श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 752

सूही महला १ ॥ जिउ आरणि लोहा पाइ भंनि घड़ाईऐ ॥ तिउ साकतु जोनी पाइ भवै भवाईऐ ॥१॥ बिनु बूझे सभु दुखु दुखु कमावणा ॥ हउमै आवै जाइ भरमि भुलावणा ॥१॥ रहाउ ॥ तूं गुरमुखि रखणहारु हरि नामु धिआईऐ ॥ मेलहि तुझहि रजाइ सबदु कमाईऐ ॥२॥ तूं करि करि वेखहि आपि देहि सु पाईऐ ॥ तू देखहि थापि उथापि दरि बीनाईऐ ॥३॥ देही होवगि खाकु पवणु उडाईऐ ॥ इहु किथै घरु अउताकु महलु न पाईऐ ॥४॥ दिहु दीवी अंध घोरु घबु मुहाईऐ ॥ गरबि मुसै घरु चोरु किसु रूआईऐ ॥५॥ गुरमुखि चोरु न लागि हरि नामि जगाईऐ ॥ सबदि निवारी आगि जोति दीपाईऐ ॥६॥ लालु रतनु हरि नामु गुरि सुरति बुझाईऐ ॥ सदा रहै निहकामु जे गुरमति पाईऐ ॥७॥ राति दिहै हरि नाउ मंनि वसाईऐ ॥ नानक मेलि मिलाइ जे तुधु भाईऐ ॥८॥२॥४॥ {पन्ना 752}

पद्अर्थ: आरणि = भट्ठी में। भंनि = गला के। साकतु = ईश्वर से टूटा हुआ मनुष्य, माया ग्रसित जीव। भवै = भटकता है। भवाईअै = (जूनियों में) डाला जाता है।1।

आवै जाइ = पैदा होता है मरता है।1। रहाउ।

गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ा मनुष्य। मेलहि = (हे प्रभू!) तू (गुरू) मिलाता है।2।

देहि = जो तू देता है। थापि = रच के। उथापि = नाश करके। दरि = अंदर, में। बीनाईअै = बीनायी, निगाह, नज़र।3।

होवहि = हो जाएगी। पवणु = स्वास। अउताकु = बैठक।4।

इहु दीवी = दिन दिनों में भी, सफेद दिन होते हुए भी। अंध घोरु = घोर अंधेरा। घबु = घर का माल। मुहाईअै = लुट जाता है। गरबि = अहंकार में। मुसै = चुराता है। रूआईअै = शिकायत की जाए।5।

न लागि = नहीं लग सकता। नामि = नाम से। आगि = तृष्णा की आग। दीपाईअै = जलती है, चमकती है।6।

गुरि = गुरू ने। निहकामु = वासना रहित।7।

दिहै = दिन में ही । मंनि = मन में।8।

अर्थ: (सही जीवन जुगति) समझे बिना मनुष्य (जो भी) कर्म करता है दुख (दुख पैदा करने वाले करता है) दुख ही दुख (सहेड़ता है)। अहंकार के कारण मनुष्य जनम-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है, भटकना में गलत राह पर पड़ा रहता है।1। रहाउ।

जैसे भट्ठी में लोहा डाल के (और) गला के (नए सिरे से) घड़ा जाता है (लोहे से काम आने वाली चीजें बनाई जाती हैं) वैसे ही माया-ग्रसित जीव को जूनियों में डाला जाता है, जनम-मरन के चक्करों में डाल के (उसे तपाया जाता है) (और आखिर गुरू की मेहर से इन दुखों में वह सुमति सीखता है)।1।

हे प्रभू! (भटक-भटक के आखिर) जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है तू उसको (चौरासी के चक्करों से) बचाता है; वह हे प्रभू! तेरा नाम सिमरता है। गुरू (भी) तू अपनी रजा अनुसार ही मिलाता है (जिसको मिलाता है) वही गुरू के शबद को कमाता है (गुरू के शबद के अनुसार आचरण बनाता है)।2।

हे प्रभू! जीव पैदा करके इनकी संभाल भी तू स्वयं ही करता है। जो कुछ तू देता है वही जीवों को मिलता है तू स्वयं पैदा करता है तू स्वयं नाश करता है, सबकी तू अपनी ही निगरानी में संभाल (भी) करता है।3।

जब (शरीर में से) सांसें निकल जाती हैं तो शरीर मिट्टी हो जाता है (जिन महल-माढ़ियों का मनुष्य गुमान करता है) फिर ना ये घर इसको मिलता है ना बैठक मिलती है और ना ये महल मिलता है।4।

(सही जीवन-जुगति समझे बिना) जीव अपने घर का माल (आत्मिक राशि पूँजी) लुटाए जाता है, सफेद दिन होते हुए भी (इसके लिए तो) घोर अंधकार बना रहता है। अहंकार में (गाफ़ल रहने के कारण मोह-रूप) चोर इसके घर (आत्मिक राशि-पूँजी) को लूटता जाता है। (समझ ही नहीं आता) किसके पास शिकायत करे?।5।

जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है उस (की राशि पूँजी) को चोर नहीं पड़ते, गुरू उसको परमात्मा के नाम के द्वारा (आत्मिक सरमाए के चोर की तरफ से) सचेत रखता है। गुरू अपने शबद से (उसके अंदर से तृष्णा) की आग बुझा देता है, और रॅबी ज्योति जगा देता है।6।

परमात्मा का नाम (ही) लाल है रत्न है (शरण पड़े सिख को) गुरू ने ये समझ दी हुई होती है (इस लिए उसे तृष्णा की आग नहीं सताती)। अगर मनुष्य गुरू की शिक्षा प्राप्त कर ले तो वह सदा (माया की) वासना से बचा रहता है।7।

हे नानक! (प्रभू के दर पर अरदास कर- हे प्रभू!) यदि तुझे अच्छा लगे (तो, मेहर कर, और) अपनी संगति में मिला, ताकि रात-दिन (हर वक्त) हे हरी! तेरा नाम मन में बसाया जा सके।8।2।4।

नोट: ‘घरु १०’ की ये दूसरी अष्टपदी है।

सूही महला १ ॥ मनहु न नामु विसारि अहिनिसि धिआईऐ ॥ जिउ राखहि किरपा धारि तिवै सुखु पाईऐ ॥१॥ मै अंधुले हरि नामु लकुटी टोहणी ॥ रहउ साहिब की टेक न मोहै मोहणी ॥१॥ रहाउ ॥ जह देखउ तह नालि गुरि देखालिआ ॥ अंतरि बाहरि भालि सबदि निहालिआ ॥२॥ सेवी सतिगुर भाइ नामु निरंजना ॥ तुधु भावै तिवै रजाइ भरमु भउ भंजना ॥३॥ जनमत ही दुखु लागै मरणा आइ कै ॥ जनमु मरणु परवाणु हरि गुण गाइ कै ॥४॥ हउ नाही तू होवहि तुध ही साजिआ ॥ आपे थापि उथापि सबदि निवाजिआ ॥५॥ देही भसम रुलाइ न जापी कह गइआ ॥ आपे रहिआ समाइ सो विसमादु भइआ ॥६॥ तूं नाही प्रभ दूरि जाणहि सभ तू है ॥ गुरमुखि वेखि हदूरि अंतरि भी तू है ॥७॥ मै दीजै नाम निवासु अंतरि सांति होइ ॥ गुण गावै नानक दासु सतिगुरु मति देइ ॥८॥३॥५॥ {पन्ना 752-753}

पद्अर्थ: मनहु = मन से। अहि = दिन। निसि = रात। राखहि = (हे प्रभू!) तू रखे। धारि = धार के, कर के।1।

लकुटी = छोटी लकड़ी, डंगोरी, डंडी। टोहणी = आसरा देने वाली डंडी (जिससे टोह टोह के रास्ता तलाश जा सके)। रहउ = मैं रहता हूं। टेक = आसरा। मोहणी = मोह लेने वाली।1। रहाउ।

जह = जिधर, जहाँ। देखउ = देखूँ। गुरि = गुरू ने। भालि = ढूँढ के। सबदि = (गुरू के) शबद से। निहालिआ = देख लिया है।2।

सेवी = मैं सेवा करूँ, मैं सिमरूँ। सतिगुर भाइ = गुरू के अनुसार रह के। भंजना = नाश करने वाला।3।

जनमत ही = पैदा होते ही। मरणा = आत्मिक मौत। आइ कै = (जगत में) आ के। जनमु मरणु = जनम से मरन तक (सारी उम्र)।4।

हउ = मैं। तुध ही = तू ही। थापि = पैदा करके। उथापि = नाश करता है। निवाजिआ = आदर मान दिया।5।

देही = शरीर। भसम = राख, मिट्टी। रुलाइ = रुला के, मिला के। कह = कहाँ? विसमादु = हैरानी, आश्चर्यता।6।

हदूरि = अंग संग, (हर जगह) हाजिर।7।

मै = मुझे, मेरे हृदय में। देइ = देता है।8।

अर्थ: मुझे (माया के मोह में) अंधे को परमात्मा का नाम छड़ी (का काम देता) है, (मेरे लिए ये नाम रूपी छड़ी) टोहनी है (जिससे मैं टोह-टोह के जीवन का सही रास्ता ढूँढता हूँ)। (जब) मैं मालिक प्रभू के आसरे रहता हूँ तो मन को मोहने वाली माया मोह नहीं सकती।1। रहाउ।

(हे जिंदे!) परमात्मा के नाम को मन से ना भुला। दिन-रात परमात्मा का नाम सिमरना चाहिए। हे प्रभू! जैसे मेहर करके तूने मुझे (माया के मोह से) बचाया, वैसे मुझे आत्मिक आनंद प्राप्त होता है।1।

(हे प्रभू!) जिधर भी मैं देखता हूँ उधर ही गुरू ने मुझे दिखा दिया है कि तू मेरे साथ ही है। बाहर ढूँढ-ढूँढ के अब गुरू के शबद के माध्यम से मैंने तुझे अपने अंदर देख लिया है।2।

हे माया-रहित प्रभू! गुरू के अनुसार रह के मैं तेरा नाम सिमरता हूँ। हे भ्रम और भय नाश करने वाले प्रभू! जो तुझे अच्छा लगता है मैं उसी को तेरी रजा समझता हूँ।3।

(अगर प्रभू का नाम बिसार दें तो) पैदा होते ही जगत में आते ही आत्मिक मौत का दुख आ घेरता है। परमात्मा के गुण गा के सारा ही जीवन सफल हो जाता है।4।

हे प्रभू! तूने ही (सारा जगत) पैदा किया है, तू स्वयं ही र्पदा करता है स्वयं ही नाश करता है। जिस जीव को तू गुरू के शबद में जोड़ के निवाजता है जिसके अंदर तू (प्रकट) होता है उसके अंदर ‘अहंकार’ नहीं रह जाता।5।

जीवात्मा (अपने शरीर को छोड़ के) शरीर को मिट्टी में मिला के, पता नहीं लगता, कहाँ चली जाती है। आश्चर्यजनक करिश्मा घटित होता है। (पर हे प्रभू!) तू स्वयं ही हर जगह मौजूद है।6।

जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ते हैं वे जानते हैं कि हे प्रभू! तू (किसी भी जगह से) दूर नहीं है, हर जगह तू ही तू है, अंदर भी तू है (बाहर भी तू ही है) तुझे हर जगह हाजिर-नाजिर देखते हैं।7।

हे नानक! (अरदास कर- हे प्रभू!) मेरे अंदर अपने नाम का निवास बख्श, ताकि मेरे अंदर शांति पैदा हो। (तेरी मेहर से) जिसको सतिगुरू शिक्षा देता है, वह दास (तेरे) गुण गाता है।8।3।5।

नोट: ‘घरु १०’ की 3 अष्टपदियां हैं। कुल जोड़ राग सूही में 5।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh