श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सूही महला ५ ॥ दरसन कउ लोचै सभु कोई ॥ पूरै भागि परापति होई ॥ रहाउ ॥ सिआम सुंदर तजि नीद किउ आई ॥ महा मोहनी दूता लाई ॥१॥ प्रेम बिछोहा करत कसाई ॥ निरदै जंतु तिसु दइआ न पाई ॥२॥ अनिक जनम बीतीअन भरमाई ॥ घरि वासु न देवै दुतर माई ॥३॥ दिनु रैनि अपना कीआ पाई ॥ किसु दोसु न दीजै किरतु भवाई ॥४॥ सुणि साजन संत जन भाई ॥ चरण सरण नानक गति पाई ॥५॥३४॥४०॥ {पन्ना 745}

पद्अर्थ: कउ = को, के लिए। सभु कोई = हरेक जीव। भागि = किस्मत से।1। रहाउ।

सिआम = साँवले रंग वाला। सिआम सुंदर = सुंदर प्रभू! तजि = बिसार के। महा मोहनी = बड़ी मन को मोह लेने वाली माया। दूता = दूतों, कामादिक वैरियों ने।1।

प्रेम बिछोहा = प्रेम का ना होना। बिछोहा = बिछोड़ा। कसाई = कसक, खीच। निरदे = निर्दयी, जालिम।2।

बीतीअन = बीत गए हैं। भरमाई = भटकते हुए। घरि = हृदय घर में। दुतरु = दुष्तर, जिसको पार लांघना मुश्किल हो। माई = माया।3।

रैनि = रात। पाई = मैं पाता हूँ। भवाई = चक्करों में डालती है। किरतु = पिछले किए कर्मों के संस्कारों का समूह।4।

गति = उच्च आत्मिक अवस्था।5।

अर्थ: हे भाई! हरेक जीव (चाहे) परमात्मा के दर्शनों की चाह रखता हो, पर (उसका मिलाप) बड़ी किस्मत के साथ ही मिलता है।1। रहाउ।

(हाय!) मुझे क्यों गफ़लत की नींद आ गई? मैंने क्यों सुंदर प्रभू को भुला दिया? (हाय!) इन कामादिक वैरियों ने मुझे ये बड़ी मन को मोहनी वाली माया चिपका दी।1।

प्रेम की विछोह (मेरे अंदर) कसाई-पन कर रही है, ये विछोड़ा (जैसे) एक निर्दयी जीव है जिसके अंदर रक्ती भर भी दया नहीं है।2।

ये दुष्वार माया हृदय-घर में (मेरे मन को) टिकने नहीं देती, भटकते-भटकते अनेकों ही जन्म बीत गए।3।

पर किसी को भी दोष नहीं दिया जा सकता, पिछले जन्मों का अपना ही किया भटकना में डाल रहा है, मैं दिन-रात अपने कमाए का फल भोग रहा हूँ।4।

हे नानक! (कह–) हे सज्जनो! हे भाईयो! हे संत जनो! सुनो। परमात्मा के सुंदर चरणों की शरण पड़ कर ही उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त हो सकती है।5।34।40।

रागु सूही महला ५ घरु ४    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ भली सुहावी छापरी जा महि गुन गाए ॥ कित ही कामि न धउलहर जितु हरि बिसराए ॥१॥ रहाउ ॥ अनदु गरीबी साधसंगि जितु प्रभ चिति आए ॥ जलि जाउ एहु बडपना माइआ लपटाए ॥१॥ पीसनु पीसि ओढि कामरी सुखु मनु संतोखाए ॥ ऐसो राजु न कितै काजि जितु नह त्रिपताए ॥२॥ नगन फिरत रंगि एक कै ओहु सोभा पाए ॥ पाट पट्मबर बिरथिआ जिह रचि लोभाए ॥३॥ सभु किछु तुम्हरै हाथि प्रभ आपि करे कराए ॥ सासि सासि सिमरत रहा नानक दानु पाए ॥४॥१॥४१॥ {पन्ना 745}

पद्अर्थ: भली = अच्छी। सुहावी = सुंदर, सुख देने वाली। छापरी = छपड़ी, कुल्ली। जा महि = जिस (कुल्ली) में। कित ही कामि = किसी ही काम में। धउलहर = पक्के महल।1। रहाउ।

कित ही: ‘कितु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ही’ के कारण हटा दी गई है।

संगि = संगति में। चिति = चिक्त में। जलि जाउ = जल जाए। बडपना = बड़े होने का मान।1।

पीसनु = चक्की। पीसि = पीस के। ओढि = पहन के। त्रिपताऐ = अघाता।2।

कै रंगि = के प्रेम में। पटंबर = पट के अंबर, रेश्मी कपड़े। रचि = मस्त हो के।3।

हाथि = हाथ में। प्रभ = हे प्रभू! सासि सासि = हरेक सांस के साथ। रहा = रहूँ।4।

अर्थ: हे भाई! वह छपरी ही अच्छी है जिस में (रहने वाला मनुष्य) प्रभू के गुण गाता रहता है। (पर) वह पक्के महल किसी काम के नहीं, जिन में (बसने वाला मनुष्य) परमात्मा को भुला देता है।1। रहाउ।

हे भाई! साध-संगति में गरीबी (सहते हुए भी) आनंद है क्योंकि उस (साध-संगति) में परमात्मा चिक्त में बसा रहता है। ऐसे बड़प्पन को आग लगे (जिसके कारण मनुष्य) माया से ही चिपका रहे।1।

(गरीबी में) चक्की पीस के, कंबली पहन के आनंद (प्राप्त रहता है, क्योंकि) मन को संतोष मिला रहता है। पर, हे भाई! ऐसा राज किसी काम का नहीं जिस में (मनुष्य माया से कभी) तृप्त ही ना हो।2।

हे भाई! जो मनुष्य एक परमात्मा के प्रेम में नंगा भी चला फिरता है, वह शोभा पाता है, पर (ऐसे) रेशमी कपड़े पहनने व्यर्थ हैं जिन में मस्त हो के मनुष्य (माया के अनेकों ही) लोभ करता रहता है।3।

(हे भाई! जीवों को क्या दोष? प्रभू) खुद ही सब कुछ करता है (जीवों से) करवाता है। हे नानक! (कह–) हे प्रभू! सब कुछ तेरे हाथ में है (मेहर कर, तेरा दास तेरे दर से ये) दान हासिल कर ले कि मैं हरेक सांस के साथ तुझे सिमरता रहूँ।4।1।41।

सूही महला ५ ॥ हरि का संतु परान धन तिस का पनिहारा ॥ भाई मीत सुत सगल ते जीअ हूं ते पिआरा ॥१॥ रहाउ ॥ केसा का करि बीजना संत चउरु ढुलावउ ॥ सीसु निहारउ चरण तलि धूरि मुखि लावउ ॥१॥ मिसट बचन बेनती करउ दीन की निआई ॥ तजि अभिमानु सरणी परउ हरि गुण निधि पाई ॥२॥ अवलोकन पुनह पुनह करउ जन का दरसारु ॥ अम्रित बचन मन महि सिंचउ बंदउ बार बार ॥३॥ चितवउ मनि आसा करउ जन का संगु मागउ ॥ नानक कउ प्रभ दइआ करि दास चरणी लागउ ॥४॥२॥४२॥ {पन्ना 745}

पद्अर्थ: परान = प्राण। पनिहारा = पानी भरने वाला। सुत = पुत्र। सगल ते = सभी से। जीअ हूं ते = जिंद से भी।1।

तिस का: ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है।

करि = बना के। बीजना = व्यजन, पंखा। ढुलावउ = ढुलाऊँ। निहारउ = निहराऊँ, नीचा करूँ। चरण तलि = चरणों के नीचे। मुखि = मुंह पर। लावउ = लगाऊँ।1।

मिसट = मीठे। करउ = करूँ। निआई = की तरह। तजि = छोड़ के। परउ = पड़ूँ, मैं पड़ा रहूँ। गुण निधि = गुणों का खजाना। पाई = प्राप्त करूँ।2।

अवलोकन = दर्शन। पुनह पुनह = बार बार। सिंचउ = मैं सींचता रहूँ। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। बंदउ = वंदना करूँ। बार बार = बारंबार।3।

चितवउ = चितवता रहूँ। मनि = मन में। संगु = साथ। मागउ = मैं मांगता हूँ। लागउ = मैं लगा रहूँ।4।

अर्थ: जो मनुष्य प्रभू की भक्ति करने वाला है (अगर प्रभू की मेहर हो, तो मैं) अपने प्राण अपना धन उस संत के हवाले कर दूँ, मैं उसका पानी भरने वाला बना रहूँ। भाई, मित्र, पुत्रों से जिंद से भी, मुझे वह प्यारा लगे।1। रहाउ।

(हे भाई! अगर प्रभू मेहर करे तो) मैं अपने केसों का पंखा बना के प्रभू के संत को चौर झुलाता रहूँ, मैं संत के वचनों पर अपना सिर निवाए रखूँ, उसके चरणों की धूड़ ले के मैं अपने माथे पर लगाता रहूँ।1।

(हे भाई! यदि प्रभू दया करे तो) मैं निमाणों की तरह (संत के आगे) मीठे बोलों से विनती करता रहूँ, अहंकार त्याग के उसके चरणों में बैठा रहूँ, और, संत से गुणों के खजाने परमात्मा का मिलाप हासिल करूँ।2।

(हे भाई! प्रभू कृपा करे) मैं उसके सेवक को बार-बार निहारता रहूँ। आत्मिक जीवन देने वाले उस संत के बचनों के जल से मैं अपने मन को सींचता रहूँ, और बार-बार उसको नमस्कार करता रहूँ।3।

हे प्रभू! नानक पवर मेहर कर, मैं तेरे दास के चरणों में लगा रहूँ, मैं हर वक्त यही चितवता रहूँ, मैं अपने मन में यही अरदास करता रहूँ, मैं तुझसे तेरे सेवक का साथ माँगता रहूँ।4।2।42।

सूही महला ५ ॥ जिनि मोहे ब्रहमंड खंड ताहू महि पाउ ॥ राखि लेहु इहु बिखई जीउ देहु अपुना नाउ ॥१॥ रहाउ ॥ जा ते नाही को सुखी ता कै पाछै जाउ ॥ छोडि जाहि जो सगल कउ फिरि फिरि लपटाउ ॥१॥ करहु क्रिपा करुणापते तेरे हरि गुण गाउ ॥ नानक की प्रभ बेनती साधसंगि समाउ ॥२॥३॥४३॥ {पन्ना 745}

पद्अर्थ: जिनि = जिस (माया) ने। मोहे = मोह लिए हैं। ब्रहमंड = सारी सृष्टि। खंड = सारे देश। ता हू महि = उसी में ही। पाउ = पाऊँ, मैं पा रहा हूँ। बिखई = विकारी।1। रहाउ।

जा ते = जिस (माया) से। जाउ = मैं जाता हूँ। कउ = को। लपटाउ = लिपटूँ।1।

करुणा = तरस। पति = मालिक। पते = हे मालिक! करुणापते = हे तरस के मालिक! गाउ = गाऊँ। समाउ = मैं लीन रहूँ।2।

अर्थ: हे प्रभू! जिस (माया) ने सारी सृष्टि के सारे देश अपने प्यार में फसाए हुए हैं, उसी (माया) के वश में मैं भी पड़ा हुआ हूँ। हे प्रभू! मुझे अपना नाम बख्श, और मुझे इस विकारी जीव को (माया के चुंगल से) बचा ले।1। रहाउ।

हे प्रभू! मैं भी उस (माया) के पीछे (बार-बार) जाता हूँ जिससे कभी भी कोई भी सुखी नहीं हुआ। मैं बार-बार (उन पदार्थों से) चिपकता हूँ, जो (आखिर) सभी को छोड़ जाते हैं।1।

हे तरस के मालिक! हे हरी! (मेरे पर) मेहर कर, मैं तेरे गुण गाता रहूँ। हे प्रभू! (तेरे सेवक) नानक की (तेरे आगे यही) विनती है कि मैं साध-संगति में टिका रहूँ।2।3।43।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh