श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 750 सूही महला ५ ॥ सगल तिआगि गुर सरणी आइआ राखहु राखनहारे ॥ जितु तू लावहि तितु हम लागह किआ एहि जंत विचारे ॥१॥ मेरे राम जी तूं प्रभ अंतरजामी ॥ करि किरपा गुरदेव दइआला गुण गावा नित सुआमी ॥१॥ रहाउ ॥ आठ पहर प्रभु अपना धिआईऐ गुर प्रसादि भउ तरीऐ ॥ आपु तिआगि होईऐ सभ रेणा जीवतिआ इउ मरीऐ ॥२॥ सफल जनमु तिस का जग भीतरि साधसंगि नाउ जापे ॥ सगल मनोरथ तिस के पूरन जिसु दइआ करे प्रभु आपे ॥३॥ दीन दइआल क्रिपाल प्रभ सुआमी तेरी सरणि दइआला ॥ करि किरपा अपना नामु दीजै नानक साध रवाला ॥४॥११॥५८॥ {पन्ना 750} पद्अर्थ: सगल = सारे (आसरे)। तिआगि = छोड़ के। राखणहारे = हे रक्षा की समर्था वाले! जितु = जिस (काम) में। तिसु = उस (काम) में। हम लागह = हम (जीव) लग पड़ते हैं। ऐहि = (शब्द ‘ऐह’ का बहुवचन)।1। प्रभ = हे प्रभू! अंतरजामी = हे दिल की जानने वाला! गुरदेव = हे गुरदेव! गावा = गाऊँ।1। रहाउ। धिआईअै = सिमरना चाहिए। प्रसादि = कृपा से। भउ = भव सागर, संसार समुंद्र। तरीअै = पार लांघ सकते हैं। आपु = स्वै भाव। रेणा = चरणधूल। इउ = इस तरह। जीवतिआ मरीअै = दुनिया के कार्य व्यवहार करते हुए निर्मोह रहा जाता है।2। सफल = कामयाब। भीतरि = में। संगि = संगति में। जापु = जपता है। मनोरथ = मुरादें। आपे = खुद ही।3। तिस का: ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है। प्रभ = प्रभू! करि = करके। दीजै = दे। साध रवाला = गुरू के चरणों की धूल।4। अर्थ: हे मेरे राम जी! हे मेरे प्रभू! तू (मेरे) दिल की जानने वाला है। हे दया के घर गुरदेव! ळे स्वामी! मेहर कर, मैं सदा तेरे गुण गाता रहूँ।1। रहाउ। हे रक्षा करने के समर्थ प्रभू! मेरी रखा कर। मैं सारे (आसरे) छोड़ के गुरू की शरण आ पड़ा हूँ। हे प्रभू! इन जीव विचारों की क्या बिसात है? तू जिस काम में हम जीवों को लगा लेता है, हम उस काम में लग पड़ते हैं।1। हे भाई! आठों पहर अपने मालिक प्रभू का ध्यान धरना चाहिए, (इस तरह) गुरू की कृपा से संसार-समुंद्र से पार लांघा जाता है। हे भाई! स्वै भाव छोड़ के गुरू के चरणों की धूड़ बन जाना चाहिए, इस तरह दुनिया कें कार्य-व्यवहार करते हुए ही निर्मोही हो जाना चाहिए।2। हे भाई! जो मनुष्य गुरू की संगति में रह के परमात्मा का नाम जपता है, जगत में उसका जीवन कामयाब हो जाता है। हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा आप ही कृपा करता है, उसकी सारी मुरादें पूरी हो जाती हैं।3। हे नानक! (कह–) हे दीनों पर दया करने वाले! हे कृपालू! हे मालिक प्रभू! हे दया के श्रोत! मैं तेरी शरण आया हूँ! मेहर कर, मुझे अपना नाम बख्श, गुरू के चरणों की धूल दे।4।11।58। रागु सूही असटपदीआ महला १ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सभि अवगण मै गुणु नही कोई ॥ किउ करि कंत मिलावा होई ॥१॥ ना मै रूपु न बंके नैणा ॥ ना कुल ढंगु न मीठे बैणा ॥१॥ रहाउ ॥ सहजि सीगार कामणि करि आवै ॥ ता सोहागणि जा कंतै भावै ॥२॥ ना तिसु रूपु न रेखिआ काई ॥ अंति न साहिबु सिमरिआ जाई ॥३॥ सुरति मति नाही चतुराई ॥ करि किरपा प्रभ लावहु पाई ॥४॥ खरी सिआणी कंत न भाणी ॥ माइआ लागी भरमि भुलाणी ॥५॥ हउमै जाई ता कंत समाई ॥ तउ कामणि पिआरे नव निधि पाई ॥६॥ अनिक जनम बिछुरत दुखु पाइआ ॥ करु गहि लेहु प्रीतम प्रभ राइआ ॥७॥ भणति नानकु सहु है भी होसी ॥ जै भावै पिआरा तै रावेसी ॥८॥१॥ {पन्ना 750} पद्अर्थ: सभि = सारे। मै = मेरे अंदर। कंत मिलावा = कंत का मिलाप।1। मै = मेरा। बंके = बाँके, सुंदर। नैणा = आँखें, नेत्र। कुल ढंगु = उच्च कुल वाला तौर तरीका। बैणा = बोल।1। रहाउ। सहजि = अडोल आत्मिक अवस्था में। कामणि = स्त्री, जीव स्त्री। करि = कर के। सोहागणि = सौभाग्यवती। जा = जब।2। तिसु = उस (प्रभू कंत) का। रेखिआ = चिन्ह। काई = कोई। अंति = अंत के समय, दुनिया छोड़ने के वक्त।3। प्रभ = हे प्रभू! पाई = चरणों में।4। खरी = बहुत। कंत न भाणी = कंत को पसंद ना आई।5। जाई = जाए, दूर हो। कंत = हे कंत! तउ = तब। पिआरे = हे प्यारे! नउनिधि = नौ खजाने।6। करु = हाथ। गहि लेहु = पकड़ लो।7। भणति = विनती करता है। होसी = (सदा) रहेगा। जै भावै = जो उसे अच्छा लगे, जो जीव स्त्री उसे अच्छी लगती है। ते = उस को।8। अर्थ: ना मेरी (सुंदर) सूरति है, ना मेरी आँखें सुंदर हैं, ना ही उच्च कुल वालों की तरह मेरे तौर-तरीके (रहन-सहन) है, ना ही मेरी बोली मीठी है (फिर मैं कैसे पति-प्रभू को खुश कर सकूँगी?)।1। रहाउ। मेरे अंदर सारे अवगुण ही हैं, एक भी गुण नहीं, (इस हालत में) मुझे पति-प्रभू का मिलाप कैसे हो सकता है?।1। जो जीव स्त्री अडोल आत्मिक अवस्था में (टिकती है, और ये) हार-श्रृंगार करके (प्रभू-पति के दर पर) आती है (वह पति-प्रभू को अच्छी लगती है, और) तब ही जीव-स्त्री सौभाग्यवती है जब वह कंत-प्रभू को पसंद आती है।2। उस पति-प्रभू की (इन आँखों से दिखाई देने वाली कोई) सूरति नहीं है उसका कोई चिन्ह भी नहीं है (जिसको देख सकें, और उसका सिमरन कर सकें। पर अगर सारी उम्र उसे बिसारे ही रखा, तो ) अंत के समय वह मालिक सिमरा नहीं जा सकता।3। हे प्रभू! (मेरी ऊँची) सुरति नहीं, (मेरे में कोई) अक्ल नहीं (कोई) समझदारी नहीं। (तू स्वयं ही) मेहर कर के मुझे अपने चरणों से लगा ले।4। जो जीव-स्त्री माया (के मोह) में फसी रहे, भटकना में पड़ कर जीवन-राह से भटकी रहे, वह (दुनिया के कार्य-व्यवहार में भले ही) बहुत समझदार (भी हो, पर) वह कंत-प्रभू को अच्छी नहीं लगती।5। हे कंत प्रभू! जब अहंकार दूर हो तब ही (तेरे चरणों में) लीन हुआ जा सकता है, तब ही, हे प्यारी! जीव-स्त्री तू, नौ-खजाने के श्रोत को मिल सकती है।6। हे प्रभू राय! हे प्रीतम! तुझसे विछुड़ के अनेकों जूनियों में भटक-भटक के मैंने दुख सहा है, अब तू मेरा हाथ पकड़ ले।7। नानक विनती करता है–पति-प्रभू (सचमुच मौजूद) है, सदा ही रहेगा। जो जीव-स्त्री उसको भाती है (प्रभू) उसे अपने साथ मिला लेता है।8।1। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |