-प्रभू ये धन देता है, वह मनुष्य (इस जगत में) ये हरी-नाम-सौदा कमा के यहाँ से चलता है। हे नानक! (कह–हे भाई!) इस हरी-नाम-धन के व्यापार में कभी घाटा नहीं पड़ता। गुरू ने अपने सेवक को ये बात अच्छी तरह समझा दी है।6।3।10।

सूही महला ४ ॥ जिस नो हरि सुप्रसंनु होइ सो हरि गुणा रवै सो भगतु सो परवानु ॥ तिस की महिमा किआ वरनीऐ जिस कै हिरदै वसिआ हरि पुरखु भगवानु ॥१॥ गोविंद गुण गाईऐ जीउ लाइ सतिगुरू नालि धिआनु ॥१॥ रहाउ ॥ सो सतिगुरू सा सेवा सतिगुर की सफल है जिस ते पाईऐ परम निधानु ॥ जो दूजै भाइ साकत कामना अरथि दुरगंध सरेवदे सो निहफल सभु अगिआनु ॥२॥ जिस नो परतीति होवै तिस का गाविआ थाइ पवै सो पावै दरगह मानु ॥ जो बिनु परतीती कपटी कूड़ी कूड़ी अखी मीटदे उन का उतरि जाइगा झूठु गुमानु ॥३॥ जेता जीउ पिंडु सभु तेरा तूं अंतरजामी पुरखु भगवानु ॥ दासनि दासु कहै जनु नानकु जेहा तूं कराइहि तेहा हउ करी वखिआनु ॥४॥४॥११॥ {पन्ना 734}

पद्अर्थ: सुप्रसंनु = अच्छी तरह खुश। रवै = याद करता है। परवानु = कबूल। महिमा = वडिआई। वरनीअै = बयान की जाए। कै हिरदै = के हृदय में।1।

जिस नो, जिस कै, तिस की, जिस ते, तिस का: शब्द ‘जिसु’, ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ ‘कै’ ‘की’ ‘का’ के कारण हटा दी गई है।

गाईअै = आओ गाएं। जीउ लाइ = जी लगा के, चित जोड़ के।1। रहाउ।

सफल = कामयाब। ते = से। निधान = खजाना। दूजै भाइ = माया के प्यार में। कामना अरथि = मन की वासना की खातिर। दुरगंध = विषौ विकार। अगिआनु = आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझी।2।

परतीति = श्रद्धा, निश्चय। थाइ पवै = प्रवान होता है। मानु = आदर। कपटी = फरेबी। कूड़ी कूड़ी = झूठ मूठ। गुमानु = मान, अहंकार।3।

जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। अंतरजामी = सबके दिल की जानने वाला। दासनि दासु = दासों का दास। वखिआनु = बयान। करी = मैं करता हूँ।4।

अर्थ: हे भाई! आओ, चिक्त जोड़ के, गुरू (की बाणी) से सुरति जोड़ के, परमात्मा की सिफत सालाह के गीत गाया करें।1। रहाउ।

हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा अच्छी तरह खुश होता है, वह मनुष्य परमात्मा के गुण गाता है, वह मनुष्य (उसकी नजरों में) भक्त है (उसके दर पर) कबूल है। हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में भगवान पुरुष आ बसता है, उसकी महिमा बयान नहीं की जा सकती।1।

हे भाई! वह गुरू (ऐसा समर्थ है) कि उसकी तरफ से सबसे ऊँचा खजाना मिल जाता है, उस गुरू की बताई हुई वह सेवा भी फल लाती है। जो माया-ग्रसित मनुष्य माया के प्यार में (फस के) मन की वासनाएं (पूरी करने) की खातिर किसी विषौ-विकारों में लगे रहते हैं, वे जीवन व्यर्थ गवा लेते हैं, उनका सारा जीवन ही आत्मिक जीवन की ओर से बे-समझी है।2।

हे भाई! जिस मनुष्य को (गुरू पर) श्रद्धा होती है, उसका हरी-यश गाना (हरी की हजूरी में) कबूल पड़ता है; वह मनुष्य परमात्मा की दरगाह में आदर पाता है। पर जो फरेबी मनुष्य (गुरू पर) ऐतबार किए बिना झूठ-मूठ ही आँखें बँद करते हैं (जैसे, समाधि लगा के बैठे हों) उनका (अपनी उच्चता के बारे में) झूठा अहंकार (आखिर) उतर जाएगा।3।

हे प्रभू! जितना भी (जीवों के) जिंद-शरीर हैं ये सभ तेरा ही दिया हुआ है, तू सबके दिल की जानने वाला सर्व-व्यापक प्रभू है। हे प्रभू! तेरे दासों का दास नानक कहता है– (हे प्रभू!) तू जो कुछ मुझसे कहलवाता है, मैं वही कुछ कहता हूँ।4।4।11।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh