श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 744 सूही महला ५ ॥ साधसंगि तरै भै सागरु ॥ हरि हरि नामु सिमरि रतनागरु ॥१॥ सिमरि सिमरि जीवा नाराइण ॥ दूख रोग सोग सभि बिनसे गुर पूरे मिलि पाप तजाइण ॥१॥ रहाउ ॥ जीवन पदवी हरि का नाउ ॥ मनु तनु निरमलु साचु सुआउ ॥२॥ आठ पहर पारब्रहमु धिआईऐ ॥ पूरबि लिखतु होइ ता पाईऐ ॥३॥ सरणि पए जपि दीन दइआला ॥ नानकु जाचै संत रवाला ॥४॥२८॥३४॥ {पन्ना 744} पद्अर्थ: साध संगि = गुरू की संगति में। तरै = पार लांघ जाता है। भै = (‘भउ’ का बहुवचन)। सागरु = (संसार) समुंद्र। सिमरि = सिमर के। रतनागरु = रत्नों की खान।1। जीवा = जीऊँ, आत्मिक जीवन हासिल कर रहा हूँ। सोग = शोक, ग़म। सभि = सारे। मिलि = मिल के। तजाइण = त्यागे जाते हैं।1। रहाउ। पदवी = दर्जा, प्यार। साचु = सदा स्थिर प्रभू (का मिलाप)। सुआउ = स्वार्थ, जिंदगी का निशाना।2। धिआईअै = सिमरना चाहिए। पूरबि = पूर्बले जनम में।3। जपि = जप के। नानक जाचै = नानक माँगता है। रवाला = चरण धूल।4। अर्थ: हे भाई! (गुरू की कृपा से) मैं परमात्मा का नाम सिमर सिमर के आत्मिक जीवन हासिल कर रहा हूँ। हे भाई! गुरू को मिल के सारे दुख रोग ग़म नाश हो जाते हैं, पाप तिआगे जाते हैं।1। रहाउ। हे भाई! गुरू की संगति में रत्नों की खान हरि नाम सिमर सिमर के मनुष्य डरों भरे संसार-समुंद्र से पार लांघ जाता है।1। हे भाई! परमात्मा का नाम (ही) आत्मिक जिंदगी का प्यार है। (नाम की बरकति से) मन पवित्र हो जाता है, शरीर पवित्र हो जाता है, (नाम सिमरते हुए) सदा-स्थिर प्रभू (का मिलाप ही) जीवन उद्देश्य बन जाता है।2। हे भाई! परमात्मा का नाम आठों पहर सिमरते रहना चाहिए, पर ये दाति तब ही मिलती है अगर पूर्बले जन्म में (माथे पर नाम सिमरन का) लेख लिखा हो।3। हे भाई! दीनों पर दया करने वाले प्रभू का नाम जप के जो मनुष्य उस प्रभू की शरण में पड़े रहते हैं, नानक उन संत-जनों के चरणों की धूड़ माँगता है।4।28।34। सूही महला ५ ॥ घर का काजु न जाणी रूड़ा ॥ झूठै धंधै रचिओ मूड़ा ॥१॥ जितु तूं लावहि तितु तितु लगना ॥ जा तूं देहि तेरा नाउ जपना ॥१॥ रहाउ ॥ हरि के दास हरि सेती राते ॥ राम रसाइणि अनदिनु माते ॥२॥ बाह पकरि प्रभि आपे काढे ॥ जनम जनम के टूटे गाढे ॥३॥ उधरु सुआमी प्रभ किरपा धारे ॥ नानक दास हरि सरणि दुआरे ॥४॥२९॥३५॥ {पन्ना 744} पद्अर्थ: घर का काजु = हृदय घर के काम आने वाला काम। रूढ़ा काजु = बढ़िया काम। धंधै = धंधे में। मूढ़ा = मूर्ख।1। जितु = जिस (काम) में। तितु तितु = उस उस (काम) में। देहि = देता है।1। रहाउ। सेती = से। राते = रंगे हुए। रसाइणि = रसायन में, रस के घर में, सब से श्रेष्ठ रस में। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। माते = मस्त।2। पकरि = पकड़ के। प्रभि = प्रभू ने। आपे = आप ही। गाढे = जोड़ लिए।3। उधरु = बचा लै। प्रभ = हे प्रभू! धारे = धार के, कर के। दुआरे = दर पर।4। अर्थ: हे प्रभू! जिस जिस काम में तू (हम जीवों को) लगाता है, उस उस काम में हम लगते हैं। जब तू (हमें अपना नाम) देता है, तब तेरा नाम जपते हैं।1। रहाउ। (हे प्रभू तेरी मेहर के बिना) ये मूर्ख झूठे धंधे में मस्त रहता है, वह उस सुन्दर काम को नहीं करता, जो इसके अपने हृदय-घर भले के काम आने वाले हैं।1। हे भाई! परमात्मा के सेवक परमात्मा के साथ ही रंगे रहते हैं, हर वक्त सब रसों से श्रेष्ठ हरी-नाम-रस में मस्त रहते हैं।2। हे भाई! प्रभू ने खुद ही (जिन मनुष्यों को) बाँह पकड़ के (झूठे धंधों में से) निकाल लिया, अनेकों जन्मों के (प्रभू से) विछुड़े हुओं को (उस प्रभू ने खुद ही अपने साथ) जोड़ लिया।3। हे दास नानक! (कह–) हे मालिक प्रभू! मेहर कर। (मुझे झूठे धंधों से) बचा ले, मैं तेरी शरण आया हूँ, मैं तेरे दर पे (आ गिरा हूँ)।4।29।35। सूही महला ५ ॥ संत प्रसादि निहचलु घरु पाइआ ॥ सरब सूख फिरि नही डुोलाइआ ॥१॥ गुरू धिआइ हरि चरन मनि चीन्हे ॥ ता ते करतै असथिरु कीन्हे ॥१॥ रहाउ ॥ गुण गावत अचुत अबिनासी ॥ ता ते काटी जम की फासी ॥२॥ करि किरपा लीने लड़ि लाए ॥ सदा अनदु नानक गुण गाए ॥३॥३०॥३६॥ {पन्ना 744} पद्अर्थ: संत प्रसादि = गुरू की कृपा से। निहचलु घरु = कभी ना डोलने वाला हृदय घर। डुोलाइआ = भटकना में डाल सकता है (अक्षर ‘ड’ के साथ दो मात्राएं हैं– ‘ो’ और ‘ु’। असल शब्द है ‘डोलाया’, यहाँ पढ़ना है ‘डुलाया’)।1। मनि = मन में। चीने = पहचान लिए। ता ते = इस के कारण। करतै = करतार ने। असथिरु = अडोल चिक्त।1। रहाउ। अचुत = (अच्युत) कभी ना गिरने वाले। फासी = फाही।2। करि = कर के। लड़ि = पल्ले से। गाऐ = गा के। नानक = हे नानक!।3। अर्थ: हे भाई! (जिन मनुष्यों ने) गुरू का ध्यान धर के परमात्मा के चरणों को (अपने) मन में (बसता) पहचान लिया, इस (परख) की बरकति से करतार ने (उनको) अडोल चिक्त बना दिया।1। रहाउ। हे भाई! (जिसने) गुरू की किरपा से कभी ना डोलने वाला हृदय-घर पा लिया, (हृदय की अडोलता प्राप्त कर ली) उसको सारे सुख प्राप्त हो गए, (वह मनुष्य कभी विकारों में) नहीं डोलता।1। हे भाई! अॅटल अबिनाशी प्रभू के गुण गाते हुए गुण-गान की बरकति से जमों की फाही कट जाती है।2। हे नानक! मेहर कर के जिन्हें प्रभू अपने पल्ले से लगा लेता है, वह मनुष्य प्रभू के गुण गा के सदा के लिए आत्मिक आनंद पाते हैं।3।30।36। सूही महला ५ ॥ अम्रित बचन साध की बाणी ॥ जो जो जपै तिस की गति होवै हरि हरि नामु नित रसन बखानी ॥१॥ रहाउ ॥ कली काल के मिटे कलेसा ॥ एको नामु मन महि परवेसा ॥१॥ साधू धूरि मुखि मसतकि लाई ॥ नानक उधरे हरि गुर सरणाई ॥२॥३१॥३७॥ {पन्ना 744} पद्अर्थ: अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाले। साध = गुरू। जो जो = जो जो मनुष्य।गति = उच्च आत्मिक अवस्था। रसन = जीभ से। बखानी = उचारता है।1। रहाउ। तिस की: ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है। कली = झगड़े, कलेश। काल = जीवन समय। कली काल = कलेशों भरा जीवन का समय। परवेसा = दखल।2। धूरि = पैरों की ख़ाक। मुखि = मुंह पर। मसतकि = माथे पर। उधरे = बच गए।2। अर्थ: हे भाई! गुरू की उचारी हुई बाणी आत्मिक जीवन देने वाले बचन हैं। जो जो मनुष्य (इस बाणी को) जपता है, उसकी उच्च आत्मिक अवस्था बन जाती है, वह मनुष्य सदा अपनी जीभ से परमात्मा का नाम उचारता रहता है।1। हे भाई! (गुरबाणी की बरकति से) कलेशों-भरे जीवन-काल के सारे कलेश मिट जाते हैं, (क्योंकि बाणी के सदका) एक हरी-नाम ही मन में टिका रहता है।1। हे नानक! गुरू के चरणों की धूल (जिन मनुष्यों ने अपने) मुँह पर माथे पर लगा ली, वह मनुष्य गुरू की शरण पड़ के (झगड़े-कलेशों से) बच गए।2।31।37। सूही महला ५ घरु ३ ॥ गोबिंदा गुण गाउ दइआला ॥ दरसनु देहु पूरन किरपाला ॥ रहाउ ॥ करि किरपा तुम ही प्रतिपाला ॥ जीउ पिंडु सभु तुमरा माला ॥१॥ अम्रित नामु चलै जपि नाला ॥ नानकु जाचै संत रवाला ॥२॥३२॥३८॥ {पन्ना 744} पद्अर्थ: गोबिंद = हे गोबिंद! दइआला = हे दयालु! किरपाला = हे कृपालु! गाउ = मैं गाता रहूँ। रहाउ। करि = कर के। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। माला = माल, राशि पूँजी।1। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। जपि = जपा कर। नानकु जाचै = नानक माँगता है। संत रवाला = गुरू के चरणों की धूड़।2। अर्थ: हे गोविंद! हे दयालु! हे कृपालु! (मुझे अपने) दर्शन दे, मैं (सदा तेरे) गुण गाता रहूँ। रहाउ। हे गोबिंद! तू ही किरपा कर के (हम जीवों की) पालना करता है। ये जिंद ये शरीर सब कुछ तेरी ही दी हुई राशि-पूँजी है।1। हे भाई! आत्मिक जीवन देने वाला हरी-नाम (सदा) जपा कर (यही यहाँ से जीवों के) साथ जाता है। नानक (भी) गुरू के चरणों की धूल माँगता है। (जिसकी बरकति से हरि-नाम प्राप्त होता है)।2।32।38। सूही महला ५ ॥ तिसु बिनु दूजा अवरु न कोई ॥ आपे थमै सचा सोई ॥१॥ हरि हरि नामु मेरा आधारु ॥ करण कारण समरथु अपारु ॥१॥ रहाउ ॥ सभ रोग मिटावे नवा निरोआ ॥ नानक रखा आपे होआ ॥२॥३३॥३९॥ {पन्ना 744} पद्अर्थ: थंमै = सहारा देता है। आपे = आप ही। सचा = सदा कायम रहने वाला। सोई = वह (प्रभू) ही।1। आधारु = आसरा। करण कारण = जगत का मूल। समरथु = सब ताकतों वाला। अपारु = बेअंत।1। रहाउ। निरोआ = नि-रोग, रोग रहित। रखा = रक्षा करने वाला, रखवाला।2। अर्थ: हे भाई! जो परमात्मा सारे जगत का मूल है, जो सब ताकतों का मालिक है, जिसकी हस्ती का परला छोर तलाशना नामुमकिन है, उसका नाम मेरा आसरा है।1। रहाउ। हे भाई! वह सदा कायम रहने वाला परमात्मा खुद ही (हरेक जीव को) सहारा देता है, उसके बिना और कोई नहीं (जो विकारों-रोगों से बचने के लिए सहारा दे सके)।1। हे नानक! जिस मनुष्य का रखवाला प्रभू स्वयं बन जाता है, उसके वह सारे रोग मिटा देता है, उसको नया-निरोया निरोग कर देता है।2।33।39। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |