श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 736 सूही महला ४ ॥ कीता करणा सरब रजाई किछु कीचै जे करि सकीऐ ॥ आपणा कीता किछू न होवै जिउ हरि भावै तिउ रखीऐ ॥१॥ मेरे हरि जीउ सभु को तेरै वसि ॥ असा जोरु नाही जे किछु करि हम साकह जिउ भावै तिवै बखसि ॥१॥ रहाउ ॥ सभु जीउ पिंडु दीआ तुधु आपे तुधु आपे कारै लाइआ ॥ जेहा तूं हुकमु करहि तेहे को करम कमावै जेहा तुधु धुरि लिखि पाइआ ॥२॥ पंच ततु करि तुधु स्रिसटि सभ साजी कोई छेवा करिउ जे किछु कीता होवै ॥ इकना सतिगुरु मेलि तूं बुझावहि इकि मनमुखि करहि सि रोवै ॥३॥ हरि की वडिआई हउ आखि न साका हउ मूरखु मुगधु नीचाणु ॥ जन नानक कउ हरि बखसि लै मेरे सुआमी सरणागति पइआ अजाणु ॥४॥४॥१५॥२४॥ {पन्ना 736} पद्अर्थ: रजाई = रजा के मालिक प्रभू ने। कीचै = (हम) करें। भावै = अच्छा लगता है।1। वसि = वश में।1। रहाउ। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। कारै = काम में। को = कोई जीव। धुरि = धुर दरगाह से। लिखि = लिखके।2। पंच ततु = (हवा, पानी, आग, धरती, आकाश)। सभ = सारी। करिउ = (हुकमी भविष्यत, अन्नपुरख, एकवचन) बेशक कर देखो। मेलि = मिला के। बुझावहि = समझ बख्शता है। इकि = (‘इक’ का बहुवचन)। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले। करहि = तू बना देता है। सि = वह मनुष्य (एकवचन)। रोवै = दुखी होता है।3। हउ = मैं। नीचाणु = छोटा। मुगधु = मूर्ख। कउ = को। सुआमी = हे स्वामी!।4। अर्थ: हे मेरे प्रभू जी! हरेक जीव तेरे बस में हैं। हम जीवों में को समर्थता नहीं कि (तुझसे परे) कुछ कर सकें। हे प्रभू! तुझे जैसे अच्छा लगे, हम पर मेहर कर।1। रहाउ। हे भाई! जो कुछ जगत में बना है जो कुछ कर रहा है, ये सब रजा का मालिक परमात्मा कर रहा है। हम जीव (तब ही) कुछ करें, अगर कुछ कर सकते हों। हम जीवों का किया कुछ नहीं हो सकता। जैसे परमात्मा को अच्छा लगता है, वैसे जीवों को रखता है।1। हे प्रभू! ये जिंद, ये शरीर, सब कुछ (हरेक जीव को) तूने खुद ही दिया है, तूने स्वयं ही (हरेक जीव को) काम में लगाया हुआ है। जैसा हुकम तू करता है, जीव वैसा ही काम करता है (जीव वैसा ही बनता है) जैसा तूने धुर-दरगाह से (उसके माथे पर) लेख लिख के रख दिया है।2। हे प्रभू! तूने पाँच तत्व बना के सारी दुनिया पैदा की है। अगर (तुझसे बाहर) जीव से कुछ हो सकता हो, तो वह बेशक छेवाँ तत्व (ही) बना कर दिखा दे। हे प्रभू! कई जीवों को तू गुरू मिला के आत्मिक जीवन की सूझ बख्शता है। कई जीवों को तू अपने मन के पीछे चलने वाला बना देता है। फिर वह (अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य) दुखी होता रहता है।3। हे भाई! मैं (तो) मूर्ख हूँ, नीच जीवन वाला हूँ, मैं परमात्मा की बुजुर्गी बयान नहीं कर सकता। हे हरी! दास नानक पर मेहर कर, (ये) अंजान दास तेरी शरण आ पड़ा है।4।4।15।24। नोट: रागु सूही महला ५ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ बाजीगरि जैसे बाजी पाई ॥ नाना रूप भेख दिखलाई ॥ सांगु उतारि थम्हिओ पासारा ॥ तब एको एकंकारा ॥१॥ कवन रूप द्रिसटिओ बिनसाइओ ॥ कतहि गइओ उहु कत ते आइओ ॥१॥ रहाउ ॥ जल ते ऊठहि अनिक तरंगा ॥ कनिक भूखन कीने बहु रंगा ॥ बीजु बीजि देखिओ बहु परकारा ॥ फल पाके ते एकंकारा ॥२॥ सहस घटा महि एकु आकासु ॥ घट फूटे ते ओही प्रगासु ॥ भरम लोभ मोह माइआ विकार ॥ भ्रम छूटे ते एकंकार ॥३॥ ओहु अबिनासी बिनसत नाही ॥ ना को आवै ना को जाही ॥ गुरि पूरै हउमै मलु धोई ॥ कहु नानक मेरी परम गति होई ॥४॥१॥ {पन्ना 736} पद्अर्थ: बाजीगर = बाजीगर ने। नाना रूप = अनेकों रूप। सांगु = नकली शकल। उतारि = उतार के। थंमि्ओ = रोक दिया। पासारा = खेल का खिलारा। ऐकंकार = परमात्मा।1। कवन रूप = कौन कौन से रूप? अनेकों रूप। द्रिसटिओ = दिखा। बिनसाइओ = नाश हुआ। कतहि = कहाँ? उहु = जीव। कत ते = कहाँ से?।1। रहाउ। ते = से। उठहि = उठते हैं। तरंग = लहरों। कनिक = सोना। भूखन = गहने। कीने = बनाए जाते हैं। बीजि = बीज के। फल पाके ते = फल पकने से।2। सहस = हजारों। घट = घड़ा। घट फूटे ते = घड़े के टूटने से। भरम = भटकना।3। अबिनासी = नाश रहित। को = कोई जीव। आवै = पैदा होता है। जाही = जाते हैं, मरते हैं। गुरि = गुरू ने। परम गति = उच्च आत्मिक अवस्था।4। अर्थ: हे भाई! (परमात्मा के) अनेकों ही रूप दिखते रहते हैं, अनेकों ही रूप् नाश होते रहते हैं। (कोई नहीं बता सकता है कि) जीव कहाँ से आया था, और कहाँ चला जाता है।1। रहाउ। हे भाई! जैसे किसी बाजीगर ने (कभी) बाजी डाल के दिखाई हो, वह कई किस्मों के रूप और भेष दिखाता है (इसी तरह परमात्मा ने ये जगत-तमाशा रचा हुआ है। इसमें अनेकों रूप और भेष दिखा रहा है)। जब प्रभू अपनी ये (जगत-रूपी) नकली-शक्ल उतार के खेल का पसारा रोक देता है, तब स्वयं ही स्वयं रह जाता है।1। हे भाई! पानी से अनेकों लहरें उठती हैं (दोबारा पानी में मिल जाती हैं)। सोने से कई किस्मों के गहने घड़े जाते हैं (वे असल में होते तो सोना ही हैं)। (किसी वृक्ष का) बीज बीज के (शाखा-पत्ते आदि उसके) कई किस्मों में स्वरूप देखने को मिलता है। (वृक्ष के) फल पकने पर (वही पहली किस्म का बीज बन जाता है) (वैसे ही इस बहुरंगी संसार का असल) एक परमात्मा ही है।2। हे भाई! एक ही आकाश (पानी से भरे हुए) हजारों घड़ों में (अलग-अलग दिखता है)। जब घड़े टूट जाते हैं, तो वह (आकाश) ही दिखाई देता रह जाता है। माया के भ्रम के कारण (परमात्मा की अंश जीवात्मा में) भटकना, लोभ-मोह आदि विकार उठते हैं। भ्रम मिट जाने के कारण एक परमात्मा का ही रूप हो जाता है।3। हे भाई! वह परमात्मा नाश-रहित है, उसका कभी नाश नहीं होता। (वह प्रभू जीवात्मा रूप हो के भी) ना कोई आत्मा पैदा होती है, ना कोई आत्मा मरती है। हे नानक! कह–पूरे गुरू ने (मेरे अंदर से) अहंकार की मैल धो दी है, अब मेरी ऊँची आत्मिक अवस्था बन गई है (और, मुझे ये जगत उस परमात्मा का अपना ही रूप दिख रहा है)।4।1। सूही महला ५ ॥ कीता लोड़हि सो प्रभ होइ ॥ तुझ बिनु दूजा नाही कोइ ॥ जो जनु सेवे तिसु पूरन काज ॥ दास अपुने की राखहु लाज ॥१॥ तेरी सरणि पूरन दइआला ॥ तुझ बिनु कवनु करे प्रतिपाला ॥१॥ रहाउ ॥ जलि थलि महीअलि रहिआ भरपूरि ॥ निकटि वसै नाही प्रभु दूरि ॥ लोक पतीआरै कछू न पाईऐ ॥ साचि लगै ता हउमै जाईऐ ॥२॥ जिस नो लाइ लए सो लागै ॥ गिआन रतनु अंतरि तिसु जागै ॥ दुरमति जाइ परम पदु पाए ॥ गुर परसादी नामु धिआए ॥३॥ दुइ कर जोड़ि करउ अरदासि ॥ तुधु भावै ता आणहि रासि ॥ करि किरपा अपनी भगती लाइ ॥ जन नानक प्रभु सदा धिआइ ॥४॥२॥ {पन्ना 736-737} पद्अर्थ: कीता लोड़हि = तू करना चाहता है। प्रभ = हे प्रभू! राखहु = तू रखता है। लाज = इज्जत।1। दइआला = हे दया के घर प्रभू! कवनु = और कौन?।1। रहाउ। जलि = पानी में। थलि = धरती में। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, अंतरिक्ष में, आकाश में। निकटि = नजदीक। पतीआरै = पतिआने से, तसल्ली करवाने से। साचि = सदा-स्थिर प्रभू में।2। गिआन = आत्मिक जीवन की सूझ। अंतरि = अंदर, हृदय में। दुरमति = खोटी मति। पदु = आत्मिक दर्जा।3। जिस नो: ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है। कर = हाथ (बहुवचन)। जोड़ि = जोड़ के। करउ = मैं करता हूँ। आणहि = तू लाता है। आणहि रासि = तू सफल करता है। करि = कर के।4। अर्थ: हे सदा दयावान रहने वाले प्रभू! मैं तेरी शरण आया हूँ। तेरे बिना हम जीवों की पालना और कोई नहीं कर सकता।1। रहाउ। हे प्रभू! जो कुछ तू करना चाहता है। (जगत में) वही कुछ होता है, (क्योंकि) तेरे बिना (कुछ कर सकने वाला) और कोई नहीं है। जो सेवक तेरी शरण आता है, उसके सारे काम सफल हो जाते हैं। तू अपने सेवक की इज्जत खुद रखता है।1। हे भाई! पानी में, धरती में, आकाश में, हर जगह परमात्मा मौजूद है। (हरेक जीव के) नजदीक बसता है (किसी से भी) प्रभू दूर नहीं है। पर निरी लोगों की नजरों में अच्छा बनने से (उस परमात्मा के दर से आत्मिक जीवन की दाति का) कुछ भी नहीं मिलता। जब मनुष्य उस सदा-स्थिर प्रभू में लीन होता है, तब (इसके अंदर से) अहंकार दूर हो जाता है।2। हे भाई! वही मनुष्य प्रभू (के चरणों) में लीन होता है, जिसको प्रभू स्वयं (अपने चरणों में) जोड़ता है। उस मनुष्य के अंदर रत्न (जैसे कीमती) आत्मिक जीवन की सूझ उघड़ पड़ती है। (उस मनुष्य के अंदर से) खोटी मति दूर हो जाती है, वह उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त कर लेता है। गुरू की कृपा से वह परमात्मा का नाम सिमरता रहता है।3। हे दास नानक! (कह–हे प्रभू!) मैं (अपने) दोनों हाथ जोड़ के (तेरे दर पे) अरदास करता हूँ। जब तुझे ठीक लगे (तेरी रजा हो) तब ही तू उस अरदास को सफल करता है। हे भाई! कृपा करके परमात्मा (जिस मनुष्य को) अपनी भक्ति में जोड़ता है, वह उसको सदा सिमरता रहता है।4।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |