श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 742 सूही महला ५ ॥ दरसनु देखि जीवा गुर तेरा ॥ पूरन करमु होइ प्रभ मेरा ॥१॥ इह बेनंती सुणि प्रभ मेरे ॥ देहि नामु करि अपणे चेरे ॥१॥ रहाउ ॥ अपणी सरणि राखु प्रभ दाते ॥ गुर प्रसादि किनै विरलै जाते ॥२॥ सुनहु बिनउ प्रभ मेरे मीता ॥ चरण कमल वसहि मेरै चीता ॥३॥ नानकु एक करै अरदासि ॥ विसरु नाही पूरन गुणतासि ॥४॥१८॥२४॥ {पन्ना 742} पद्अर्थ: देखि = देख के। जीवा = जीऊँ, मुझे आत्मिक जीवन मिल जाता है। गुर = हे गुरू! करमु = बख्शिश। प्रभ मेरा = हे मेरे प्रभू!।1। प्रभ = हे प्रभू! करि = बना के। चेरे = सेवक।1। रहाउ। दाते = हे सब दातें देने वाले! गुर प्रसादि = गुरू की किरपा से। किनै विरलै = किसी मनुष्य ने। जाते = गहरी सांझ डाली है।2। बिनउ = विनती। मीता = हे मित्र! वसहि = बस जाना। मेरै चीता = मेरे चिक्त में।3। नानकु करै = नानक करता है। अरदासि = प्रार्थना। गुण तासि = हे गुणों के खजाने!।4। अर्थ: हे मेरे प्रभू (मेरी) ये आरजू सुन, (गुरू के द्वारा) मुझे अपना सेवक बना के (अपना) नाम बख्श।1। रहाउ। हे गुरू! तेरे दर्शन करके मुझे आत्मिक जीवन मिल जाता है। हे मेरे प्रभू! तेरी सम्पूर्ण कृपा हो (और मुझे गुरू मिल जाए)।1। हे सब दातें देने वाले प्रभू! मुझे अपनी शरण में रख। हे प्रभू! गुरू की किरपा से किसी विरले मनुष्य ने तेरे साथ गहरी सांझ डाली है।2। हे मेरे प्रभु (मेरी) यह प्रार्थना सुन, (मेहर कर! तुम्हारे) सुंदर चरण मेरे चित्त में बस पड़ें।3। हे मेरे मित्र प्रभू! सब गुणों के खजाने प्रभू! (तेरा सेवक) नानक (तेरे दर पे) एक अर्ज करता है (कृपा कर, मुझ नानक को कभी) ना भूल।4।18।24। सूही महला ५ ॥ मीतु साजनु सुत बंधप भाई ॥ जत कत पेखउ हरि संगि सहाई ॥१॥ जति मेरी पति मेरी धनु हरि नामु ॥ सूख सहज आनंद बिसराम ॥१॥ रहाउ ॥ पारब्रहमु जपि पहिरि सनाह ॥ कोटि आवध तिसु बेधत नाहि ॥२॥ हरि चरन सरण गड़ कोट हमारै ॥ कालु कंटकु जमु तिसु न बिदारै ॥३॥ नानक दास सदा बलिहारी ॥ सेवक संत राजा राम मुरारी ॥४॥१९॥२५॥ पद्अर्थ: सुत = पुत्र। बंधप = रिश्तेदार। भाई = भ्राता। जत कत = जिधर किधर, जहाँ कहाँ। पेखउ = देखता हूँ। संगि = साथ। सहाई = मददगार।1। जति = जाति। पति = इज्जत। बिसराम = शांति।1। रहाउ। जपि = जपा कर। पहिरि = पहने रख। सनाह = संजोअ, स्नाह। कोटि = करोड़ों। आवध = आयुद्ध, हथियार। तिसु = उस (संजोअ) को। बेधत = बेधते।2। गढ़ = किले। कोट = किले। हमारै = मेरे वास्ते। कंटकु = काँटा (दुखदाई)। बिदारै = नाश करता।3। राजा राम = हे प्रभू पातशाह! मुरारी = (मुरि+अरि) प्रभू।4। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम मेरी (उच्च) जाति है, मेरी इज्जत है, मेरा धन है। (इसकी वजह से मेरे अंदर) आनंद है, शांति है, आत्मिक अडोलता और सुख हैं।1। रहाउ। हे भाई! मैं जहाँ-कहाँ देखता हूँ, परमात्मा मेरे साथ मददगार है। परमात्मा ही मेरा मित्र है, सज्जन है, परमात्मा ही (मेरे वास्ते) पुत्र रिश्तेदार व भाई है।1। हे भाई! (सदा) परमात्मा (का नाम) जपा कर, (हरी नाम का) संजोअ (कवच) पहने रख। इस (संजोअ) को (कामादिक जैसे) करोड़ो हथियार (भी) नहीं बेध सकते।2। हे भाई! मेरे वास्ते (तो) परमात्मा के चरणों की शरण अनेकों किले हैं। इस (किले) को दुखद मौत (का डर) नाश नहीं कर सकता।3। हे नानक! (कह–) हे प्रभू-पातशाह! हे मुरारी! मैं तेरे सेवकों संतों से सदा सदके जाता हूँ (जिनकी संगति में तेरा नाम प्राप्त होता है)।4।19।25। सूही महला ५ ॥ गुण गोपाल प्रभ के नित गाहा ॥ अनद बिनोद मंगल सुख ताहा ॥१॥ चलु सखीए प्रभु रावण जाहा ॥ साध जना की चरणी पाहा ॥१॥ रहाउ ॥ करि बेनती जन धूरि बाछाहा ॥ जनम जनम के किलविख लाहां ॥२॥ मनु तनु प्राण जीउ अरपाहा ॥ हरि सिमरि सिमरि मानु मोहु कटाहां ॥३॥ दीन दइआल करहु उतसाहा ॥ नानक दास हरि सरणि समाहा ॥४॥२०॥२६॥ {पन्ना 742} पद्अर्थ: गाहा = गाएं। बिनोद = खुशी। ताहा = उन्हें।1। सखीऐ = हे सखी! रावण जाहा = सिमरने के लिए चलें। पाहा = पाएं।1। रहाउ। बाछाहा = मांगें। किलविख = पाप। लाहां = दूर कर लें।2। अरपाहा = भेटा कर दें। मानु = अहंकार। कटाहां = काट लें।3। उतसाहु = उत्साह। समाहा = लीन हो जाएं।4। अर्थ: हे सहेली! उठ, प्रभू का सिमरन करने चलें, संत जनों के चरणों में जा पड़ें।1। रहाउ। हे सहेली! गोपाल प्रभू के गुण सदा गाते रहें। (जो गाते हैं) उन्हें सुख-आनंद-चाव-खुशियां बनीं रहती हैं।1। हे सहेली! (प्रभू के आगे) विनती कर के (उससे) संतजनों की चरणधूल मांगें, (और अपने) अनेकों जन्मों के पाप दूर कर लें।2। हे सहेली! अपना मन-तन-जिंद-जान भेट कर दे। हर वक्त परमात्मा का नाम सिमर-सिमर के (अपने अंदर से) अहंकार और मोह दूर कर ले।3। हे नानक! (कह–) हे दीनों पर दया करने वाले प्रभू! (मेरे अंदर) उत्साह पैदा कर (कि) मैं तेरे दासों की शरण पड़ा रहूँ।4।20।26। सूही महला ५ ॥ बैकुंठ नगरु जहा संत वासा ॥ प्रभ चरण कमल रिद माहि निवासा ॥१॥ सुणि मन तन तुझु सुखु दिखलावउ ॥ हरि अनिक बिंजन तुझु भोग भुंचावउ ॥१॥ रहाउ ॥ अम्रित नामु भुंचु मन माही ॥ अचरज साद ता के बरने न जाही ॥२॥ लोभु मूआ त्रिसना बुझि थाकी ॥ पारब्रहम की सरणि जन ताकी ॥३॥ जनम जनम के भै मोह निवारे ॥ नानक दास प्रभ किरपा धारे ॥४॥२१॥२७॥ {पन्ना 742} पद्अर्थ: बैकुंठ = विष्णु का स्वर्ग। रिद = हृदय।1। दिखलावउ = मैं दिखाऊँ। बिंजन = स्वादिष्ट भोजन। भुंचावउ = मैं खिलाऊँ।1। रहाउ। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। भुंचु = खा। सदु = स्वाद।2। ताकी = देखी। बुझि थाकी = मिट के रह जाती है।3। भै = (शब्द ‘भउ’ का बहुवचन)। निवारे = दूर कर देता है।4। अर्थ: हे भाई! (मेरी बात) सुन, (आ) मैं (तेरे) मन को (तेरे) तन को आत्मिक आनंद दिखा दूँ। प्रभू का नाम (मानो) अनेकों स्वादिष्ट भोजन हैं, (आ, साध-संगत में) मैं तुझे वह स्वादिष्ट भोजन खिलाऊँ।1। रहाउ। हे भाई! जिस जगह (परमात्मा के) संत जन बसते हों, वही है (असल) बैकुंठ का शहर। (संत जनों की संगति में रह के) प्रभू के सोहणे चरण हृदय में आ बसते हैं।1। हे भाई! (साध-संगति में रह के) आत्मिक जीवन देने वाला हरी-नाम (-भोजन) अपने मन में खाया कर, इस भोजन के हैरान कर देने वाले स्वाद हैं, बयान नहीं किए जा सकते।2। हे भाई! जिन संतों ने (साध-संगति बैकुंठ में आ के) परमात्मा का आसरा लिया है (अनके अंदर से) लोभ समाप्त हो जाता है, तृष्णा की आग बुझ के खत्म हो जाती है।3। हे नानक! (कह– हे भाई!) प्रभू अपने दासों पर मेहर करता है, और, उनके अनेकों जन्मों के डर-मोह दूर कर देता है।4।21।27। सूही महला ५ ॥ अनिक बींग दास के परहरिआ ॥ करि किरपा प्रभि अपना करिआ ॥१॥ तुमहि छडाइ लीओ जनु अपना ॥ उरझि परिओ जालु जगु सुपना ॥१॥ रहाउ ॥ परबत दोख महा बिकराला ॥ खिन महि दूरि कीए दइआला ॥२॥ सोग रोग बिपति अति भारी ॥ दूरि भई जपि नामु मुरारी ॥३॥ द्रिसटि धारि लीनो लड़ि लाइ ॥ हरि चरण गहे नानक सरणाइ ॥४॥२२॥२८॥ {पन्ना 742} पद्अर्थ: बींग = टेढ़ापन, छल कपट, कमियां। परहरिआ = दूर कर दिए। करि = कर के। प्रभि = प्रभू ने। करिआ = बना लिया।1। तुमहि = तू खुद ही। जनु = सेवक। उरझि परिओ = उलझा पड़ा था।1। रहाउ। परबत दोख = पहाड़ जितने ऐब। बिकराला = डरावने।2। सोग = ग़म। जपि = जप के।3। द्रिसटि = (कृपा की) नजर। धारि = कर के। लड़ि = लड़ से। गहे = पकड़े।4। अर्थ: हे प्रभू! सपने जैसे जगत (के मोह) जाल (ने तेरे सेवक को चारों तरफ से) उलझा लिया है, पर तूने अपने सेवक को (उसमें से) स्वयं निकाल लिया।1। रहाउ। हे भाई! प्रभू ने अपने सेवक के अनेकों टेढ़-मेढ़ (छल कपट) दूर कर दिए, और कृपा करके उसको अपना बना लिया है।1। हे भाई! (शरण आए मनुष्य के) पहाड़ों जितने बड़े और भयानक ऐब दीनों पर दया करने वाले परमात्मा ने एक छिन में दूर कर दिए।2। हे भाई! (सेवक के) अनेकों ग़म और रोग बड़ी भारी मुसीबतें परमात्मा का नाम जपके दूर हो गई।3। हे नानक! (कह–हे भाई!) जिस मनुष्य ने परमात्मा के चरण पकड़ लिए, जो मनुष्य प्रभू की शरण आ पड़ा, परमात्मा ने मेहर की निगाह करके उसको अपने साथ लगा लिया।4।22।28। नोट: सारा शबद ‘भूत काल’ में है, इस का भाव ‘सदा वास्ते’ समझना है। अर्थ ‘वर्तमान काल’ में कर लेना है। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |