श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सूही महला ५ ॥ भागठड़े हरि संत तुम्हारे जिन्ह घरि धनु हरि नामा ॥ परवाणु गणी सेई इह आए सफल तिना के कामा ॥१॥ मेरे राम हरि जन कै हउ बलि जाई ॥ केसा का करि चवरु ढुलावा चरण धूड़ि मुखि लाई ॥१॥ रहाउ ॥ जनम मरण दुहहू महि नाही जन परउपकारी आए ॥ जीअ दानु दे भगती लाइनि हरि सिउ लैनि मिलाए ॥२॥ सचा अमरु सची पातिसाही सचे सेती राते ॥ सचा सुखु सची वडिआई जिस के से तिनि जाते ॥३॥ पखा फेरी पाणी ढोवा हरि जन कै पीसणु पीसि कमावा ॥ नानक की प्रभ पासि बेनंती तेरे जन देखणु पावा ॥४॥७॥५४॥ {पन्ना 749}

पद्अर्थ: भागठड़े = भाग्यशाली। हरि = हे हरी! घरि = हृदय घर में। गणी = मैं गिनता हूँ।1।

कै = से। बलि जाई = मैं सदके जाता हूँ। करि = बना के। ढुलावा = मैं झुलाऊँ। मुखि = मुँह पर। लाई = लगाऊँ।1। रहाउ।

महि = में। परउपकारी = दूसरों का भला करने वाले। जीअ दानु = आत्मिक जीवन की दाति। दे = देकर। लाइनि = लगाते हैं। लैनि मिलाऐ = मिला लेते हैं।2।

सचा = सदा कायम रहने वाला। अमरु = हुकम। सचे सेती = सदा स्थिर प्रभू से। राते = रंगे रहते हैं। जिस के = जिस (परमात्मा) के (‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘के’ के कारण हटा दी गई है)। से = (बने हुऐ) थे। तिनि = उस (परमात्मा) ने। जाते = पहचाने, गहरी सांझ डाली।3।

फेरी = मैं फेरूँ। ढोवा = ढोऊँ। जन कै = जनों के घरों में। पीसणु = चक्की। पीसि = पीस के। कमावा = मैं सेवा करूँ। देखणु पावा = दूख सकॅूँ।4।

अर्थ: हे मेरे राम! (अगर तेरी मेहर हो, तो) मैं तेरे सेवकों से सदके जाऊँ (अपना सब कुछ बार दूँ), मैं अपने केसों का चवर बना के उन पर झुलाऊँ, मैं उनके चरणों की धूड़ ले के अपने माथे पर लगाऊँ।1। रहाउ।

हे हरी! तेरे संत जन बड़े भाग्यशाली हैं क्योंकि उनके हृदय-घर में तेरा नाम-धन बसता है। मैं समझता हूँ कि उनका ही जगत में आना तेरी नजरों में कबूल है, उन संतजनों के सारे (संसारिक) काम (भी) सफल हो जाते हैं।1।

हे भाई! संत जन जनम-मरन के चक्कर में नहीं आते, वे तो जगत में दूसरों की भलाई करने के लिए आते हैं। संत जन (औरों को) आत्मिक जीवन की दाति दे के परमात्मा की भक्ति में जोड़ते हैं, और उनको परमात्मा के साथ मिला देते हैं।2।

हे भाई! संत जन सदा-स्थिर प्रभू के प्रेम रंग में रंगे रहते हैं, उनका हुकम सदा कायम रहता है, उनकी बादशाहियत् भी अॅटल रहती है। उनको सदा कायम रहने वाला आनंद प्राप्त रहता है, उनकी शोभा सदा के लिए टिकी रहती है। जिस परमात्मा के वे सेवक बने रहते हैं, वह परमात्मा ही उनकी कद्र जानता है।3।

हे भाई! नानक की परमात्मा के आगे सदा यही विनती है कि- हे प्रभू! मैं तेरे संत जनों के दर्शन करता रहूँ, मैं उनको पंखा करता रहूँ, उनके लिए पानी ढोता रहूँ और उनके दर पर चक्की पीस के सेवा करता रहूँ।4।7।54।

सूही महला ५ ॥ पारब्रहम परमेसर सतिगुर आपे करणैहारा ॥ चरण धूड़ि तेरी सेवकु मागै तेरे दरसन कउ बलिहारा ॥१॥ मेरे राम राइ जिउ राखहि तिउ रहीऐ ॥ तुधु भावै ता नामु जपावहि सुखु तेरा दिता लहीऐ ॥१॥ रहाउ ॥ मुकति भुगति जुगति तेरी सेवा जिसु तूं आपि कराइहि ॥ तहा बैकुंठु जह कीरतनु तेरा तूं आपे सरधा लाइहि ॥२॥ सिमरि सिमरि सिमरि नामु जीवा तनु मनु होइ निहाला ॥ चरण कमल तेरे धोइ धोइ पीवा मेरे सतिगुर दीन दइआला ॥३॥ कुरबाणु जाई उसु वेला सुहावी जितु तुमरै दुआरै आइआ ॥ नानक कउ प्रभ भए क्रिपाला सतिगुरु पूरा पाइआ ॥४॥८॥५५॥ {पन्ना 749}

पद्अर्थ: पारब्रहम = हे पारब्रहम! सतिगुर = हे सतिगुरू! आपे = (तू) स्वयं ही। करणैहारा = करने योग्य, कर सकने वाला। मागै = मांगता है। कउ = से। बलिहारा = सदके।1।

रामराइ = हे प्रभू पातशाह! राखहि = तू रखता हॅ। रहीअै = रह सकते हैं। तुधु भावै = अगर तुझे अच्छा लगे। लहीअै = ले सकते हैं।1। रहाउ।

मुकति = विकारों से खलासी। भुगति = दुनिया के सुखों के भोग। जुगति = अच्छी जीवन मर्यादा। तहा = वहीं ही। जह = जहाँ।2।

जीवा = जीऊँ, मैं आत्मिक जीवन प्राप्त करता हूँ। निहाला = प्रसन्न, खिला हुआ। चरण कमल = कमल फूलों जैसे सोहाने चरण। धोइ = धो के। पीवा = पीऊँ।3।

जाई = मैं जाता हूँ। उसु वेला सुहावी = उस सोहानी घड़ी से। जितु = जिस में, जिस वक्त। दुआरै = दर पर। कउ = को, पर।4।

अर्थ: हे मेरे प्रभू पातशाह! तू जैसे (हम जीवों को) रखता है, वैसे ही रहा जा सकता है। अगर तुझे अच्छा लगे तो तू (हम जीवों से अपना) नाम जपाता है, तेरा ही बख्शा हुआ सुख हम ले सकते हैं।1। रहाउ।

हे परमात्मा! हे परमेश्वर! हे सतिगुरू! तू स्वयं सब कुछ करने के समर्थ है। (तेरा) दास (तेरे से) तेरे चरणों की धूड़ माँगता है, तेरे दर्शन से सदके जाता है।1।

हे प्रभू! तेरी सेवा-भक्ति में ही (विकारों से) खलासी है, संसार के सुख हैं, सुचज्जी जीवन-जाच है (पर तेरी भक्ति वही करता है) जिससे तू स्वयं करवाता है। हे प्रभू! जिस जगह तेरी सिफत-सालाह हो रही हो, (मेरे वास्ते) वही स्थान बैकुंठ है, तू स्वयं ही (सिफत सालाह करने की) श्रद्धा (हमारे अंदर) पैदा करता है।2।

हे दीनों पर दया करने वाले मेरे सतिगुरू! (मेहर कर) मैं तेरा नाम जप-जप के आत्मिक जीवन हासिल करता रहूँ, मेरा मन मेरा तन (तेरे नाम की बरकति से) खिला रहे। (मेहर कर) मैं सदा तेरे सुंदर चरण धो-धो के पीता रहूँ।3।

(हे सतिगुरू!) मैं उस सुंदर घड़ी से सदके जाता हूँ, जब मैं तेरे दर पर आ गिरूँ। हे भाई! जब (दास) नानक पर प्रभू जी दयावान हुए, तब (नानक को) पूरा गुरू मिला।4।8।55।

सूही महला ५ ॥ तुधु चिति आए महा अनंदा जिसु विसरहि सो मरि जाए ॥ दइआलु होवहि जिसु ऊपरि करते सो तुधु सदा धिआए ॥१॥ मेरे साहिब तूं मै माणु निमाणी ॥ अरदासि करी प्रभ अपने आगै सुणि सुणि जीवा तेरी बाणी ॥१॥ रहाउ ॥ चरण धूड़ि तेरे जन की होवा तेरे दरसन कउ बलि जाई ॥ अम्रित बचन रिदै उरि धारी तउ किरपा ते संगु पाई ॥२॥ अंतर की गति तुधु पहि सारी तुधु जेवडु अवरु न कोई ॥ जिस नो लाइ लैहि सो लागै भगतु तुहारा सोई ॥३॥ दुइ कर जोड़ि मागउ इकु दाना साहिबि तुठै पावा ॥ सासि सासि नानकु आराधे आठ पहर गुण गावा ॥४॥९॥५६॥ {पन्ना 749}

पद्अर्थ: चिति = चिक्त में। विसरहि = तू बिसर जाता है। मरि जाए = आत्मिक मौत सहेड़ लेता है। करते = हे करतार!।1।

साहिब = हे साहिब! मैं = मेरा। करी = मैं करता हूँ। सुणि = सुन के। जीवा = जीऊँ, आत्मिक जीवन प्राप्त करता हॅूँ।1। रहाउ।

होवा = होऊँ। कउ = से। बलि = सदके। जाई = मैं जाता हूँ। अंम्रित = आत्मिक जीवन वाले। उरि = हृदय में। तउ = तेरी। ते = से। संगु = साथ। पाई = मैं डालूँ।2।

गति = हालत। सारी = खोली है। सोई = वह ही।3।

जिस नो: ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।

कर = हाथ (बहुवचन)। जोड़ि = जोड़ के। मागउ = मांगू, मैं माँगता हूँ। साहिब तुठै = यदि सहिब प्रसन्न हो जाए। पावा = प्राप्त कर लूँ। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। गावा = गाऊँ।4।

अर्थ: हे मेरे मालिक-प्रभू! मुझ निमाणी का तू ही माण है। हे प्रभू! मैं तेरे आगे आरजू करता हूँ, (मेहर कर) तेरी सिफत सालाह की बाणी सुन-सुन के मैं आत्मिक जीवन हासिल करता रहूँ।1। रहाउ।

हे प्रभू! अगर तू चिक्त में आ बसे, तो बड़ा सुख मिलता है। जिस मनुष्य को तू बिसर जाता है, वह मनुष्य आत्मिक मौत सहेड़ लेता है। हे करतार! जिस मनुष्य पर तू दयावान होता है, वह सदा तुझे याद करता रहता है।1।

हे प्रभू! मैं तेरे दर्शनों से सदके जाता हूँ, (मेहर कर) मैं तेरे सेवक के चरणों की धूड़ बना रहूँ। (तेरे सेवक के) आत्मिक जीवन देने वाले वचन मैं अपने दिल में हृदय में बसाए रखूँ, तेरी कृपा से मैं (तेरे सेवक की) संगति प्राप्त करूँ।2।

हे भाई! अपने दिल की हालत तेरे आगे खोल के रख दी है। मुझे तेरे बराबर का और कोई नहीं दिखता। जिस मनुष्य को तू (अपने चरणों में) जोड़ लेता है, वह (तेरे चरणों में) जुड़ा रहता है। वही तेरा (असल) भक्त है।3।

हे प्रभू! मैं (अपने) दोनों हाथ जोड़ कर (तुझसे) ये दान माँगता हूँ। हे साहिब! तेरे प्रसन्न होने से ही मैं (ये दान) ले सकता हूँ। (मेहर कर) नानक हरेक सांस के साथ तेरी आराधना करता रहे, मैं आठों पहर तेरी सिफत सालाह के गीत गाता रहूँ।4।9।56।

सूही महला ५ ॥ जिस के सिर ऊपरि तूं सुआमी सो दुखु कैसा पावै ॥ बोलि न जाणै माइआ मदि माता मरणा चीति न आवै ॥१॥ मेरे राम राइ तूं संता का संत तेरे ॥ तेरे सेवक कउ भउ किछु नाही जमु नही आवै नेरे ॥१॥ रहाउ ॥ जो तेरै रंगि राते सुआमी तिन्ह का जनम मरण दुखु नासा ॥ तेरी बखस न मेटै कोई सतिगुर का दिलासा ॥२॥ नामु धिआइनि सुख फल पाइनि आठ पहर आराधहि ॥ तेरी सरणि तेरै भरवासै पंच दुसट लै साधहि ॥३॥ गिआनु धिआनु किछु करमु न जाणा सार न जाणा तेरी ॥ सभ ते वडा सतिगुरु नानकु जिनि कल राखी मेरी ॥४॥१०॥५७॥ {पन्ना 749-750}

पद्अर्थ: सुआमी = हे स्वामी! बोलि न जाणै = बोलना नहीं जानता। मदि = अहंकार में। माता = मस्त। मरणा = मौत, मौत का सहम। चीति = चित में।1।

जिस के: ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘के’ के कारण हटा दी गई है।

रामराइ = रामराय, हे प्रभू पातशाह! कउ = को। नेरे = नजदीक।1। रहाउ।

तेरै रंगि = तेरे प्रेम रंग में। राते = रंगे हुए। नासा = दूर हो जाता है। बखस = बख्शिश, कृपा। दिलासा = तसल्ली, भरोसा।2।

धिआइनि = ध्याते हैं। पाइनि = पाते हैं। आराधहि = आराधना करते हैं। भरवासे = आसरे से। पंच दुसट = कामादिक पाँच वैरी। लै = पकड़ के। साधहि = बस में कर लेते हैं।3।

गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। धिआनु = सुरति जोड़ने की जाच। न जाणा = नहीं था जानता। सार = कद्र। जिनि = जिस (गुरू) ने। कल = इज्जत, लाज।4।

अर्थ: हे मेरे प्रभू पातशाह! तू (अपने) संतो का (रखवाला) है, (तेरे) संत तेरे (आसरे रहते हैं)। हे प्रभू! तेरे सेवक को कोई डर छू नहीं सकता, मौत का डर उसके नजदीक नहीं फटकता।1। रहाउ।

हे मेरे मालिक प्रभू! जिस मनुष्य के सिर पर तू (हाथ रखे) उसे कोई दुख नहीं व्यापता। वह मनुष्य माया के नशे में मस्त हो के तो बोलना ही नहीं जानता, मौत का सहिम भी उसके चिक्त में पैदा नहीं होता।1।

हे मेरे मालिक! जो मनुष्य तेरे प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं, उनके पैदा होने-मरने (के चक्रों) के दुख दूर हो जाते हैं, उन्हें गुरू द्वारा (दिया हुआ ये) भरोसा (हमेशा याद रहता है कि उनके ऊपर हुई) तेरी कृपा को कोई मिटा नहीं सकता।2।

हे प्रभू! (तेरे संत तेरा) नाम सिमरते रहते हैं, आत्मिक आनंद भोगते रहते हैं, आठों पहर तेरी आराधना करते हैं। तेरी शरण में आ के, तेरे आसरे रह के वह (कामादिक) पाँचों वैरियों को पकड़ कर बस में कर लेते हैं।3।

हे मेरे मालिक प्रभू! मैं (भी) तेरी (कृपा की) कद्र नहीं था जानता, मुझे आत्मिक जीवन की समझ नहीं थी, तेरे चरणों में सुरति टिकानी भी नहीं जानता था, किसी अन्य धार्मिक कर्म की भी मुझे सूझ नहीं थी। पर (तेरी मेहर से) मुझे सबसे बड़ा गुरू नानक मिल गया, जिसने मेरी लाज रख ली (और मुझे तेरे चरणों में जोड़ दिया)।4।10।57।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh