श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 741 सूही महला ५ ॥ लोभि मोहि मगन अपराधी ॥ करणहार की सेव न साधी ॥१॥ पतित पावन प्रभ नाम तुमारे ॥ राखि लेहु मोहि निरगुनीआरे ॥१॥ रहाउ ॥ तूं दाता प्रभ अंतरजामी ॥ काची देह मानुख अभिमानी ॥२॥ सुआद बाद ईरख मद माइआ ॥ इन संगि लागि रतन जनमु गवाइआ ॥३॥ दुख भंजन जगजीवन हरि राइआ ॥ सगल तिआगि नानकु सरणाइआ ॥४॥१३॥१९॥ {पन्ना 741} पद्अर्थ: लोभि = लोभ में। मोहि = मोह में। मगन = डूबे हुए, मस्त। अपराधी = भूल करने वाले जीव। सेव = भक्ति।1। पतित पावन = विकारों में गिरे हुओं को पवित्र करने वाला। मोहि = मुझे।1। रहाउ। प्रभ = हे प्रभू! अंतरजामी = दिल की जानने वाला। काची देह = नाशवंत शरीर।2। बाद = झगड़े। ईरख = जलन, ईष्या। मद = अहंकार, नशा। संगि = साथ।3। दुख भंजन = हे दुखों के नाश करने वाले! तिआगि = त्याग के।4। अर्थ: हे प्रभू! तेरा नाम विकारियों को पवित्र करने वाला है। मुझे गुण-हीन को (अपना नाम दे के) विकारों से बचाए रख।1। रहाउ। हे प्रभू! हम भूल करने वाले जीव लोभ में, मोह में मस्त रहते हैं। तू हमें पैदा करने वाला है, हम तेरी सेवा-भक्ति नहीं करते।1। हे प्रभू! तू हमें सब दातें देने वाला है, हमारे दिल की जानने वाला है। पर, हम जीव इस नाशवंत शरीर का ही गुमान करते रहते हैं (और, तुझे याद नहीं करते)।2। हे प्रभू! (दुनिया के पदार्थों के) चस्के, झगड़े, ईष्या, माया का घमण्ड- हम जीव इनमें ही लग के कीमती मानस जन्म को गवा रहे हैं।3। हे दुखों के नाश करने वाले! हे जगत के जीवन! हे प्रभू पातशाह! और सारे (आसरे छोड़ के) नानक तेरी शरण आया है।4।13।19। सूही महला ५ ॥ पेखत चाखत कहीअत अंधा सुनीअत सुनीऐ नाही ॥ निकटि वसतु कउ जाणै दूरे पापी पाप कमाही ॥१॥ सो किछु करि जितु छुटहि परानी ॥ हरि हरि नामु जपि अम्रित बानी ॥१॥ रहाउ ॥ घोर महल सदा रंगि राता ॥ संगि तुम्हारै कछू न जाता ॥२॥ रखहि पोचारि माटी का भांडा ॥ अति कुचील मिलै जम डांडा ॥३॥ काम क्रोधि लोभि मोहि बाधा ॥ महा गरत महि निघरत जाता ॥४॥ नानक की अरदासि सुणीजै ॥ डूबत पाहन प्रभ मेरे लीजै ॥५॥१४॥२०॥ {पन्ना 741} पद्अर्थ: चाखत = (चक्ष्) देखना। पेखत चाखत = देखता चाखता। सुनीअत = सुनते हुए। निकटि = नजदीक। कमाही = कमाते हैं।1। जितु = जिस (काम) से। छुटहि = (विकारों से) बच सकें। परानी = हे प्राणी! अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाली।1। रहाउ। घोर = घोड़े। रंगि = प्रेम में। राता = मस्त। संगि = साथ।2। पोचारि = पोच पाच के, बाहर से बना सवार के। रखहि = तू रखता है। अति कुचील = बहुत ही गंदा। जम डांडा = जम का दण्ड।3। क्रोधि = क्रोध में। बाधा = बंधा हुआ। गरत = गड्ढा। निघरत जाता = धसता जाता है।4। पहन = पत्थर। प्रभ = हे प्रभू!।5। अर्थ: हे प्राणी! कोई वह काम कर जिसकी वजह से तू (विकारों से) बचा रह सके। सदा परमात्मा का नाम जपा कर। (प्रभू की सिफत सालाह की) बाणी आत्मिक जीवन देने वाली है।1। रहाउ। हे भाई! (परमात्मा हर वक्त मनुष्य के अंग-संग बसता है, पर मनुष्य उसको देखता नहीं। इस वास्ते, दुनिया के और सारे पदार्थ) देखते-चाखते हुए भी (आत्मिक जीवन की ओर से) अंधा ही कहा जा सकता है, (दुनिया के और राग नाद) सुनता हुआ भी (परमात्मा की) सिफत-सालाह नहीं सुन रहा (आत्मिक जीवन की तरफ से बहरा ही है)। नजदीक बस रहे (नाम-) पदार्थ को कहीं दूर समझता है। (इस कमी के कारण) विकारों में फंसे हुए मनुष्य विकार ही करते रहते हैं।1। हे प्राणी! तू सदा घोड़े-महल-माढ़ियों के प्यार में मस्त रहता है, (पर इनमें से) कोई भी चीज तेरे साथ नहीं जा सकती।2। हे प्राणी! तू इस मिट्टी के बर्तन (शरीर) को (बाहर से) बना-सँवार के रखता है; (पर अंदर सें विकारों से यह) बहुत गंदा हुआ पड़ा है। (इस तरह के जीवन वाले को तो) जमों द्वारा सजा मिलती है।3। हे प्राणी! तू काम-क्रोध में, लोभ में मोह में बंधा पड़ा है। विकारों के दल-दल में और भी फंसता जा रहा है।4। हे मेरे प्रभू! (अपने दास) नानक की आरजू सुन। हम डूब रहे पत्थरों को डूबने से बचा ले।5।14।20। सूही महला ५ ॥ जीवत मरै बुझै प्रभु सोइ ॥ तिसु जन करमि परापति होइ ॥१॥ सुणि साजन इउ दुतरु तरीऐ ॥ मिलि साधू हरि नामु उचरीऐ ॥१॥ रहाउ ॥ एक बिना दूजा नही जानै ॥ घट घट अंतरि पारब्रहमु पछानै ॥२॥ जो किछु करै सोई भल मानै ॥ आदि अंत की कीमति जानै ॥३॥ कहु नानक तिसु जन बलिहारी ॥ जा कै हिरदै वसहि मुरारी ॥४॥१५॥२१॥ {पन्ना 741} पद्अर्थ: जीवत = जीते हुए, दुनिया के काम काज करते हुए ही। मरै = (मोह की तरफ से) मरता है, मोह छोड़ देता है। सोइ = वह मनुष्य। करमि = बख्शिश से।1। साजन = हे सज्जन! इउ = इस तरीके से। दुतरु = दुस्तर, वह संसार जिससे पार होना बड़ा ही मुश्किल है। तरीअै = पार लांघा जाता है। मिलि = मिल के। साधू = गुरू।1। जानै = दिली सांझ डालता है। घट = शरीर। अंतरि = अंदर, में।2। भल = भला। आदि अंत की = उस परमात्मा की जो सृष्टि के आरम्भ से ही है और सृष्टि के आखिर में भी रहेगा। कीमति = कद्र।3। बलिहारी = सदके। कै हिरदै = के हृदय में। वसहि = तू बसता है। मुरारी = हे प्रभू! अर्थ: हे सज्जन! (मेरी विनती) सुन। संसार-समुंद्र से पार लांघना बहुत मुश्किल है, इससे सिर्फ इस तरीके से पार लांघ सकते हैं (कि) गुरू को मिल के परमात्मा का नाम सिमरा जाए।1। रहाउ। हे भाई! जो मनुष्य दुनिया के कार्य-व्यवहार करता हुआ ही (दुनिया का) मोह त्याग देता है, वह मनुष्य परमात्मा के साथ सांझ डाल लेता है। उस मनुष्य को (परमात्मा की) कृपा से (परमात्मा का मिलाप) प्राप्त हो जाता है।1। हे भाई! जो मनुष्य एक परमात्मा के बिना किसी और के साथ सांझ नहीं डालता, वह मनुष्य परमात्मा को हरेक शरीर में बसता पहचान लेता है।2। जो कुछ भी परमात्मा करता है जो मनुष्य हरेक उस काम को (दुनिया के वास्ते) भला मानता है, वह मनुष्य सदा ही कायम रहने वाले परमात्मा की कद्र समझ लेता है।3। हे नानक! कह–जिस मनुष्य के हृदय में सदा तू बसता है (जिसको तू सदा याद रखता है) उस मनुष्य से (मैं) कुर्बान जाता हूँ।4।15।21। सूही महला ५ ॥ गुरु परमेसरु करणैहारु ॥ सगल स्रिसटि कउ दे आधारु ॥१॥ गुर के चरण कमल मन धिआइ ॥ दूखु दरदु इसु तन ते जाइ ॥१॥ रहाउ ॥ भवजलि डूबत सतिगुरु काढै ॥ जनम जनम का टूटा गाढै ॥२॥ गुर की सेवा करहु दिनु राति ॥ सूख सहज मनि आवै सांति ॥३॥ सतिगुर की रेणु वडभागी पावै ॥ नानक गुर कउ सद बलि जावै ॥४॥१६॥२२॥ {पन्ना 741} पद्अर्थ: परमेसरु = परम ईश्वर, सबसे ऊँचा मालिक। करणैहारु = सब कुछ कर सकने वाला। सगल = सारी। कउ = को। दे = देता है। आधारु = आसरा।1। चरण कमल = कमल फूल जैसे कोमल चरण। मन = हे मन! ते = से। जाइ = चला जाता है।1। रहाउ। भवजलि = संसार समुंद्र में। काढै = निकाल लेता है। टूटा = (परमात्मा से) टूटा हुआ मनुष्य। गाढै = जोड़ लेता है, प्रभू के साथ जोड़ लेता है।2। सूख सहज = आत्मिक अडोलता के सुख। मनि = मन में। रेणु = चरण धूल। वडभागी = बड़े भाग्यों वाला मनुष्य। नानक = हे नानक! सद = सदा। बलि = सदके।4। अर्थ: हे (मेरे) मन! (सदा) गुरू के सुंदर कोमल चरणों का ध्यान धरा करो (जो मनुष्य ये उद्यम करता है उसके) इस शरीर के हरेक किस्म के दुख-कलेश दूर हो जाते हैं।1। रहाउ। हे मेरे मन! गुरू उस परमात्मा का रूप है जो सबसे बड़ा मालिक है जो सब कुछ कर सकने वाला है। गुरू सारी सृष्टि को (परमात्मा के नाम का) आसरा देता है।1। (हे मन!) गुरू संसार समुंद्र में डूबतों को बचा लेता है, अनेकों जन्मों से (परमात्मा से) टूटे हुए मनुष्य को (परमात्मा से) जोड़ देता है।2। हे भाई! दिन-रात गुरू की (बताई हुई) सेवा किया करो, (जो मनुष्य करता है उसके) मन में शांति पैदा हो जाती है, आत्मिक अडोलता के आनंद पैदा हो जाते हैं।3। हे नानक! कोई अति भाग्यशाली मनुष्य गुरू की चरण-धूल हासिल करता है, (फिर वह मनुष्य) गुरू से सदा सदके जाता है।4।16।22। सूही महला ५ ॥ गुर अपुने ऊपरि बलि जाईऐ ॥ आठ पहर हरि हरि जसु गाईऐ ॥१॥ सिमरउ सो प्रभु अपना सुआमी ॥ सगल घटा का अंतरजामी ॥१॥ रहाउ ॥ चरण कमल सिउ लागी प्रीति ॥ साची पूरन निरमल रीति ॥२॥ संत प्रसादि वसै मन माही ॥ जनम जनम के किलविख जाही ॥३॥ करि किरपा प्रभ दीन दइआला ॥ नानकु मागै संत रवाला ॥४॥१७॥२३॥ {पन्ना 741} पद्अर्थ: बलि जाईअै = कुर्बान होना चाहिए। गाईअै = गाना चाहिए। जसु = सिफत सालाह (का गीत)।1। सिमरउ = मैं सिमरता हूँ। सुआमी = मालिक। सगल = सारे। अंतरजामी = अंदर की जानने वाला।1। रहाउ। सिउ = साथ। साची = सदा कायम रहने वाली। पूरन = पूर्ण। रीति = जीवन जुगति।2। संत प्रसादि = गुरू की कृपा से। माही = में। किलविख = पाप। जाही = दूर हो जाते हैं।3। प्रभ = हे प्रभू! दीन = कंगाल। नानकु मागै = नानक माँगता है। रवाला = चरण धूल।4। अर्थ: हे भाई! (गुरू की कृपा से) मैं अपना वह मालिक प्रभू सिमरता हूँ, जो सब जीवों के दिल की जानने वाला है।1। रहाउ। हे भाई! अपने गुरू पर से (सदा) कुर्बान होना चाहिए (गुरू की) शरण पड़ कर अपने अंदर से स्वै-भाव मिटा देना चाहिए, (क्योंकि, गुरू की कृपा से ही) आठों पहर परमात्मा का सिफत सालाह का गीत गाया जा सकता है।1। हे भाई! (गुरू की कृपा से ही) परमात्मा के सुंदर चरणों से प्यार बनता है। (गुरू चरणों की प्रीति ही) अटल सम्पूर्ण और पवित्र जीवन-जुगति है।2। हे भाई! गुरू की कृपा से (परमात्मा जिस मनुष्य के) मन में आ बसता है (उस मनुष्य के) अनेकों जन्मों के पाप दूर हो जाते हैं।3। हे निमाणों पर दया करने वाले प्रभू! (अपने दास नानक पर) कृपा कर। (तेरा दास) नानक (तेरे दर से) गुरू के चरणों की धूल माँगता हूँ।4।17।23। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |