श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 747 रागु सूही महला ५ घरु ७ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ तेरा भाणा तूहै मनाइहि जिस नो होहि दइआला ॥ साई भगति जो तुधु भावै तूं सरब जीआ प्रतिपाला ॥१॥ मेरे राम राइ संता टेक तुम्हारी ॥ जो तुधु भावै सो परवाणु मनि तनि तूहै अधारी ॥१॥ रहाउ ॥ तूं दइआलु क्रिपालु क्रिपा निधि मनसा पूरणहारा ॥ भगत तेरे सभि प्राणपति प्रीतम तूं भगतन का पिआरा ॥२॥ तू अथाहु अपारु अति ऊचा कोई अवरु न तेरी भाते ॥ इह अरदासि हमारी सुआमी विसरु नाही सुखदाते ॥३॥ दिनु रैणि सासि सासि गुण गावा जे सुआमी तुधु भावा ॥ नामु तेरा सुखु नानकु मागै साहिब तुठै पावा ॥४॥१॥४८॥ {पन्ना 747} पद्अर्थ: तूं है = तू स्वयं ही है। भाणा...मनाइहि = तू रजा में चलाता है। होहि = तू होता है। दइआला = दयावान। साई = वही। तुधु भावै = तुझे पसंद आती है।1। जिस नो: ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है। रामराइ = रामराय, हे प्रभू पातशाह! टेक = आसरा। परवाणु = कबूल। मनि = मन में। अधारी = आसरा।1। रहाउ। क्रिपानिधि = कृपा का खजाना। मनसा = मनीषा, मन की कामना। भगत = (‘भगति’ और ‘भगत’ में फर्क याद रखें)। सभि = सारे। प्राणपति = हे जिंद के मालिक!2। अथाहु = जिसका थाह ना पड़ सके। अपारु = जिसका परला छोर ना मिल सके। तेरी भाते = तेरी भांति का, तेरे जैसे। सुआमी = हे स्वामी! सुख दाते = हे सुख देने वाले!।3। रैणि = रात। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। गावा = गाऊँ। तुठै = अगर प्रसन्न हो जाए। पावा = मैं हासिल करूँ।4। अर्थ: हे मेरे प्रभू पातशाह! तेरे संतों को (सदा) तेरा ही आसरा रहता है। जो कुछ तुझे अच्छा लगता है वही (तेरे संतों को) परवान होता है। उनके मन में, उनके तन में, तू ही आसरा है।1। रहाउ। हे प्रभू! जिस मनुष्य पर तू दयावान होता है तू स्वयं ही उसको अपनी रजा में चलाता है। असल भक्ति वही है जो तुझे पसंद आ जाती है। हे प्रभू! तू सारे जीवों की पालना करने वाला है।1। हे प्रभू! तू दया का घर है, तू कृपा का खजाना है, तू (अपने भक्तों की) मनोकामनाएं पूरी करने वाला है। हे जिंद के मालिक! हे प्रीतम प्रभू! तेरे सारे भक्त (तुझे प्यारे लगते हैं), तू भक्तों को प्यारा लगता है।2। हे प्रभू! (तेरे दिल की) गहराई नहीं पाई जा सकती, तेरी हस्ती का परला छोर नहीं पाया जा सकता, तू बहुत ही ऊँचा है, कोई और तेरे जैसा नहीं है। हे मालिक! हे सुखों के देने वाले! हम जीवों की (तेरे आगे) यही आरजू है, कि हमें तू कभी भी ना भूल।3। हे स्वामी! अगर मैं तुझे अच्छा लगूँ (यदि तेरी मेरे पर मेहर हो) मैं दिन-रात हरेक सांस के साथ तेरे गुण गाता रहूँ। (तेरा दास) नानक (तुझसे) तेरा नाम माँगता है (यही नानक के लिए) सुख (है)। हे मेरे साहिब! यदि तू दयावान हो, तो मुझे ये दाति मिल जाए।4।1।48। सूही महला ५ ॥ विसरहि नाही जितु तू कबहू सो थानु तेरा केहा ॥ आठ पहर जितु तुधु धिआई निरमल होवै देहा ॥१॥ मेरे राम हउ सो थानु भालण आइआ ॥ खोजत खोजत भइआ साधसंगु तिन्ह सरणाई पाइआ ॥१॥ रहाउ ॥ बेद पड़े पड़ि ब्रहमे हारे इकु तिलु नही कीमति पाई ॥ साधिक सिध फिरहि बिललाते ते भी मोहे माई ॥२॥ दस अउतार राजे होइ वरते महादेव अउधूता ॥ तिन्ह भी अंतु न पाइओ तेरा लाइ थके बिभूता ॥३॥ सहज सूख आनंद नाम रस हरि संती मंगलु गाइआ ॥ सफल दरसनु भेटिओ गुर नानक ता मनि तनि हरि हरि धिआइआ ॥४॥२॥४९॥ {पन्ना 747} पद्अर्थ: जितु = जहाँ, जिस जगह पर। कबहू = कभी भी। केहा = बड़ा आश्चर्यजनक। तुधु = तुझे। धिआई = ध्यान धरूँ। देहा = शरीर।1। हउ = मैं। खोजत = तलाशते हुए। साध संगु = गुरमुखों का मेल। तिन् सरणाई = उनकी शरण में।1। रहाउ। पढ़े पढ़ि = पढ़ पढ़ के। ब्रहमे = ब्रहमा जैसे अनेकों। तिलु = रक्ती भर। साधिक = साधना करने वाले। सिध = साधना में सिद्ध योगी, करामाती योगी। ते भी = वो भी (बहुवचन)। माई = माया।2। दस अउतार = (सतियुग के अवतार: मच्छ, कच्छ, वराह, नरसिंह, वामन। त्रेते के अवतार: परुषराम, रामचंद्र। द्वापर का अवतार: कृष्ण। कलियुग के अवतार: बुद्ध, कलकी)। राजे = पूजनीय। महादेव = शिव। अवधूता = त्यागी। बिभूता = राख।3। सहज = अडोल अवस्था। संती = संतों ने। मंगलु = सिफत सालाह के गीत। सफल दरसनु = जिसके दर्शन फलदायक हों। भेटिआ = मिला। मनि = मन में। तनि = हृदय में।4। अर्थ: हे मेरे राम! मैं वह जगह तलाशने चल पड़ा (जहाँ मैं तेरे दर्शन कर सकूँ)। ढूँढते ढूँढते मुझे गुरमुखों का साथ मिल गया, उन (गुरमुखों) की शरण पड़ कर तुझे मैंने (तुझे भी) पा लिया।1। रहाउ। हे मेरे राम! तेरा वह (साध-संगति) स्थान बड़ा ही आश्चर्यजनक है, जिसमें बैठ के तू कभी भी ना भूले, जिसमें बैठ के मैं तुझे आठों पहर याद कर सकूँ, और, मेरा शरीर पवित्र हो जाए।1। हे मेरे राम! ब्रहमा जैसे अनेकों वेद (आदि धर्म-पुस्तकें) पढ़-पढ़ के थक गए, पर वे तेरी रक्ती भर भी कद्र ना समझ सके। साधना करने वाले जोगी, करामाती जोगी (तेरे दर्शनों को) बिलकते फिरते हैं, पर वे भी माया के मोह में फंसे रहे।2। हे मेरे राम! (विष्णु के) दस अवतार (अपने-अपने युग में) आदर प्राप्त करते रहे। शिव जी बड़ा त्यागी प्रसिद्ध हुआ। पर वे भी तेरे गुणों का अंत ना पा सके। (शिव आदि अनेकों अपने शरीर पर) राख मल-मल के थक गए।3। हे नानक! (कह–) जिन संत-जनों ने परमात्मा की सिफत-सालाह के गीत सदा गाए, उन्होंने ही आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद हासिल किए, उन्होंने नाम का रस चखा। जब उन्हें वह गुरू मिल गया, जिसका दर्शन जीवन-मनोरथ पूरा कर देता है, तब उन्होंने अपने मन में अपने दिल में परमात्मा का ध्यान आरम्भ कर दिया।4।2।49। सूही महला ५ ॥ करम धरम पाखंड जो दीसहि तिन जमु जागाती लूटै ॥ निरबाण कीरतनु गावहु करते का निमख सिमरत जितु छूटै ॥१॥ संतहु सागरु पारि उतरीऐ ॥ जे को बचनु कमावै संतन का सो गुर परसादी तरीऐ ॥१॥ रहाउ ॥ कोटि तीरथ मजन इसनाना इसु कलि महि मैलु भरीजै ॥ साधसंगि जो हरि गुण गावै सो निरमलु करि लीजै ॥२॥ बेद कतेब सिम्रिति सभि सासत इन्ह पड़िआ मुकति न होई ॥ एकु अखरु जो गुरमुखि जापै तिस की निरमल सोई ॥३॥ खत्री ब्राहमण सूद वैस उपदेसु चहु वरना कउ साझा ॥ गुरमुखि नामु जपै उधरै सो कलि महि घटि घटि नानक माझा ॥४॥३॥५०॥ {पन्ना 747} पद्अर्थ: करम धरम = (तीर्थ स्नान आदि निहित) धार्मिक कर्म। पाखंड = दिखावे के काम। तिन = उनको। जागाती = मसूलिया। निरबाण = निर्वाण, वासना रहित हो के। करते का = करतार का। निमख = आँख झपकने जितना समय। जितु = जिससे, जिस (कीर्तन) से। छूटै = (मनुष्य विकारों से) बच जाता है।1। सागरु = (संसार) समुंद्र। उतरीअै = लांघा जाता है। को = कोई मनुष्य। परसादी = कृपा से।1। रहाउ। कोटि = करोड़ों। मजन = स्नान। कलि महि = जगत में । (नोट: किसी खास युग का वर्णन नहीं किया जा रहा)। संगि = संगति में। करि लीजै = कर लिया जाता है।2। कतेब = पश्चिमी मतों की धर्म पुस्तकें (कुरान, अंजील, जंबूर, तौरेत)। सभि = सारे। पढ़िआ = सिर्फ पढ़ने से। मुकति = विकारों से खलासी। अखरु = अक्षर, ना रहित, अबिनाशी प्रभू। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। सोई = शोभा।3। तिस की: ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है। उधरै = (विकारों से) बच जाता है। कलि महि = जगत में। घटि घटि = हरेक शरीर में। माझा = में।4। अर्थ: हे संत जनों! (सिफत सालाह की बरकति से) संसार-समुंद्र से पार लांघा जा सकता है। अगर कोई मनुष्य संत जनों के उपदेश को (जीवन में) कमा ले, वह मनुष्य गुरू की कृपा से पार लांघ जाता है।1। रहाउ। हे भाई! (तीर्थ-स्नान आदि निहित) धार्मिक काम दिखावे के काम हैं, ये काम जितने भी लोग करते हुए दिखाई देते हैं, उन्हें मसूलिया जम लूट लेता है। (इस वास्ते) वासना-रहित हो के करतार की सिफत सालाह किया करो, क्योंकि इसकी बरकति से छिन भर भी नाम सिमरने मात्र से मनुष्य विकारों से खलासी पा लेता है।1। हे भाई! करोड़ों तीर्थ-स्नान (करते हुए भी) जगत में (विकारों की) मैल लिबड़ जाती है। पर जो मनुष्य गुरू की संगति में (टिक के) परमात्मा की सिफत सालाह के गीत गाता रहता है, वह पवित्र जीवन वाला बन जाता है।2। हे भाई! वेद-पुराण-स्मृतियाँ आदि ये सारे (हिन्दू धर्म पुस्तकें) (कुरान-अंजील आदि) ये सारे (पश्चिमी धर्म की पुस्तकें) आदि को सिर्फ पढ़ने मात्र से विकारों से निजात नहीं मिलती। पर जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर अबिनाशी प्रभू का नाम जपता है, उसकी (लोक-परलोक में) पवित्र शोभा बन जाती है।3। हे भाई! (परमात्मा का नाम सिमरने का) उपदेश खत्री-ब्राहमण-वैश-शूद्र चारों वर्णों के लोगों के वास्ते एक जैसा ही है। (किसी भी वर्ण का हो) जो मनुष्य गुरू के बताए हुए रास्ते पर चल के प्रभू का नाम जपता है वह जगत में विकारों से बच निकलता है। हे नानक! उस मनुष्य को परमात्मा हरेक शरीर में बसा हुआ दिखाई देता है।4।3।50। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |