श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 753 रागु सूही महला ३ घरु १ असटपदीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ नामै ही ते सभु किछु होआ बिनु सतिगुर नामु न जापै ॥ गुर का सबदु महा रसु मीठा बिनु चाखे सादु न जापै ॥ कउडी बदलै जनमु गवाइआ चीनसि नाही आपै ॥ गुरमुखि होवै ता एको जाणै हउमै दुखु न संतापै ॥१॥ बलिहारी गुर अपणे विटहु जिनि साचे सिउ लिव लाई ॥ सबदु चीन्हि आतमु परगासिआ सहजे रहिआ समाई ॥१॥ रहाउ ॥ गुरमुखि गावै गुरमुखि बूझै गुरमुखि सबदु बीचारे ॥ जीउ पिंडु सभु गुर ते उपजै गुरमुखि कारज सवारे ॥ मनमुखि अंधा अंधु कमावै बिखु खटे संसारे ॥ माइआ मोहि सदा दुखु पाए बिनु गुर अति पिआरे ॥२॥ {पन्ना 753} पद्अर्थ: नामै ही = परमात्मा के नाम से ही। न जापै = कद्र नहीं पड़ती, समझ नहीं आती। महा रसु = बड़े रस वाला। सादु = स्वाद। चीन्सि = पहचानता। आपै = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को। गुरमुखि = गुरू के बताए हुए राह पर चलने वाला। जाणै = सांझ डालता है। संतापै = दुख देता।1। विटहु = से। जिनि = जिस (गुरू) से। सिउ = से। लिव = लगन, प्रीति। चीनि् = पहचान के। आतमु = अपना आप, स्वै। परगासिआ = रौशन हो जाता है, चमक पड़ता है। सहजे = आत्मिक अडोलता में।1। रहाउ। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। ते = से। उपजै = पैदा होता है, आत्मिक जन्म लेता है। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। बिख = जहर, आत्मिक जीवन को खत्म कर देने वाला जहर। मोहि = मोह में।2। अर्थ: हे भाई! मैं अपने गुरू से सदके जाता हूँ, जिसने (शरण आए मनुष्य की) सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के साथ प्रीति जोड़ दी (भाव, जोड़ देता है)। गुरू के शबद से सांझ डाल के मनुष्य का आत्मिक जीवन चमक उठता है, मनुष्य आत्मिक अडोलता में लीन रहता है।1। रहाउ। हे भाई! परमात्मा के नाम से सब कुछ (सारा रौशन आत्मिक जीवन) होता है, पर गुरू की शरण पड़े बिना नाम की कद्र नहीं पड़ती। गुरू का शबद बड़े रस वाला है मीठा है, जब तक इसे चखा ना जाए, स्वाद का पता नहीं चल सकता। जो मनुष्य (गुरू के शबद के द्वारा) अपने आत्मिक जीवन को पहचानता नहीं, वह अपने मानस जन्म को कौड़ी के बदले (व्यर्थ ही) गवा लेता है। जब मनुष्य गुरू के बताए हुए राह पर चलता है, तब एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालता है, और, (तब) उसे अहंकार का दुख नहीं सता सकता।1। हे भाई! गुरू की शरण पड़ने वाला मनुष्य गुरू के शबद को गाता रहता है, गुरू के शबद को समझता है, गुरू के शबद को विचारता है। उस मनुष्य की जिंद उसका शरीर गुरू की बरकति से नया आत्मिक जन्म लेता है, गुरू की शरण पड़ कर वह अपने सारे काम सँवार लेता है। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य माया के मोह में अंधा हुआ रहता है, वह सदैव अंधों वाला काम ही करता रहता है, जगत में वह वही कमाई करता है जो उसके आत्मिक जीवन के लिए जहर बन जाती है। प्यारे गुरू की शरण पड़े बिना वह मनुष्य माया के मोह में फंस के सदा दुख सहता रहता है।2। सोई सेवकु जे सतिगुर सेवे चालै सतिगुर भाए ॥ साचा सबदु सिफति है साची साचा मंनि वसाए ॥ सची बाणी गुरमुखि आखै हउमै विचहु जाए ॥ आपे दाता करमु है साचा साचा सबदु सुणाए ॥३॥ गुरमुखि घाले गुरमुखि खटे गुरमुखि नामु जपाए ॥ सदा अलिपतु साचै रंगि राता गुर कै सहजि सुभाए ॥ मनमुखु सद ही कूड़ो बोलै बिखु बीजै बिखु खाए ॥ जमकालि बाधा त्रिसना दाधा बिनु गुर कवणु छडाए ॥४॥ {पन्ना 753} पद्अर्थ: सोई = वही मनुष्य। सेवकु = परमात्मा का भक्त। सतिगुर सेवे = गुरू की शरण पड़े। सतिगुर भाऐ = सतिगुर भाय, गुरू की रजा में। साचा सबदु = सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह की बाणी। साची = सदा कायम रहने वाली। साचा = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा। मंनि = मन में। गुरमुखि = गुरू के बताए हुए राह पर चल के। आखै = उचारता है। जाऐ = दूर हो जाती है। आपे = (प्रभू) आप ही। करमु = बख्शिश।3। घाले = (सिमरन की) मेहनत करता है। खटे = नाम धन कमाता है। अलिपतु = निर्लिप। साचै रंगि = सदा स्थिर प्रभू के प्रेम रंग में। राता = रंगा हुआ। गुर कै = गुरू के द्वारा, गुरू के दर पर रह के। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाऐ = प्रेम में। मनमुखु = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। कूड़ो = झूठ ही। जम कालि बाधा = मौत (के पंजे) के बीच बँधा हुआ, आत्मिक मौत (की फाहियों में) बँधा हुआ। दाधा = जलाया हुआ।4। अर्थ: जो मनुष्य गुरू की शरण आ पड़ता है, गुरू की रजा में चलने लग जाता है वह मनुष्य परमात्मा का भक्त बन जाता है। सदा-स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह की बाणी, सदा-स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह (उसके मन में टिकी रहती है), वह मनुष्य सदा कायम रहने वाले मनुष्य को अपने मन में बसाए रखता है। गुरू के बताए हुए राह पर चलने वाला मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह की बाणी उचारता रहता है (जिसकी बरकति से उसके) अंदर से अहंकार दूर हो जाती है। (उसे यकीन बन जाता है कि) परमात्मा स्वयं सब दातें देने वाला है, परमात्मा की बख्शिश अटॅल है। वह मनुष्य (औरों को भी) सदा-स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह सुनाता रहता है।3। हे भाई! जो मनुष्य गुरू के बताए हुए मार्ग पर चलता है, वह (नाम सिमरन की) मेहनत करता है, (नाम-धन) कमाता है, और, (औरों को भी) नाम जपवाता है। सदा-स्थिर प्रभू के प्रेम रंग में रंगीज के वह मनुष्य सदैव (माया के मोह से) निर्लिप रहता है। गुरू के दर पर रह के वह मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिका रहता है, प्रभू के प्रेम में लीन रहता है। पर, अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य सदा ही झूठ बोलता है, (आत्मिक जीवन के खत्म कर देने वाली माया के मोह का) जहर बीजता है, और वही जहर खाता है (उसी जहर को अपने जीवन का सहारा बनाए रखता है)। वह मनुष्य आत्मिक मौत की फाहियों में बँधा रहता है, तृष्णा की आग में जला रहता है। (इस बिपता में से उसको) गुरू के बिना और कोई नहीं छुड़ा सकता।4। सचा तीरथु जितु सत सरि नावणु गुरमुखि आपि बुझाए ॥ अठसठि तीरथ गुर सबदि दिखाए तितु नातै मलु जाए ॥ सचा सबदु सचा है निरमलु ना मलु लगै न लाए ॥ सची सिफति सची सालाह पूरे गुर ते पाए ॥५॥ तनु मनु सभु किछु हरि तिसु केरा दुरमति कहणु न जाए ॥ हुकमु होवै ता निरमलु होवै हउमै विचहु जाए ॥ गुर की साखी सहजे चाखी त्रिसना अगनि बुझाए ॥ गुर कै सबदि राता सहजे माता सहजे रहिआ समाए ॥६॥ {पन्ना 753} पद्अर्थ: सचा = सदा स्थिर रहने वाला। जितु सतिसरि = जिस सच्चे सरोवर में। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने वाले मनुष्य। अठसठि = अढ़सठि। सबदि = शबद में। दिखाऐ = (प्रभू) दिखा देता है। तितु = उस (गुरू शबद तीर्थ) में। नातै = नहाने से। गुर ते = गुरू से।5। हरि तिसु केरा = उस हरी का। केरा = का। दुरमति = खोटी मति (के कारण)। निरमलु = पवित्र। साखी = शिक्षा। सहजे = आत्मिक अडोलता में। कै सबदि = के शबद में। राता = रंगा हुआ। माता = मस्त, लीन। सहजे = आत्मिक अडोलता में।6। अर्थ: जो मनुष्य गुरू की शरण आ पड़ता है उसको प्रभू स्वयं ये सूझ बख्शता है कि जिस सच्चे सरोवर में स्नान करना चाहिए वह सदा कायम रहने वाला तीर्थ (गुरू का शबद ही है) गुरू के शबद में (ही उस प्रभू को) अढ़सठ तीर्थ दिखा देता है (और दिखा देता है कि) उस (गुरू-शबद-तीर्थ) में नहाने से (विकारों की) मैल उतर जाती है। (उस मनुष्य को यकीन बन जाता है कि) गुरू का शबद ही सदा कायम रहने वाला और पवित्र तीर्थ है (उसमें स्नान करने से विकारों की) मैल नहीं लगती, (वह तीर्थ और) मैल नहीं चिपकाता। वह मनुष्य पूरे गुरू के पास से सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा की सिफत-सालाह प्राप्त कर लेता है।5। पर, जो मनुष्य गुरू की शरण नहीं पड़ता, वह (मनुष्य) खोटी मति के कारण ये नहीं कह सकता कि हमारा ये शरीर हमारा ये मन सब कुछ उस प्रभू का ही दिया हुआ है। जब परमात्मा की रजा होती है (मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, उसका मन) पवित्र हो जाता है (उसके) अंदर से अहंकार दूर हो जाता है वह मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिक के गुरू के उपदेश का आनंद लेता है, (गुरू का उपदेश उसके अंदर से) तृष्णा की आग बुझा देता है। वह मनुष्य गुरू के शबद में रंगा जाता है, आत्मिक अडोलता में मस्त हो जाता है, आत्मिक अडोलता में ही लीन रहता है।6। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |