श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 751 सूही महला १ घरु ९ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ कचा रंगु कसु्मभ का थोड़ड़िआ दिन चारि जीउ ॥ विणु नावै भ्रमि भुलीआ ठगि मुठी कूड़िआरि जीउ ॥ सचे सेती रतिआ जनमु न दूजी वार जीउ ॥१॥ रंगे का किआ रंगीऐ जो रते रंगु लाइ जीउ ॥ रंगण वाला सेवीऐ सचे सिउ चितु लाइ जीउ ॥१॥ रहाउ ॥ चारे कुंडा जे भवहि बिनु भागा धनु नाहि जीउ ॥ अवगणि मुठी जे फिरहि बधिक थाइ न पाहि जीउ ॥ गुरि राखे से उबरे सबदि रते मन माहि जीउ ॥२॥ चिटे जिन के कपड़े मैले चित कठोर जीउ ॥ तिन मुखि नामु न ऊपजै दूजै विआपे चोर जीउ ॥ मूलु न बूझहि आपणा से पसूआ से ढोर जीउ ॥३॥ नित नित खुसीआ मनु करे नित नित मंगै सुख जीउ ॥ करता चिति न आवई फिरि फिरि लगहि दुख जीउ ॥ सुख दुख दाता मनि वसै तितु तनि कैसी भुख जीउ ॥४॥ बाकी वाला तलबीऐ सिरि मारे जंदारु जीउ ॥ लेखा मंगै देवणा पुछै करि बीचारु जीउ ॥ सचे की लिव उबरै बखसे बखसणहारु जीउ ॥५॥ अन को कीजै मितड़ा खाकु रलै मरि जाइ जीउ ॥ बहु रंग देखि भुलाइआ भुलि भुलि आवै जाइ जीउ ॥ नदरि प्रभू ते छुटीऐ नदरी मेलि मिलाइ जीउ ॥६॥ गाफल गिआन विहूणिआ गुर बिनु गिआनु न भालि जीउ ॥ खिंचोताणि विगुचीऐ बुरा भला दुइ नालि जीउ ॥ बिनु सबदै भै रतिआ सभ जोही जमकालि जीउ ॥७॥ जिनि करि कारणु धारिआ सभसै देइ आधारु जीउ ॥ सो किउ मनहु विसारीऐ सदा सदा दातारु जीउ ॥ नानक नामु न वीसरै निधारा आधारु जीउ ॥८॥१॥२॥ {पन्ना 751} पद्अर्थ: भ्रमि = भटकना में (पड़ कर)। ठगि = ठगी (जाती है। मुठी = लूटी (जाती है।) कूड़िआरि = झूठ की व्यापरिन (जीव स्त्री)। सेती = साथ।1। किआ रंगीअै = किसी और रंग की आवश्यक्ता नहीं रहती। सचे सिउ = सदा स्थिर प्रभू से।1। रहाउ। कुंडा = तरफ, कूंटों में। भवहि = तू भटकता है। धनु = नाम धन। बधिक = शिकारी। थाइ न पाहि = तू जगह नहीं पाएगी, तू परवान नहीं होगी। गुरि = गुरू ने। उबरे = बचे गए।2। कठोर = सख्त, निर्दयी। दूजै विआपै = माया के मोह में दबे हुए, प्रभू के बिना किसी और में फंसे हुए। ढोर = पशु, महामूर्ख।3। चिति = चित में। आवई = आए, आता है। तितु तनि = उस शरीर में।4। बाकी वाला = करजाई, जिसने विकारों रूपी कर्जे की गठड़ी उठाई हुई है। तलबीअै = तलब किया जाता है, बुलाया जाता है (लेखा देने के लिए)। सिरि = (उसके) सिर पर। जंदारु = जंदाल, अवैड़ा, जम। लिव = लगन।5। को = कोई। अन = अन्य। कीजै = बनाया जाए। मरि जाइ = (आत्मिक मौत) मर जाता है। देखि = देख के। ते = से, के द्वारा। नदरी = मेहर की निगाह से।6। गाफल = हे गाफ़ल!, हे बेसमझ! हे लापरवाह बंदे! विहूणा = वंचित। खिंचोताणि = खींचातानी में। विगुचीअै = ख्वार होते हैं। बुरा भला दुइ = नेकी और बदी दोनों। भै = सहम में। जोही = देखी, नजर के नीचे रखी। कालि = काल ने।7। जिनि = जिस (करतार) ने। कारणु = जगत। सभसै = हरेक जीव को। आधारु = आसरा। मनहु = मन से। निधारा = निआसरों का।8। अर्थ: हे भाई! जो लोग परमात्मा का प्रेम रंग लगा के रंगे जाते हैं उनके रंगे हुए मन को किसी और रंग की आवश्यक्ता नहीं रह जाती (नाम के रंगे हुए को) किसी और कर्म-सुहज की मुथाजी नहीं रहती। (पर ये नाम-रंग परमात्मा खुद ही देता है, सो) उस सदा-स्थिर रहने वाले को और (जीवों के मन को अपने प्रेम-रंग से) रंगने वाले प्रभू को चिक्त लगा के सिमरना चाहिए।1। रहाउ। (जीव माया की खूबसूरती को देख के फूलता है, पर इस माया का साथ कुसंभ के रंग जैसा ही है) कुसंभ के फूल का रंग कच्चा होता है, थोड़े समय ही रहता है, चार दिन ही टिकता है। माया की व्यापारिन जीव-स्त्री प्रभू-नाम से टूट के (माया-कुसंभ के) भुलेखे में गलत राह पर पड़ जाती है, ठॅगी जाती है, और इसके आत्मिक जीवन (की पूँजी) लुट जाती है। हे भाई! अगर सदा-स्थिर प्रभू के प्यार-रंग में रंगे जाएं, तो दोबारा बार-बार जन्म (के चक्कर) समाप्त हो जाते हैं।1। हे जीवात्मा! अगर तू चारों कुंटों में तलाशती फिरे तो भी सौभाग्य के बिना नाम-धन नहीं मिलता। अगर अवगुणों ने तेरे मन को ठग लिया है, और यदि इस आत्मिक अवस्था में तू (तीर्थ आदि पर भी) फिरती रहे, तो भी शिकारी की तरह बाहर झुकने की तरह तू (अपने इन उद्यमों से) कबूल नहीं होगी। जिनकी गुरू ने रक्षा की, जो गुरू के शबद की बरकति से मन में प्रभू-नाम से रंगे गए हैं, वही (माया के मोह व विकारों से) बचते हैं।2। (बगुले देखने में तो सफेद हैं, तीर्थों पर निवास भी करते हैं, पर समाधि लगा के पकड़ते मछलियाँ ही हैं, वैसे ही) जिनके कपड़े तो सफेद हैं पर मन मैले हैं और निर्दयी हैं उनके मुँह से (कहने पर मन में) प्रभू का नाम प्रकट नहीं होता वे (बाहर से साधु दिखते हैं पर असल में वे) चोर हैं, वे माया के मोह में फंसे हुए हैं।3। (माया-ग्रसित मनुष्य का) मन सदा दुनिया वाले चाव-मलार ही करता है और सदा सुख ही माँगता है, पर (जब तक) करतार उसके चिक्त में नहीं बसता, उसे बारंबार दुख व्यापते रहते हैं। (हाँ) जिस मन में सुख-दुख देने वाला परमात्मा बस जाता है, उसे कोई तृष्णा नहीं रह जाती (और वह सुखों की लालसा नहीं करता)।4। (जीव बंजारा यहाँ नाम का व्यापार करने आया है, पर जो जीव ये व्यापार बिसार के विकारों का कर्जा अपने सिर पर चढ़ाने लग जाता है, उस) कर्जाई को बुलावा आता है; जमराज उसके सर पर चोट मारता है, उसके सारे किए कर्मों का विचार करके उससे पूछता है और उससे वह लेखा माँगता है जो (उसके जिंम्मे) देना बनता है। जिस जीव बन्जारे के अंदर सदा-स्थिर प्रभू की लगन हो, वह जमराज की मार से बच जाता है, बख्शनेवाला प्रभू उस पर मेहर करता है।5। अगर परमात्मा के बिना किसी और को मित्र बनाया जाए, तो (ऐसे मित्र बनाने वाला) मिट्टी में मिल जाता है आत्मिक मौत मर जाता है। माया के बहुत सारे रंग-तमाशे देख के वह गलत राह पड़ जाता है, सही जीवन राह से टूट के वह जनम-मरण के चक्कर में पड़ जाता है। (इस चक्कर में से) परमात्मा की मेहर से निजात पाई जा सकती है, वह प्रभू मेहर की निगाह से (गुरू-चरणों में) मिला के अपने साथ मिला लेता है।6। हे गाफिल हुए ज्ञानहीन जीव! गुरू की शरण पड़े बिना परमात्मा के साथ गहरी सांझ की आस करनी व्यर्थ है। किए हुए अच्छे और बुरे संस्कार तो हर वक्त अंदर मौजूद ही हैं, (अगर गुरू की शरण ना पड़ें, तो वह अंदरूनी अच्छे-बुरे संस्कार अच्छी-बुरी तरफ ही खींचते हैं) और इस खींचातानी में (जीव) दुखी ही होता है। गुरू-शबद का आसरा लिए बिना दुनिया (दुनियावी) सहम में ग्रसित रहती है, ऐसी दुनिया को आत्मिक मौत ने (हर वक्त) अपनी ताक में रखा हुआ होता है।7। जिस करतार ने ये सृष्टि रची है, और रच के इसे टिकाया हुआ है, वह हरेक जीव को आसरा दे रहा है। उस को कभी भी मन से भुलाना नहीं,वह सदा ही सबको दातें देने वाला है। हे नानक! (अरदास कर कि) परमात्मा का नाम कभी ना भूले। परमात्मा निआसरों का आसरा है।8।1।2। नोट: पहली अष्टपदी ‘घरु १’ की है। दूसरी अष्टपदी ‘घरु ९’ की है। अंक 1 यही प्रकट करता है। कुल जोड़ हुआ 2। सूही महला १ काफी घरु १० ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ माणस जनमु दुल्मभु गुरमुखि पाइआ ॥ मनु तनु होइ चुल्मभु जे सतिगुर भाइआ ॥१॥ चलै जनमु सवारि वखरु सचु लै ॥ पति पाए दरबारि सतिगुर सबदि भै ॥१॥ रहाउ ॥ मनि तनि सचु सलाहि साचे मनि भाइआ ॥ लालि रता मनु मानिआ गुरु पूरा पाइआ ॥२॥ हउ जीवा गुण सारि अंतरि तू वसै ॥ तूं वसहि मन माहि सहजे रसि रसै ॥३॥ मूरख मन समझाइ आखउ केतड़ा ॥ गुरमुखि हरि गुण गाइ रंगि रंगेतड़ा ॥४॥ नित नित रिदै समालि प्रीतमु आपणा ॥ जे चलहि गुण नालि नाही दुखु संतापणा ॥५॥ मनमुख भरमि भुलाणा ना तिसु रंगु है ॥ मरसी होइ विडाणा मनि तनि भंगु है ॥६॥ गुर की कार कमाइ लाहा घरि आणिआ ॥ गुरबाणी निरबाणु सबदि पछाणिआ ॥७॥ इक नानक की अरदासि जे तुधु भावसी ॥ मै दीजै नाम निवासु हरि गुण गावसी ॥८॥१॥३॥ {पन्ना 751-752} नोट: ये अष्टपदी सूही और काफी दानों मिश्रित रागनियों में गाई जानी हैं। काफी एक रागिनी का नाम है। पद्अर्थ: माणस जनमु = मनुष्य जन्म। दुलंभु = दर्लभ, बड़ी मुश्किल से मिलने वाला। पाइआ = कद्र पाई। चुलंभु = गाढ़ा लाल।1। सवारि = सवार के। वखरु = व्यापार का सौदा। सचु = सदा स्थिर नाम। लै = ले के। पति = इज्जत। दरबारि = प्रभू की हजूरी में। भै = भय, डर अदब में (रह के)।1। रहाउ। मनि = मन में। तनि = शरीर से। सालाहि = उस्तति करके, सिफत सालाह करके। लालि = लाल (रंग) में। रता = रंगा गया।2। हउ = मैं। सारि = संभाल के। तू वसै = ‘तू ही तू’ के बोल बस गए। सहजे = सहज में, अडोल आत्मिक अवस्था में। रसि = (नाम-) अमृत से। रसै = रसता है, भीगता है, रचता है।3। मन = हे मन! आखउ = मैं कहूँ। केतक = कितना? गुरमुखि = गुरू के सन्मुख हो के। गाइ = गा के। रंगि = रंग में। रंगेतड़ा = रंगा जा।4। रिदै = हृदय में। समालि = संभाल। संतापणा = कलेश दे सकना।5। रंगु = (नाम की) लाली। मरसी = आत्मिक जीवन गवा बैठेगा। विडाणा = बेगाना, ऊपरी, बिना पति के। भंगु = तोट, विछोड़ा।6। लाहा = लाभ। आणिआ = लाया। निरबाणु = निर्वाण, वासना रहित प्रभू।7। भावसी = अच्छी लगे, पसंद आए। मै = मुझे, मेरे दिल में। गावसी = गाएगा।8। अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरू के शबद के द्वारा (परमात्मा के) डर-अदब में (रह के) सदा-स्थिर प्रभू के नाम के सौदे का व्यापार करता है और अपना जीवन सोहाना बना के (यहाँ से) जाता है वह (परमात्मा की) दरगाह में इज्जत हासिल करता है।1। रहाउ। (चौरासी लाख जूनियों में से) मानस जन्म बड़ी मुश्किल से मिलता है, पर इसकी कद्र वही मनुष्य जानता है जो गुरू की शरण पड़े। यदि सतिगुरू को ठीक लगे (अर्थात अगर सतिगुरू की कृपा हो जाए) तो (शरण आए उस मनुष्य का) मन और शरीर (प्रभू के प्रेम-रंग से) गाढ़ा लाल हो जाता है (नाम की बरकति से उसको लाली चढ़ी रहती है)।1। जिस मनुष्य को पूरा गुरू मिल जाता है वह अपने मन व शरीर के द्वारा सदा-स्थिर परमात्मा की सिफत सालाह करके सदा स्थिर प्रभू के मन में प्यारा लगने लग पड़ता है। प्रभू नाम की लाली में मस्त हुआ उसका मन उस लाली में भीग जाता है (उसके बिना रह नहीं सकता)।2। हे प्रभू! यदि तू मेरे मन में बस जाए, तो मेरा मन अडोल अवस्था में टिक के तेरे नाम के स्वाद में भीग जाए, तेरे गुण याद कर कर के मेरे अंदर आत्मिक जीवन मौल पड़े, मेरे अंदर ‘तू ही तू’ की धुन लग जाए।3। हे मेरे मूर्ख मन! मैं तुझे कितना समझा-समझा के बताऊँ कि गुरू की शरण पड़ के परमात्मा की सिफत सालाह कर, परमात्मा के नाम-रंग में रंगा जा (और इस तरह अपना जन्म-मरण सुंदर बना ले)।4। हे भाई! अपने प्रीतम प्रभू को सदा अपने दिल में संभाल के रख। अगर तू (प्रभू की भक्ति वाले अच्छे) गुण ले के (जीवन-यात्रा में) चले तो कोई दुख-कलेश तुझे नहीं छू सकेगा।5। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य का मन भटकन में पड़ कर गलत रास्ते पर पड़ा रहता है, उसको परमात्मा के नाम की लाली नहीं चढ़ती। वह बेगाना (बिना पति वाला निखसमा) हो के आत्मिक मौत सहेड़ता है, उसके मन में उसके शरीर में (परमात्मा से) विछोड़ा बना रहता है।6। जिस मनुष्य ने गुरू द्वारा बताया हुआ काम (भक्ति) करके (भक्ति का) लाभ अपने हृदय-गृह में ले लिया उसने गुरू की बाणी की बरकति से गुरू के शबद में जुड़ के वासना-रहित परमात्मा के साथ गहरी सांझ बना ली।7। हे प्रभू! मेरी नानक की अरदास भी यही है कि अगर तुझे ये बात पसंद आ जाए तो मेरे हृदय में भी अपने नाम का निवास कर दे ता कि मैं तेरे गुण गाता रहूँ।8।1।3। नोट: ये अष्टपदी ‘घरु १०’ की है। कुल जोड़ 3 है। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |