श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सूही महला ५ ॥ किआ गुण तेरे सारि सम्हाली मोहि निरगुन के दातारे ॥ बै खरीदु किआ करे चतुराई इहु जीउ पिंडु सभु थारे ॥१॥ लाल रंगीले प्रीतम मनमोहन तेरे दरसन कउ हम बारे ॥१॥ रहाउ ॥ प्रभु दाता मोहि दीनु भेखारी तुम्ह सदा सदा उपकारे ॥ सो किछु नाही जि मै ते होवै मेरे ठाकुर अगम अपारे ॥२॥ किआ सेव कमावउ किआ कहि रीझावउ बिधि कितु पावउ दरसारे ॥ मिति नही पाईऐ अंतु न लहीऐ मनु तरसै चरनारे ॥३॥ पावउ दानु ढीठु होइ मागउ मुखि लागै संत रेनारे ॥ जन नानक कउ गुरि किरपा धारी प्रभि हाथ देइ निसतारे ॥४॥६॥ {पन्ना 738}

पद्अर्थ: किआ गुण = कौन कौन से गुण? सारि = याद कर के। समाली = मैं हृदय में बसाऊँ। मोहि दाता रे = हे मेरे दातार! निरगुन = गुण हीन। बै खरीदु = मूल्य लिया हुआ। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। सभु = सब कुछ। थारे = तेरे।1।

रंगीले = हे चोजी! बारे = सदके।1। रहाउ।

मोहि = मैं। दीनु = कंगाल। भेखारी = मंगता। मै ते = मुझसे। ठाकुर = हे ठाकुर! अगम = हे अपहुँच! अपारे = हे बेअंत!।2।

कमावउ = मैं करूँ। कहि = कह के। रीझावउ = मैं खुश करूँ। बिधि कितु = किस तरीके से? पावउ = पाऊँ। मागउ = मैं मांगता हूँ। मुखि = मूह पर। रेनारे = चरण धूड़। कउ = को। गुरि = गुरू ने। प्रभि = प्रभू ने। देइ = दे के। निसतारे = पार लंघा लिया।4।

अर्थ: हे चोजी लाल! हे प्रीतम! हे मन को मोह लेने वाले! हम जीव तेरे दर्शनों को कुर्बान हैं।1। रहाउ।

मुझ गुणहीन के हे दातार! मैं तेरे कौन-कौन से गुण याद कर-कर के अपने दिल में बसाऊँ? (मैं तो तेरा मूल्य खरीदा हुआ सेवक हूँ) मूल्य खरीदा हुआ नौकर कोई चालाकी भरी बात नहीं कर सकता। (हे दातार!् मेरा) ये शरीर और मेरी ये जिंद सब तेरे ही दिए हुए हैं।1।

(हे दातार!) तू मालिक है, दातें देने वाला है, मैं (तेरे दर पर) कंगाल मंगता हूँ, तू सदा ही, तू हमेशा ही मेरे ऊपर मेहरवानियाँ करता है। हे मेरे अपहुँच और बेअंत मालिक! कोई ऐसा काम नहीं जो (बग़ैर तेरी मदद के) मुझसे हो सके।2।

हे प्रभू! मैं तेरी कौन सी सेवा करूं? मैं क्या कह के तुझे प्रसन्न करूँ? मैं किस तरह तेरे दीदार हासिल करूँ? तेरी हस्ती का नाप नहीं पाया जा सकता, तेरे गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। मेरा मन सदा तेरे चरणों में पड़े रहने को तरसता है।3।

हे प्रभू! मैं ढीठ हो के (बार-बार तेरे दर से) माँगता हूँ, मुझे ये दान मिल जाए कि मेरे माथे पर तेरे संत जनों के चरणों की धूल लगती रहे। हे नानक! (कह–) जिस दास पर गुरू ने मेहर कर दी, प्रभू ने (उसको अपना) हाथ दे के (संसार-समुंद्र से) पार लंघा लिया।4।6।

सूही महला ५ घरु ३    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सेवा थोरी मागनु बहुता ॥ महलु न पावै कहतो पहुता ॥१॥ जो प्रिअ माने तिन की रीसा ॥ कूड़े मूरख की हाठीसा ॥१॥ रहाउ ॥ भेख दिखावै सचु न कमावै ॥ कहतो महली निकटि न आवै ॥२॥ अतीतु सदाए माइआ का माता ॥ मनि नही प्रीति कहै मुखि राता ॥३॥ कहु नानक प्रभ बिनउ सुनीजै ॥ कुचलु कठोरु कामी मुकतु कीजै ॥४॥ दरसन देखे की वडिआई ॥ तुम्ह सुखदाते पुरख सुभाई ॥१॥ रहाउ दूजा ॥१॥७॥ {पन्ना 738}

पद्अर्थ: मागनु = मांग। महलु = प्रभू की हजूरी। कहतो = कहता है। पहुता = पहुँचा हुआ हूँ।1।

जे = जो मनुष्य। प्रिअ माने = प्यारे के सत्कारे हुए हैं। हाठीसा = हठ की बातें।1। रहाउ।

सचु = सदा स्थिर हरी नाम का सिमरन। महली = प्रभू के महल का वासी। निकटि = नजदीक।2।

अतीतु = विरक्त, त्यागी। सदाऐ = कहलवाता है। माता = मस्त। मनि = मन में। मंखि = मुँह से। राता = रंगा हुआ।3।

नानक = हे नानक! प्रभ = हे प्रभू! बिनउ = विनती। कुचलु = गंदा, मैले आचरण वाला। कठोरु = निर्दई। मुकतु कीजै = विकारों से बचा ले।4।

देखे की = देखने की। सुभाई = सोहना प्यार करने वाला।1। रहाउ दूजा।

अर्थ: हे भाई! झूठे मूर्ख मनुष्य के हठ की बात (सुन)। ये उनकी नकल करता है जो प्यारे प्रभू के दर से सत्कार हासिल कर चुके हैं।1। रहाउ।

हे भाई! ये मूर्ख काम तो थोड़ा करता है, पर उसके बदले में इसकी माँग बहुत ज्यादा है। प्रभू के चरणों तक पहुँच तो हासिल कर नहीं सकता, पर कहता है कि मैं (प्रभू की हजूरी में) पहुँचा हुआ हूँ।1।

(हे भाई! झूठा मूर्ख औरों को अपने धर्मी होने के निरे) भेष दिखा रहा है, सदा-स्थिर प्रभू के नाम-सिमरन की कमाई नहीं करता। मुँह से कहता है कि मैं हजूरी में पहुँचा हुआ हूँ, पर (प्रभू-चरणों के कहीं) नजदीक भी नहीं पहुँचा।2।

(हे भाई! देख मूर्ख के हठ की बात! ये अपने आप को) त्यागी कहलवाता है पर माया (की लालसा) में मस्त रहता है। (इसके) मन में (प्रभू चरणों का) प्यार नहीं है, पर मुँह से कहता है कि मैं (प्रभू के प्रेम-रंग में) रंगा हुआ हूँ।3।

हे नानक! कह–हे प्रभू! मेरी विनती सुन (जीव बेचारा कुछ करने के लायक नहीं, ये) दुष्कर्मी है, निर्दयी है, विषयी है (फिर भी तेरा) है इसको इन विकारों से खलासी बख्श।4।

हे पुरख प्रभू! तू सब सुख देने के योग्य है, तू प्यार भरपूर है। (हम जीवों को) यह महिमा बख्श कि तेरे दर्शन कर सकें।1। रहाउ दूजा।1।7।

नोट: नए संग्रह (घर 3) का ये पहला शबद है। कुल जोड़ 7 है।

सूही महला ५ ॥ बुरे काम कउ ऊठि खलोइआ ॥ नाम की बेला पै पै सोइआ ॥१॥ अउसरु अपना बूझै न इआना ॥ माइआ मोह रंगि लपटाना ॥१॥ रहाउ ॥ लोभ लहरि कउ बिगसि फूलि बैठा ॥ साध जना का दरसु न डीठा ॥२॥ कबहू न समझै अगिआनु गवारा ॥ बहुरि बहुरि लपटिओ जंजारा ॥१॥ रहाउ ॥ बिखै नाद करन सुणि भीना ॥ हरि जसु सुनत आलसु मनि कीना ॥३॥ द्रिसटि नाही रे पेखत अंधे ॥ छोडि जाहि झूठे सभि धंधे ॥१॥ रहाउ ॥ कहु नानक प्रभ बखस करीजै ॥ करि किरपा मोहि साधसंगु दीजै ॥४॥ तउ किछु पाईऐ जउ होईऐ रेना ॥ जिसहि बुझाए तिसु नामु लैना ॥१॥ रहाउ ॥२॥८॥ {पन्ना 738}

पद्अर्थ: ऊठि खलोइआ = उठ के खड़ा हो जाता है, जल्दी तैयार हो जाता है। बेला = के समय। पै पै सोइआ = लंबी तान के पड़ा रहता है।1।

अउसरु = अवसर, मौका। रंगि = रंग में, लगन में। लपटाना = मस्त रहता है।1। रहाउ।

बिगसि = खुश हो के। फूलि बैठा = फूल फूल बैठता है।2।

अगिआनु = आत्मिक जीवन की समझ से वंचित। गवारा = मूर्ख। बहुरि बहुरि = बार बार। जंजारा = जंजालों में, धंधों में।1। रहाउ।

बिखै नाद = विषौ विकारों वाले गीत। करन = कानों से। सुणि = सुन के। भीना = खुश होता है। सुनत = सुन के। मनि = मन में।3।

रे अंधे = हे अंधे! जाहि = जाएगा। सभि = सारे।1। रहाउ।

प्रभ = हे प्रभू! बखस = कृपा, मेहर। करि = कर के। मोहि = मुझे। संगु = साथ।4।

तउ = तब। जउ = जब। रेना = चरण धूल। जिसहि = जिस को (‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ही’ के कारण हटा दी गई है)।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! मूर्ख मनुष्य बुरे काम करने के लिए (तो) जल्दी तैयार हो जाता है, पर परमात्मा का नाम सिमरन के वक्त (अमृत बेला में) लंबी तान के पड़ा रहता है (बेपरवाह हो के सोया रहता है)।1।

हे भाई! मूर्ख मनुष्य माया के मोह की लगन में मस्त रहता है, ये नहीं समझता कि ये मानस जीवन ही अपना असली मौका है (जब प्रभू को याद किया जा सकता है)।1। रहाउ।

हे भाई! (अंदर उठ रही) लोभ की लहर के कारण (माया के लाभ की आस पर) खुश हो के फूल-फूल बैठता है, कभी संत-जनों के दर्शन भी नहीं करता।2।

हे भाई! आत्मिक जीवन की समझ से वंचित मूर्ख मनुष्य (अपने असल भले की बात) कभी नहीं समझता, बार-बार (माया के) धंधों में व्यस्त रहता है।1। रहाउ।

हे भाई! (माया के मोह में अंधा हुआ मनुष्य) विषौ-विकारों के गीत कानों से सुन-सुन के प्रसन्न होता है। पर, परमात्मा की सिफत सालाह सुनने से मन में आलस करता है।3।

हे अंधे! तू आँखों से (क्यों) नहीं देखता कि ये सारे (दुनिया वाले) घंधे छोड़ के (तू आखिर, यहाँ से) चला जाएगा?।1। रहाउ।

हे नानक! कह–हे प्रभू! (मेरे पर) मेहर कर। कृपा कर के मुझे गुरमुखों की संगति बख्श।4।

हे भाई! (साध-संगति में से भी) तब ही कुछ हासिल हो सकता है, जब गुरमुखों के चरणों की धूल बन जाएं। हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा (चरण-धूल होने की) सूझ बख्शता है, वे (साध-संगति में टिक के उसका) नाम सिमरते हैं।1। रहाउ।2।8।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh