श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 740 सूही महला ५ ॥ रहणु न पावहि सुरि नर देवा ॥ ऊठि सिधारे करि मुनि जन सेवा ॥१॥ जीवत पेखे जिन्ही हरि हरि धिआइआ ॥ साधसंगि तिन्ही दरसनु पाइआ ॥१॥ रहाउ ॥ बादिसाह साह वापारी मरना ॥ जो दीसै सो कालहि खरना ॥२॥ कूड़ै मोहि लपटि लपटाना ॥ छोडि चलिआ ता फिरि पछुताना ॥३॥ क्रिपा निधान नानक कउ करहु दाति ॥ नामु तेरा जपी दिनु राति ॥४॥८॥१४॥ {पन्ना 740} पद्अर्थ: रहणु = सदा का ठिकाना। न पावहि = नहीं हासिल कर सकते। सुरि नर = दैवी मनुष्य। देवा = देवते। ऊठि सिधारे = उठ के चल पड़े। करि = कर के।1। जीवत = जीवित, आत्मिक जीवन वाले। पेखे = देखे है। संगि = संगति में। तिनी = उन्होंने ही।1। रहाउ। साह = शाह। दीसै = दिखता है। सो = उस को। कालहि = काल ने। खरना = ले जाना है।2। मोहि = मोह में। छोडि = छोड़ के।3। क्रिपा निधान = हे कृपा के खजाने! जपी = मैं जपता रहूँ।4। अर्थ: हे भाई! आत्मिक जीवन वाले (सफल जीवन वाले सिर्फ वही) देखे जाते हैं जिन्होंने परमात्मा का सिमरन किया है, उन्होंने ही साध-संगति में टिक के परमात्मा के दर्शन किए हैं।1। रहाउ। हे भाई! (अनेकों मनुष्य अपने आप को) दैवी मनुष्य, देवते (कहलवा गए, अनेकों अपने आप को) ऋषी मुनी (कहलवा गए, अनेकों ही उनकी) सेवा कर के (जगत से आखिर अपनी-अपनी बारी) चले जाते रहे, (कोई भी यहाँ) सदा के लिए टिका नहीं रह सकता।1। हे भाई! शाह, व्यापारी, बादशाह (सबने आखिर) मरना है। जो भी कोई (यहाँ) दिखता है, हरेक को मौत ने ले जाना है।2। हे भाई! मनुष्य सदा झूठे मोह में फसा रहता है (और परमात्मा को भुलाए रखता है, पर जब दुनिया के पदार्थ) छोड़ के चलता है, तब पछताता है।3। हे कृपा के खजाने प्रभू! (मुझे) नानक को (ये) दाति दे (कि) मैं (नानक) दिन-रात तेरा नाम जपता रहूँ।4।8।14। सूही महला ५ ॥ घट घट अंतरि तुमहि बसारे ॥ सगल समग्री सूति तुमारे ॥१॥ तूं प्रीतम तूं प्रान अधारे ॥ तुम ही पेखि पेखि मनु बिगसारे ॥१॥ रहाउ ॥ अनिक जोनि भ्रमि भ्रमि भ्रमि हारे ॥ ओट गही अब साध संगारे ॥२॥ अगम अगोचरु अलख अपारे ॥ नानकु सिमरै दिनु रैनारे ॥३॥९॥१५॥ {पन्ना 740} पद्अर्थ: घट = शरीर। घट घट अंतरि = हरेक शरीर में। तुमहि = तुम ही। बसारे = बस रहा है। सगल समग्री = सारी चीजें। सूति = धागे में।1। प्रान अधारे = जिंद का आसरा। पेखि = देख के। बिगसारे = खिलता है।1। रहाउ। भ्रमि = भटक के। हारे = थक जाते हैं। गही = पकड़ी। अब = अब, मानस जन्म में।2। अगम = अपहुँच। अगोचरु = (अ+गो+चरु) जिस तक ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच ना हो सके। अपारे = बेअंत। नानक सिमरै = नानक सिमरता है। रैनारे = रात।3। अर्थ: हे प्रभू! तू हमारा प्रीतम है, तू हमारी जिंद का आसरा है। तुझे ही देख-देख के (हमारा) मन खुश होता है।1। रहाउ। हे प्रभू! हरेक शरीर में तू ही बसता है, (दुनिया की) सारी चीजें तेरी ही मर्यादा के धागे में (परोई हुई) हैं।1। हे प्रभू! (तुझसे विछुड़ के जीव) अनेकों जूनियों में भटक-भटक के थक जाते हैं। मानस जनम में आ के (तेरी मेहर से) साध-संगति का आसरा लेते हैं।2। हे भाई! (साध-संगति की बरकति से) नानक दिन-रात उस परमात्मा का नाम सिमरता है जो अपहुँच है, जिस तक ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती, जो मनुष्य की समझ से परे है, और जो बेअंत है।3।9।15। सूही महला ५ ॥ कवन काज माइआ वडिआई ॥ जा कउ बिनसत बार न काई ॥१॥ इहु सुपना सोवत नही जानै ॥ अचेत बिवसथा महि लपटानै ॥१॥ रहाउ ॥ महा मोहि मोहिओ गावारा ॥ पेखत पेखत ऊठि सिधारा ॥२॥ ऊच ते ऊच ता का दरबारा ॥ कई जंत बिनाहि उपारा ॥३॥ दूसर होआ ना को होई ॥ जपि नानक प्रभ एको सोई ॥४॥१०॥१६॥ {पन्ना 740} पद्अर्थ: कवन काज = किस काम का? कउ = जिस (माया) को। बार = देर। कई बार = कोई भी देर।1। जानै = जानता, समझता। अचेत = गाफल। बिवसथा = हालत। लपटानै = लिपटा रहता है।1। रहाउ। मोहि = मोह में। मोहिओ = मोहा रहता है, मस्त रहता है। गावारा = मूर्ख। सिधारा = चल पड़ता है।2। ता का = उस (परमात्मा) का। बिनाहि = नाश कर के। उपारा = पैदा करता है।3। को = कोई। होई = होगा।4। अर्थ: हे भाई! ये (जगत ऐसे है, जैसे) सपना (होता) है, (सपने में) सोया हुआ मनुष्य (ये) नहीं जानता (कि मैं सोया हुआ हूँ, और सपना देख रहा हूँ। इसी तरह मनुष्य जगत के मोह वाली) गाफल हालत में (जगत के मोह के साथ) चिपका रहता है।1। रहाउ। हे भाई! जिस माया के नाश होने में रक्ती भर भी समय नहीं लगता, उस माया के कारण मिली वडिआई भी किसी काम की नहीं।1। हे भाई! मूर्ख मनुष्य माया के बड़े मोह में मस्त रहता है, पर देखते-देखते ही (यहाँ से) उठ के चल पड़ता है।2। हे भाई! (परमात्मा का नाम ही जप) उसका दरबार ऊँचे से ऊँचा है। वह अनेकों जीवों का नाश भी करता है, और, पैदा भी करता है।3। हे नानक! उस एक परमात्मा का नाम ही जपा कर, जिस जैसा और कोई दूसरा ना अभी तक कोई हुआ है, ना ही (आगे) होगा।4।10।16। सूही महला ५ ॥ सिमरि सिमरि ता कउ हउ जीवा ॥ चरण कमल तेरे धोइ धोइ पीवा ॥१॥ सो हरि मेरा अंतरजामी ॥ भगत जना कै संगि सुआमी ॥१॥ रहाउ ॥ सुणि सुणि अम्रित नामु धिआवा ॥ आठ पहर तेरे गुण गावा ॥२॥ पेखि पेखि लीला मनि आनंदा ॥ गुण अपार प्रभ परमानंदा ॥३॥ जा कै सिमरनि कछु भउ न बिआपै ॥ सदा सदा नानक हरि जापै ॥४॥११॥१७॥ {पन्ना 740} पद्अर्थ: ता कउ = उस (परमात्मा के नाम) को। हउ = मैं। जीवा = मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। पीवा = मैं पीता हूँ।1। अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला। कै संगि = के साथ।1। रहाउ। सुणि = सुन के। धिआवा = ध्याऊँ। गावा = गाऊँ।2। पेखि = देख के। लीला = करिश्मे, खेल। मनि = मन में। प्रभ = हे प्रभू! परमानंदा = परम आनंद का मालिक।3। कै सिमरनि = के सिमरन से। बिआपै = जोर डाल सकता। जापै = जपा कर।4। अर्थ: हे भाई! मालिक प्रभू अपने भक्त जनों के साथ बसता है। मेरा वह हरी-प्रभू हरेक के दिल की जानने वाला है।1। रहाउ। हे भाई! (भक्तजनों के अंग-संग रहने वाले) उस (प्रभू के नाम) को मैं सदा सिमर के आत्मिक जीवन हासिल कर रहा हूँ। हे प्रभू! मैं तेरे सोहणे चरण धो-धो के (नित्य) पीता हूँ।1। हे प्रभू! बार बार (ये) सुन के (कि तेरा) नाम आत्मिक जीवन देने वाला (है,) मैं (तेरा नाम) सिमरता रहता हूँ, आठों पहर मैं तेरी सिफत-सालाह के गीत गाता रहता हूँ।2। हे सबसे ऊँचे आनंद के मालिक प्रभू! तेरे गुण बेअंत हैं, तेरे करिश्मे देख-देख के मेरे मन में आनंद पैदा होता है। हे नानक! तू भी सदा उस हरी का नाम जपा कर, जिसके सिमरन की बरकति से कोई डर छू नहीं सकता।4।11।17। सूही महला ५ ॥ गुर कै बचनि रिदै धिआनु धारी ॥ रसना जापु जपउ बनवारी ॥१॥ सफल मूरति दरसन बलिहारी ॥ चरण कमल मन प्राण अधारी ॥१॥ रहाउ ॥ साधसंगि जनम मरण निवारी ॥ अम्रित कथा सुणि करन अधारी ॥२॥ काम क्रोध लोभ मोह तजारी ॥ द्रिड़ु नाम दानु इसनानु सुचारी ॥३॥ कहु नानक इहु ततु बीचारी ॥ राम नाम जपि पारि उतारी ॥४॥१२॥१८॥ {पन्ना 740} पद्अर्थ: कै बचनि = के वचनों से। रिदै = हृदय में। धारी = मैं धारण करता हूँ। रसना = जीभ (से)। जपउ = मैं जपता हूँ। बनवारी = (वनमालिन् = जंगली फूलों की माला वाला) परमात्मा।1। मूरति = हस्ती, अस्तित्व, स्वरूप। सफल मूरति = (वह गुरू) जिसका वजूद मानस जनम का फल देने वाला है। बलिहारी = सदके। चरण कमल = कमल फूलों जैसे कोमल चरण। अधारी = आसरा बनाता हूँ।1। रहाउ। साध संगि = गुरू की संगति में। निवारी = मैं करता हूँ। अंम्रित कथा = आत्मिक जीवन देने वाली सिफत सालाह। करन अधारी = कानों को आसरा देता हूँ।2। तजारी = त्यागता हूँ। द्रिढ़ु = (हृदय में) पक्का ठिकाना। दानु = दूसरों की सेवा। इसनानु = पवित्र आचरण। सुचारी = सदाचार, अच्छी जीवन मर्यादा।3। नानक = हे नानक! ततु = निचोड़, अस्लियत। जपि = जप के। उतारी = उतार के, पार करके।4। अर्थ: हे भाई! गुरू की हस्ती मानस जन्म का फल देने वाली है। मैं (गुरू के) दर्शनों से सदके जाता हूँ। गुरू के कोमल चरणों को मैं अपने मन का जिंद का आसरा बनाता हूँ।1। रहाउ। हे भाई! गुरू के शबद के द्वारा मैं अपने दिल में परमात्मा का ध्यान धरता हूँ, और अपनी जीभ से परमात्मा (के नाम) का जाप जपता हूँ।1। हे भाई! गुरू की संगति में (रह के) मैंने जनम-मरण का चक्कर समाप्त कर लिया है, और आत्मिक जीवन देने वाली सिफत सालाह कानों से सुन कर (इस को मैं अपने जीवन का) आसरा बना रहा हूँ।2। हे भाई! (गुरू की बरकति से) मैंने काम-क्रोध-लोभ-मोह (आदि) को त्याग दिया है। हृदय में प्रभू-नाम को पक्का करके, दूसरों की सेवा करनी, आचरण को पवित्र रखना- ये मैंने अपना सदाचार (जीवन-मर्यादा) बना लिया है।3। हे नानक! कह– (हे भाई! तू भी) ये अस्लियत अपने मन में बसा ले, और गुरू के माध्यम से परमात्मा का नाम जप के (अपने आप को संसार-समुंद्र से) पार लंघा ले।4।12।18। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |