श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सूही महला ५ ॥ घर महि ठाकुरु नदरि न आवै ॥ गल महि पाहणु लै लटकावै ॥१॥ भरमे भूला साकतु फिरता ॥ नीरु बिरोलै खपि खपि मरता ॥१॥ रहाउ ॥ जिसु पाहण कउ ठाकुरु कहता ॥ ओहु पाहणु लै उस कउ डुबता ॥२॥ गुनहगार लूण हरामी ॥ पाहण नाव न पारगिरामी ॥३॥ गुर मिलि नानक ठाकुरु जाता ॥ जलि थलि महीअलि पूरन बिधाता ॥४॥३॥९॥ {पन्ना 739}

पद्अर्थ: घर महि = हृदय घर में। पाहणु = पत्थर, पत्थर की मूर्ति।1।

भरमे = भटकना में (पड़ कर)। साकतु = परमात्मा से टूटा हुआ। नीरु = पानी। बिरोलै = मथता है। खपि खपि = व्यर्थ की मेहनत करके। मरता = आत्मिक मौत सहेड़ता है।1। रहाउ।

कउ = को। कहता = कहता है।2।

गुनहगार = हे गुनहगार! हे पापी! लूण हरामी = नमकहराम, हे अकृतघ्न! नाव = बेड़ी। पार गिरामी = पार लंघाने वाली।3।

गुर मिलि = गुरू को मिल के। जाता = सांझ डाली। जलि = पानी में। थलि = धरती में। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, आकाश में। बिधाता = रचनहार करतार।4।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा से टूटा हुआ मनुष्य भटकनों में पड़ के गलत रास्ते पर चलता फिरता है। (मूर्ती पूजा करके) पानी (ही) मथता है, ये व्यर्थ की मेहनत करके आत्मिक मौत सहेड़ता रहता है।1। रहाउ।

(साकत को अपने) हृदय-घर में मालिक प्रभू (बसता) नही दिखता, पत्थर (की मूर्ति) ले के अपने गले लटकाए फिरता है।1।

हे भाई! साकत मनुष्य जिस पत्थर को परमात्मा कहता (समझता) रहता है, वह पत्थर (अपने) उस (पुजारी) को भी ले के (पानी में) डूब जाता है।2।

हे पापी! हे अकृतघ्न! (जैसे) पत्थर की नाव (नदी से) पार नहीं लांघ सकती (ऐसे ही पत्थर की मूर्ती की पूजा संसार-संमुद्र से पार नहीं लंघा सकती)।3।

हे नानक! जिस मनुष्य ने गुरू को मिल के मालिक-प्रभू के साथ गहरी सांझ डाली हुई है, उसको वह करतार पानी में, धरती में आकाश में हर जगह बसता दिखाई देता है।4।3।9।

सूही महला ५ ॥ लालनु राविआ कवन गती री ॥ सखी बतावहु मुझहि मती री ॥१॥ सूहब सूहब सूहवी ॥ अपने प्रीतम कै रंगि रती ॥१॥ रहाउ ॥ पाव मलोवउ संगि नैन भतीरी ॥ जहा पठावहु जांउ तती री ॥२॥ जप तप संजम देउ जती री ॥ इक निमख मिलावहु मोहि प्रानपती री ॥३॥ माणु ताणु अह्मबुधि हती री ॥ सा नानक सोहागवती री ॥४॥४॥१०॥ {पन्ना 739}

पद्अर्थ: लालनु = सुंदर लाल। राविआ = मिलाप का आनंद लिया। कवन गती = किस तरीके से? री = हे सखी! मुझहि = मुझे ही। मती = मति से, अक्ल।1।

सूहब = हे सूहे रंग वाली! कै रंगि = के प्रेम रंग में। रती = रंगी हुई।1। रहाउ।

पाव = (‘पांउ’ का बहुवचन) दोनों पैर। मलोवउ = मैं मलूँगी। संगि = साथ। नैन भतीरी = धीरा, पुतली। पठावहु = तू भेजे। जाउ = मैं जाऊँ। तती = तत्र ही, वहीं पर ही।2।

देउ = मैं दे दूँ। जती = जत। निमख = आँख झपकने जितना समय (निमेष)। मोहि = मुझे।3।

अहंबुधि = अहंकार वाली मति। हती = नाश की। सा = उस (स्त्रीलिंग)। सोहागवती = पति वाली।4।

अर्थ: हे सखी! तेरे मुँह पर लाली भख रही है, तू अपने प्यारे के प्रेम-रंग में रंगी हुई है।1। रहाउ।

हे सखी! तूने किस ढंग से सोहाने लाल का मिलाप पाया है? हे सखी! मुझे भी बता।1।

हे सखी! (मुझे भी बता) मैं तेरे पैर अपनी आँखों की पुतलियों से मलूँगी, तू मुझे जहाँ भी (किसी काम पर) भेजेगी, मैं वहीं (खुशी से) जाऊँगी।2।

हे सखी! आँख झपकने जितने समय के लिए ही सही मुझे जिंद का मालिक प्रभू मिला दे, मैं उसके बदले में सारे जप-तप-संजम दे दूँगी।3।

हे नानक! जो जीव-स्त्री (किसी भी अपने निहित पदार्थ अथवा उद्यम का) गुमान और आसरा छोड़ देती है, अहंकार वाली बुद्धि त्याग देती है, वह सोहाग-भाग वाली हो जाती है।4।4।10।

सूही महला ५ ॥ तूं जीवनु तूं प्रान अधारा ॥ तुझ ही पेखि पेखि मनु साधारा ॥१॥ तूं साजनु तूं प्रीतमु मेरा ॥ चितहि न बिसरहि काहू बेरा ॥१॥ रहाउ ॥ बै खरीदु हउ दासरो तेरा ॥ तूं भारो ठाकुरु गुणी गहेरा ॥२॥ कोटि दास जा कै दरबारे ॥ निमख निमख वसै तिन्ह नाले ॥३॥ हउ किछु नाही सभु किछु तेरा ॥ ओति पोति नानक संगि बसेरा ॥४॥५॥११॥ {पन्ना 739}

पद्अर्थ: जीवनु = जिंदगी, जिंद। अधारा = आसरा। पेखि = देख के। साधारा = आसरा पकड़ता है।1।

चितहि = चिक्त में से। काहू बेरा = किसी भी वक्त।1। रहाउ।

बै खरीदु = मूल्य लिया हुआ। हउ = मैं। दासरो = निमाणा सा दास। भारो = बड़ा। गुणी = गुणों का मालिक। गहेरा = गहरा, गहरे जिगरे वाला।2।

कोटि = करोड़ों। कै दरबारे = के दरबार में। निमख निमख = हर वक्त। निमख = (निमेष) आँख झपकने जितना समय।3।

ओति पोति = ताने पेटे की तरह। ओत = उना हुआ। पोत = परोया हुआ। संगि = साथ।4।

अर्थ: हे प्रभू! तू ही मेरा सज्जन है, तू ही मेरा प्यारा है (मेहर कर) किसी भी वक्त मन से ना बिसर।1। रहाउ।

हे प्रभू! तू ही मेरी जिंद है, तू ही मेरी जिंद का सहारा है। तुझे देख के ही मेरा मन धैर्य धरता है।1।

हे प्रभू! मैं मोल खरीदा हुआ तेरा अदना सा सेवक हूँ, तू मेरा बड़ा मालिक है, तू सारे गुणों से भरपूर है, तू बड़े जिगरे वाला है।2।

हे भाई! वह प्रभू ऐसा है कि करोड़ों सेवक उसके दर पर (गिरे रहते हैं) वह हर वक्त उनके साथ बसता है।3।

हे नानक! (कह– हे प्रभू!) मेरी अपनी कोई बिसात नहीं, (मेरे पास जो कुछ भी है) सब कुछ तेरा ही बख्शा हुआ है। ताने-पेटे की तरह परोया हुआ तू ही मेरे साथ बसता है।4।5।11।

सूही महला ५ ॥ सूख महल जा के ऊच दुआरे ॥ ता महि वासहि भगत पिआरे ॥१॥ सहज कथा प्रभ की अति मीठी ॥ विरलै काहू नेत्रहु डीठी ॥१॥ रहाउ ॥ तह गीत नाद अखारे संगा ॥ ऊहा संत करहि हरि रंगा ॥२॥ तह मरणु न जीवणु सोगु न हरखा ॥ साच नाम की अम्रित वरखा ॥३॥ गुहज कथा इह गुर ते जाणी ॥ नानकु बोलै हरि हरि बाणी ॥४॥६॥१२॥ {पन्ना 739}

पद्अर्थ: जा के = जिस परमात्मा के। ता महि = उस (सहज अवस्था) में। वासहि = बसते हैं।1।

सहज कथा = आत्मिक अडोलता पैदा करने वाली सिफत सालाह। अति = बहुत। विरलै काहू = किसी विरले ने। नेत्रहु = आँखों से।1। रहाउ।

तह = उस (सहज कथा) में। अखारे = अखाड़े, पहलवानों के घुलने की जमीन, दंगल।2।

हरखा = खुशी। साच = सदा स्थिर रहने वाला। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला।

गुहज = छुपी हुई। ते = से। नानकु बोलै = नानक बोलता है।4।

अर्थ: हे भाई! आत्मिक अडोलता पैदा करने वाली प्रभू की सिफत सालाह बड़ी ही रसीली (स्वादिष्ट) है, पर किसी विरले ही मनुष्य ने उसको अपनी आँखों से देखा है (महसूस किया है)।1। रहाउ।

हे भाई! उस (आत्मिक अडोलता पैदा करने वाली सिफत सालाह) में उस परमात्मा के प्यारे भक्त (ही) बसते हैं जिस परमात्मा के महल आनंद से भरपूर हैं, और जिसके दरवाजे ऊँचे हैं (भाव, वहाँ आत्मिक आनंद के बिना और किसी विकार आदि की पहुँच नहीं है)।1।

हे भाई! आत्मिक अडोलता पैदा करने वाली उस सिफत-सालाह में (मानो) गीत और राग हो रहे होते हैं (उसमें, मानो) दंगल बने होते है। (जहाँ कामादिक पहलवानों से मुकाबला करने की जाच सीखी जाती है)। उस सिफत सालाह में जुड़ के संत जन परमात्मा के मिलाप का आनंद लेते हैं।2।

हे भाई! सिफत-सालाह में जुड़ने से जनम-मरण का चक्कर नहीं रहता, खुशी-ग़मी नहीं छू सकती। उस अवस्था में सदा-स्थिर प्रभू के आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल की बरखा होती रहती है।3।

हे भाई! (सिफत सालाह के बारे में) ये भेद की बात (नानक ने) गुरू के पास से समझी है (तभी तो) नानक परमात्मा की सिफत-सालाह की बाणी उचारता रहता है।4।6।12।

सूही महला ५ ॥ जा कै दरसि पाप कोटि उतारे ॥ भेटत संगि इहु भवजलु तारे ॥१॥ ओइ साजन ओइ मीत पिआरे ॥ जो हम कउ हरि नामु चितारे ॥१॥ रहाउ ॥ जा का सबदु सुनत सुख सारे ॥ जा की टहल जमदूत बिदारे ॥२॥ जा की धीरक इसु मनहि सधारे ॥ जा कै सिमरणि मुख उजलारे ॥३॥ प्रभ के सेवक प्रभि आपि सवारे ॥ सरणि नानक तिन्ह सद बलिहारे ॥४॥७॥१३॥ {पन्ना 739}

पद्अर्थ: जा कै दरसि = जिनके दर्शनों से। कोटि = करोड़ों। भेटत संगि = (जिनके चरणों) को छूने से। भवजलु = संसार समुंद्र।1।

ओइ = वह (‘ओह’ का बहुवचन)। हम कउ = हमें, मुझे। चितारे = याद कराते हैं।1। रहाउ।

जा का सबदु = जिनका वचन। बिदारे = नाश हो जाते हैं।2।

धीरक = धीरज। मनहि = मन को। सधारे = सहारा देती है। जा कै सिमरणि = जिनके (दिए हुए हरी-नाम के) सिमरन से। उजलारे = उजला, रौशन।3।

प्रभि = प्रभू ने। सवारे = सोहाने जीवन वाले बनाए जाते हैं। सद = सदा।4।

अर्थ: हे भाई! जो (संत जन) मुझे परमात्मा का नाम याद करवाते हैं वह (ही) मेरे सज्जन हैं, वह (ही) मेरे प्यारे मित्र हैं।1। रहाउ।

हे भाई! (वह संत जन ही मेरे प्यारे मित्र हैं) जिनके दर्शनों से करोड़ों पाप उतर जाते हैं, (जिन के चरणों) को छूने से संसार-समुंदर से पार लांध जाया जाता है।1।

हे भाई! (वही हैं मेरे मित्र) जिनके वचन सुन के सारे सुख प्राप्त हो जाते हैं, जिनकी टहल करने से जमदूत (भी) नाश हो जाते हैं।2।

हे भाई! (वही हैं मेरे मित्र) जिन के द्वारा (दिया हुआ) धीरज (मेरे) इस मन को सहारा देता है, जिन (के दिए हुए हरी-नाम) के सिमरन से (लोक-परलोक में) मुँह उज्जवल होता है।3।

हे नानक! प्रभू ने स्वयं ही अपने सेवकों का जीवन सुंदर बना दिया है। हे भाई! उन सेवकों की शरण पड़ना चाहिए, उन पर से सदा कुर्बान होना चाहिए।4।7।13।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh