श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 743

सूही महला ५ ॥ दीनु छडाइ दुनी जो लाए ॥ दुही सराई खुनामी कहाए ॥१॥ जो तिसु भावै सो परवाणु ॥ आपणी कुदरति आपे जाणु ॥१॥ रहाउ ॥ सचा धरमु पुंनु भला कराए ॥ दीन कै तोसै दुनी न जाए ॥२॥ सरब निरंतरि एको जागै ॥ जितु जितु लाइआ तितु तितु को लागै ॥३॥ अगम अगोचरु सचु साहिबु मेरा ॥ नानकु बोलै बोलाइआ तेरा ॥४॥२३॥२९॥ {पन्ना 743}

पद्अर्थ: दीनु = धर्म, नाम धन। दुनी = दुनियावी। जो = जिस मनुष्य को। लाऐ = (परमात्मा) लगाता है। दुही सराई = दोनों लोकों में। खुनामी = गुनाहगार, अपराधी। कहाऐ = कहलवाता है।1।

तिसु = उस (परमात्मा) को। भावै = अच्छा लगता है। जाणु = जानने वाला।1। रहाउ।

सचा = सदा कायम रहने वाला। भला = भला काम। दीन कै तोसै = नाम धन इकट्ठे करने से। न जाऐ = नहीं बिगड़ता।2।

सरब निरंतरि = सबके अंदर एक रस (अंतरि = दूरी)। ऐको = एक परमात्मा ही। जितु = जिस तरफ। को = कोई।3।

अगम = अपहुँच। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञानेन्द्रियां) जिस तक ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। सचु = सदा स्थिर रहने वाला।4।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा अपनी रची सृष्टि के बारे में स्वयं ही सब कुछ जानने वाला है। जो कुछ परमात्मा को अच्छा लगता है, जीवों को वही कुछ सिर माथे मानना पड़ता है (वही कुछ जीव करते हैं)।1। रहाउ।

हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा का नाम-धन कमाने से हटा के दुनियावी धन की ओर लगा देता है, वह मनुष्य दोनों जहानों में (इस लोक में और परलोक में) गुनहगार कहलवाता है।1।

हे भाई! (जिस मनुष्य से परमात्मा) सदा-स्थिर रहने वाला (नाम-सिमरन) धर्म करवाता है, (नाम-सिमरन का) नेक भला काम करवाता है, नाम-धन इकट्ठा करते हुए उसकी ये दुनिया भी नहीं बिगड़ती।2।

हे भाई! (जीवों के भी क्या वश?) हरेक जीव उसी उसी काम में लगता है जिस जिस काम में परमात्मा लगाता है।3।

हे प्रभू! तू सदा कायम रहने वाला मेरा मालिक है, तू अपहुँच है, ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से तेरे तक पहुँचा नहीं जा सकता। (तेरा दास) नानक तेरे से प्रेरित हो के ही तेरा नाम उचार सकता है।4।23।29।

सूही महला ५ ॥ प्रातहकालि हरि नामु उचारी ॥ ईत ऊत की ओट सवारी ॥१॥ सदा सदा जपीऐ हरि नाम ॥ पूरन होवहि मन के काम ॥१॥ रहाउ ॥ प्रभु अबिनासी रैणि दिनु गाउ ॥ जीवत मरत निहचलु पावहि थाउ ॥२॥ सो साहु सेवि जितु तोटि न आवै ॥ खात खरचत सुखि अनदि विहावै ॥३॥ जगजीवन पुरखु साधसंगि पाइआ ॥ गुर प्रसादि नानक नामु धिआइआ ॥४॥२४॥३०॥ {पन्ना 743}

पद्अर्थ: कालि = समय में। प्रातह = प्रभात, सवेर। प्रातह काल = अमृत बेला। उचारी = उचारा कर। ईत ऊत की = इस लोक की परलोक की। ओट = आसरा। सवारी = सुंदर बना लेना।1।

जपीअै = जपना चाहिए। होवहि = हो जाते हैं। मन के काम = मन के कल्पित काम।1। रहाउ।

अबिनासी = नाश रहित। रैणि = रात। गाउ = गाया कर। जीवत मरत = दुनिया के कार्य व्यवहार करते हुए, निर्मोह रहने से। पावहि = तू प्राप्त कर लेगा।2।

साहु = शाह, नाम धन का मालिक। सेवि = शरण पड़ा रह। जितु = जिस (धन) में। तोटि = कमी। खात खरचत = बर्तते और बाँटते हुए। सुखि = सुख में। विहावै = उम्र बीतती है।3।

पुरखु = सर्व व्यापक प्रभू। संगि = संगति में। प्रसादि = कृपा से।4।

अर्थ: हे भाई! सदा ही परमात्मा का नाम सिमरते रहना चाहिए। (सिमरन की बरकति से) मन के चितवे हुए सारे काम सफल हो जाते हैं।1। रहाउ।

हे भाई! अमृत बेला में (उठ के) परमात्मा का नाम सिमरा कर, (इस तरह) इस लोक और परलोक के लिए सुंदर आसरा बनाते रहा कर।1।

हे भाई! रात-दिन अविनाशी प्रभू (की सिफत-सालाह के गीत) गाया कर। (इस तरह) दुनिया के कार्य व्यवहार करते हुए निर्मोह रह के तू (प्रभू-चरणों में) सदा कायम रहने वाली जगह प्राप्त कर लेगा।2।

हे भाई! नाम-धन के मालिक उस प्रभू की सेवा-भक्ति किया कर, (उससे ऐसा धन मिलता है) जिस धन में कभी घाटा नहीं पड़ता। उस धन को खुद इस्तेमाल करते हुए औरों में बाँटते हुए जिंदगी सुख-आनंद से बीतती है।3।

हे नानक! जिस मनुष्य ने साध-संगति में गुरू की कृपा से परमात्मा का नाम सिमरना शुरू कर दिया, उसने जगत के जीवन सर्व-व्यापक प्रभू का मिलाप हासिल कर लिया।4।24।30।

सूही महला ५ ॥ गुर पूरे जब भए दइआल ॥ दुख बिनसे पूरन भई घाल ॥१॥ पेखि पेखि जीवा दरसु तुम्हारा ॥ चरण कमल जाई बलिहारा ॥ तुझ बिनु ठाकुर कवनु हमारा ॥१॥ रहाउ ॥ साधसंगति सिउ प्रीति बणि आई ॥ पूरब करमि लिखत धुरि पाई ॥२॥ जपि हरि हरि नामु अचरजु परताप ॥ जालि न साकहि तीने ताप ॥३॥ निमख न बिसरहि हरि चरण तुम्हारे ॥ नानकु मागै दानु पिआरे ॥४॥२५॥३१॥ {पन्ना 743}

पद्अर्थ: दइआल = दयावान। बिनसे = नाश हो जाते हैं। पूरन = सफल। घाल = (सेवा भक्ति की) मेहनत।1।

पेखि = देख के। जीवा = मैं आत्मिक जीवन प्राप्त करता रहूँ। जाई = मैं जाऊँ। बलिहारा = सदके। ठाकुर = हे मालिक!।1। रहाउ।

सिउ = साथ। पूरबि करमि = पूबर्लि जन्मों के किए कर्मों के अनुसार। धुरि = धुर दरगाह से।2।

अचरजु = हैरान करने वाला। परताप = तेज। जालि न साकहि = जला नहीं सकेंगे। तीने ताप = आधि, ब्याधि, उपाधि ये तीन ताप।3।

निमख = आँख झपकने जितना समय। हरि = हे हरी! नानकु मागै = नानक माँगता है।4।

अर्थ: हे प्रभू! (मेहर कर) तेरे दर्शन सदा कर कर के मुझे आत्मिक जीवन मिलता रहे, मैं तेरे सुंदर चरणों से सदके होता रहूँ।1। रहाउ।

हे भाई! जब (किसी मनुष्य पर) पूरे सतिगुरू जी दयावान होते हैं (वह मनुष्य हरी-नाम सिमरता है, उसकी ये) मेहनत सफल हो जाती है, और उसके सारे दुख नाश हो जाते हैं।1।

हे भाई! पूर्बले जन्मों के किए कर्मों के अनुसार धुर दरगाह से जिस मनुष्य के लिखे लेख उघड़ते हैं, उस मनुष्य का प्यार गुरू की संगति से बन जाता है।2।

हे भाई! सदा परमात्मा का नाम जपा कर, ऐसा हैरान करने वाला आत्मिक तेज प्राप्त होता है कि (आधि-व्याधि-उपाधि, ये) तीनों ही ताप (आत्मिक जीवन को) जला नहीं सकेंगे।3।

हे हरी! हे प्यारे! (तेरे दर से तेरा दास) नानक (ये) दान माँगता है कि तेरे चरण (नानक को) आँख झपकने जितने समय के लिए भी ना भूलें।4।25।31।

सूही महला ५ ॥ से संजोग करहु मेरे पिआरे ॥ जितु रसना हरि नामु उचारे ॥१॥ सुणि बेनती प्रभ दीन दइआला ॥ साध गावहि गुण सदा रसाला ॥१॥ रहाउ ॥ जीवन रूपु सिमरणु प्रभ तेरा ॥ जिसु क्रिपा करहि बसहि तिसु नेरा ॥२॥ जन की भूख तेरा नामु अहारु ॥ तूं दाता प्रभ देवणहारु ॥३॥ राम रमत संतन सुखु माना ॥ नानक देवनहार सुजाना ॥४॥२६॥३२॥ {पन्ना 743}

पद्अर्थ: से = वह (बहुवचन)। संजोग = शुभ लगन। जितु = जिस (अच्छे वक्त) के कारण। रसना = जीभ।1।

प्रभ = हे प्रभू! गावहि = गाते हैं। रसाला = रस भरे।1। रहाउ।

बसहि = तू बसता है। नेरा = नजदीक, हृदय में।2।

आहारु = खुराक।3।

रमत = सिमरते हुए। सुजाना = समझदार।4।

अर्थ: हे दीनों पर दया करने वाले प्रभू! (मेरी) विनती सुन, (जैसे) संत जन सदा तेरे रस भरे गुण गाते रहते हैुं (वैसे ही मैं भी गाता रहूँ)।1। रहाउ।

हे मेरे प्यारे! (मेरे लिए) वह संयोग बना, जिससे (मेरी) जीभ तेरा नाम उचारती रहे।1।

हे प्रभू! तेरा नाम सिमरना (हम जीवों के लिए) आत्मिक जीवन के बराबर है। जिस मनुष्य पर तू कृपा करता है, उसके दिल में आ बसता है।2।

हे प्रभू! तेरे संत-जनों की (आत्मिक) भूख (दूर करने के लिए) तेरा नाम खुराक है। ये खुराक तू ही देता है, तू ही दे सकता है।3।

हे नानक! संत-जन उस परमात्मा का नाम सिमर के आत्मिक आनंद लेते रहते हैं, जो सब कुछ देने के समर्थ है और जो (हर पहलू से) समझदार है।4।26।32।

सूही महला ५ ॥ बहती जात कदे द्रिसटि न धारत ॥ मिथिआ मोह बंधहि नित पारच ॥१॥ माधवे भजु दिन नित रैणी ॥ जनमु पदारथु जीति हरि सरणी ॥१॥ रहाउ ॥ करत बिकार दोऊ कर झारत ॥ राम रतनु रिद तिलु नही धारत ॥२॥ भरण पोखण संगि अउध बिहाणी ॥ जै जगदीस की गति नही जाणी ॥३॥ सरणि समरथ अगोचर सुआमी ॥ उधरु नानक प्रभ अंतरजामी ॥४॥२७॥३३॥ {पन्ना 743}

पद्अर्थ: बहती जात = (उम्र की नदी) बहती जा रही है। द्रिसटि = निगाह, ध्यान। मिथिआ = नाशवंत। पारच = कपड़े, बँधन। मिथिआ मोह पारच = नाशवंत पदार्थों के मोह के बँधन। बंधहि = तू बाँधता है।1।

माधवे = (मा+धव = माया का पति) परमात्मा को। भजु = सिमरता रह। रैणी = रात। जीति = जीत ले।1। रहाउ।

दोऊ कर = दोनों हाथ। दोऊ कर झारत = दोनों हाथ झाड़ के, दोनों हाथ धो के, अगला पिछला सोचे बिना। रिद = हृदय में। तिलु = रक्ती भर समय के लिए भी।2।

भरण पोखण = पालन पोषण। संगि = साथ। अउध = उम्र। जै जगदीस = जगत के ईश (मालिक) की जै हो, परमात्मा की सिफत सालाह। गति = आत्मिक अवस्था, आत्मिक आनंद की अवस्था।3।

समरथ = हे सब ताकतों के मालिक! अगोचर = हे ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच से परे रहने वाले! उधरु = (मुझे विकारों से) उद्धार ले।4।

अर्थ: हे भाई! दिन-रात सदा माया के पति प्रभू का नाम जपा कर। प्रभू की शरण पड़ कर कीमती मानस जन्म का फायदा उठा ले।1।

हे भाई! (तेरी उम्र की नदी) बहती जा रही है, पर तू इधर ध्यान नहीं करता। तू नाशवंत पदार्थों के मोह के बँधन ही सदा बाँधता रहता है।1।

हे भाई! तू हानि-लाभ विचारे बिना ही विकार किए जा रहा है परमात्मा का रत्न (जैसा कीमती) नाम अपने दिल में तू एक पल के लिए भी नहीं टिकाता।2।

हे भाई! (अपना शरीर) पालने-पोसने में ही तेरी उम्र बीतती जा रही है। परमात्मा की सिफत सालाह के आनंद की अवस्था तू (अब तक) समझी ही नहीं।3।

हे नानक! (कह–) हे सब ताकतों के मालिक! ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच से परे रहने वाले हे मालिक! मैं तेरी शरण आया हूँ, (मुझे विकारों से) बचा ले, तू मेरा मालिक है, तू मेरे दिल की जानने वाला है।4।27।33।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh