श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रागु सूही महला ५ घरु ५ पड़ताल    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ प्रीति प्रीति गुरीआ मोहन लालना ॥ जपि मन गोबिंद एकै अवरु नही को लेखै संत लागु मनहि छाडु दुबिधा की कुरीआ ॥१॥ रहाउ ॥ निरगुन हरीआ सरगुन धरीआ अनिक कोठरीआ भिंन भिंन भिंन भिन करीआ ॥ विचि मन कोटवरीआ ॥ निज मंदरि पिरीआ ॥ तहा आनद करीआ ॥ नह मरीआ नह जरीआ ॥१॥ किरतनि जुरीआ बहु बिधि फिरीआ पर कउ हिरीआ ॥ बिखना घिरीआ ॥ अब साधू संगि परीआ ॥ हरि दुआरै खरीआ ॥ दरसनु करीआ ॥ नानक गुर मिरीआ ॥ बहुरि न फिरीआ ॥२॥१॥४४॥ {पन्ना 746}

पद्अर्थ: प्रीति प्रीति = प्रीतों में प्रीति। गुरीआ = बड़ी। मन = हे मन! लेखै = लेखे में, परवान। अवरु = कोई और (उक्तम)। मनहि = मन में से। दुबिधा = डांवा डोल हालत। कुरीआ = पगडंडी, रास्ता।1। रहाउ।

निरगुन = माया के तीन गुणों से निर्लिप। हरीआ = परमात्मा। सरगुन धरीआ = माया के तीन गुणों वाला स्वरूप धारा। भिंन = अलग। कोटवरीआ = कोतवाल। निज मंदरि = अपने मंदिर में। जरीआ = बुढ़ापा।1।

किरतनि = इस किए हुए जगत में, रचे हुए संसार (के मोह) में। जुरीआ = जुड़ा हुआ। पर कउ = पराए (धन) को। हिरीआ = देखता है। बिखना = विषियों से। संगि = संगति में। परीआ = आ पड़ा है। दुआरै = दर पे। गुर मिरीआ = गुरू को मिल के। बहुरि = दोबारा।2।

अर्थ: हे भाई! (दुनिया की) प्रीतों से बड़ी प्रीति मन को मोहने वाले प्रभू की है। हे मन! हे मन! सिर्फ उस प्रभू का नाम जपा कर। और कोई उद्यम उसकी दरगाह में परवान नहीं होता। हे भाई! संतों के चरणों में लगा रह, और अपने मन में से डाँवा-डोल रहने वाली दशा की पगडंडी दूर कर दे।1। रहाउ।

हे भाई! निर्लिप प्रभू ने त्रैगुणी संसार बनाया, इसमें ये अनेकों (शरीर) रूपी कोठरियां उसने अलग-अलग (किस्म की) बना दीं। (हरेक शरीर-कोठरी) में मन को कोतवाल बना दिया। प्यारा प्रभू (हरेक शरीर-कोठरी में) अपने मन्दिर में रहता है, और वहाँ आनंद लेता है। उस प्रभू को ना मौत आती है, ना ही बुढ़ापा उसके नजदीक फटकता है।1।

हे भाई! जीव प्रभू की रची रचना में ही जुड़ा रहता है, कई तरीकों से भटकता फिरता है, पराए (धन को, रूप को) ताकता फिरता है, विषौ-विकारों में घिरा रहता है।

इस मानस जनम में जब जीव गुरू की संगति में पहुँचता है, तब प्रभू के दर पर आ खड़ा होता है, (प्रभू के) दर्शन करता है। हे नानक! (जो भी मनुष्य) गुरू को मिलता है, वह दोबारा जन्म-मरण के चक्कर में नहीं भटकता।2।1।44।

सूही महला ५ ॥ रासि मंडलु कीनो आखारा ॥ सगलो साजि रखिओ पासारा ॥१॥ रहाउ ॥ बहु बिधि रूप रंग आपारा ॥ पेखै खुसी भोग नही हारा ॥ सभि रस लैत बसत निरारा ॥१॥ बरनु चिहनु नाही मुखु न मासारा ॥ कहनु न जाई खेलु तुहारा ॥ नानक रेण संत चरनारा ॥२॥२॥४५॥ {पन्ना 746}

पद्अर्थ: मंडलु = मंडूआ। अखारा = जगत अखाड़ा। सगलो पासारा = सारा जगत पसारा। साज = सृजना करके।1। रहाउ।

बहु बिधि = कई किस्मों के। आपारा = बेअंत। पेखै = देखता है। हारा = थकता। सभि = सारे। बसत = बसता है। निरारा = निराला, अलग, निर्लिप।1।

बरनु = रंग। चिहनु = निशान। मासारा = दाढ़ी। रेण = धूल।2।

अर्थ: हे भाई! ये सारा जगत-पसारा परमात्मा ने खुद बना रखा है। ये (जैसे) उसने (रास डालने के लिए) अखाड़ा तैयार किया है, रासों के लिए मंडूआ बना दिया है।1। रहाउ।

हे भाई! (इस जगत-अखाड़े में) कई किस्मों के बेअंत रूप हैं रंग हैं (परमात्मा खुद इसे) खुशी से देखता है, (पदार्थों के) भोग (भोगता है, पर भोगते हुए) थकता नहीं। सारे रसों के आनंद लेता हुआ भी वह प्रभू खुद निर्लिप रहता है।1।

हे प्रभू! तेरा रचे हुए जगत-खेल को बयान नहीं किया जा सकता। तेरा ना कोई रंग है, ना कोई निशान है, ना तेरा कोई मुँह है, ना कोई दाढ़ी है।

हे नानक! (कह– हे प्रभू! मैं तेरे दर से तेरे) संत जनों के चरणों की धूल माँगता हूँ।2।2।45।

सूही महला ५ ॥ तउ मै आइआ सरनी आइआ ॥ भरोसै आइआ किरपा आइआ ॥ जिउ भावै तिउ राखहु सुआमी मारगु गुरहि पठाइआ ॥१॥ रहाउ ॥ महा दुतरु माइआ ॥ जैसे पवनु झुलाइआ ॥१॥ सुनि सुनि ही डराइआ ॥ कररो ध्रमराइआ ॥२॥ ग्रिह अंध कूपाइआ ॥ पावकु सगराइआ ॥३॥ गही ओट साधाइआ ॥ नानक हरि धिआइआ ॥ अब मै पूरा पाइआ ॥४॥३॥४६॥ {पन्ना 746}

पद्अर्थ: तउ सरनी = तेरी शरण। भरोसै = भरोसे से। सुआमी = हे स्वामी! मारगु = रास्ता। गुरहि = गुरू ने। पठाइआ = भेजा है।1। रहाउ।

दुतरु = जिस को तैरना मुश्किल है। झुलाइआ = हिलोरे देती है।1।

सुनि = सुन के। कररो = करड़ा, सख्त।2।

ग्रिह = घर, संसार। कूप = कूआँ। पावकु = (तृष्णा की) आग। सगराइआ = सारा।3।

गही = पकड़ी। साधइआ = गुरू (की)। पूरा = पूरन प्रभू।4।

अर्थ: हे प्रभू! मैं तेरी शरण आया हूँ, इस भरोसे से आया हूँ कि तू कृपा करेगा। सो, हे मालिक प्रभू! जैसे तुझे अच्छा लगे, मेरी रक्षा कर। (मुझे तेरे दर पे) गुरू ने भेजा है, (मुझे तेरे दर का) रास्ता गुरू ने (दिखाया है)।1। रहाउ।

हे प्रभू! जैसे (तेज) हवा धक्के मारती है, वैसे ही माया (की लहरें धक्के मारती हैं) (तेरी रची हुई) माया (एक बड़ा समुंद्र है जिससे) पार लांघना बहुत मुश्किल है।1।

हे प्रभू! मैं तो ये सुन-सुन के ही डर रहा हूँ कि धर्मराज बड़ा कठोर (हाकिम) है।2।

हे प्रभू! ये संसार एक अंधा कूआँ है, इसमें सारी (तृष्णा की) आग ही आग है।

हे नानक (कह– हे प्रभू! जब से) मैंने गुरू का आसरा लिया है, मैं परमात्मा का नाम सिमर रहा हूँ, और, मुझे पूर्ण प्रभू मिल गया है।4।3।46।

रागु सूही महला ५ घरु ६    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सतिगुर पासि बेनंतीआ मिलै नामु आधारा ॥ तुठा सचा पातिसाहु तापु गइआ संसारा ॥१॥ भगता की टेक तूं संता की ओट तूं सचा सिरजनहारा ॥१॥ रहाउ ॥ सचु तेरी सामगरी सचु तेरा दरबारा ॥ सचु तेरे खाजीनिआ सचु तेरा पासारा ॥२॥ तेरा रूपु अगमु है अनूपु तेरा दरसारा ॥ हउ कुरबाणी तेरिआ सेवका जिन्ह हरि नामु पिआरा ॥३॥ सभे इछा पूरीआ जा पाइआ अगम अपारा ॥ गुरु नानकु मिलिआ पारब्रहमु तेरिआ चरणा कउ बलिहारा ॥४॥१॥४७॥ {पन्ना 746}

पद्अर्थ: आधारा = (जिंदगी का) आसरा। तुठा = प्रसन्न हुआ। सचा = सदा स्थिर रहने वाला। तापु = संसार वाला ताप, माया के मोह का ताप।1।

टेक = सहारा। ओट = आसरा। सिरजनहारा = पैदा करने वाला।1। रहाउ।

सचु = सदा स्थिर। सामगरी = सामान, पदार्थ। खाजीनिआ = खजाने। पासारा = जगत खिलारा।2।

अगंमु = अगम्य, अपहुँच। अनूपु = बेमिसाल, अद्वितीय। दरसारा = दर्शन,नजारा। हउ = मैं।3।

अगम = अपहुँच। अपारा = बेअंत। कउ = को, से।4।

अर्थ: हे सदा कायम रहने वाले सृजनहार! तू (तेरा नाम) तेरे भक्तों का सहारा है, तेरा नाम तेरे संतों का आसरा है।1। रहाउ।

हे भाई! मैं तो गुरू के पास ही (सदा) आरजू करता हूँ कि मुझे परमात्मा का नाम मिल जाए, (ये नाम ही मेरी जिंदगी का) सहारा (है)। हे भाई! सदा कायम रहने वाला प्रभू-पातशाह जिस मनुष्य पर दयावान होता है (उसको उसका नाम मिलता है, और) उसका माया के मोह वाला ताप दूर हो जाता है।1।

हे प्रभू! तेरा दरबार सदा कायम रहने वाला है, तेरे खजाने सदा भरपूर रहने वाले हैं, (तेरे खजानों में) तेरे पदार्थ सदा-स्थिर रहने वाले हैं, तेरा रचा हुआ जगत-पसारा अॅटल नियमों वाला है।2।

हे प्रभू! तेरी हस्ती ऐसी है जिस तक (हम जीवों की) पहुँच नहीं हो सकती, तेरा नजारा अद्वितीय है (तेरे जैसा और कोई नहीं)। हे प्रभू! मैं तेरे उन सेवकों पर से सदके जाता हूँ, जिन्हें तेरा नाम प्यारा लगता है।3।

हे अपहुँच प्रभू! हे बेअंत प्रभू! जब (किसी अति भाग्यशाली को) तू मिल जाता है, उसकी सारी ही मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं (उसे कोई कमी नहीं रह जाती, उसकी तृष्णा समाप्त हो जाती है)। हे प्रभू! मैं तेरे चरणों से सदके जाता हूँ। हे भाई! जिस मनुष्य को गुरू मिल गया, उसको परमात्मा मिल गया।4।1।47।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh