श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 755 रागु सूही महला ३ घरु १० ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ दुनीआ न सालाहि जो मरि वंञसी ॥ लोका न सालाहि जो मरि खाकु थीई ॥१॥ वाहु मेरे साहिबा वाहु ॥ गुरमुखि सदा सलाहीऐ सचा वेपरवाहु ॥१॥ रहाउ ॥ दुनीआ केरी दोसती मनमुख दझि मरंनि ॥ जम पुरि बधे मारीअहि वेला न लाहंनि ॥२॥ गुरमुखि जनमु सकारथा सचै सबदि लगंनि ॥ आतम रामु प्रगासिआ सहजे सुखि रहंनि ॥३॥ गुर का सबदु विसारिआ दूजै भाइ रचंनि ॥ तिसना भुख न उतरै अनदिनु जलत फिरंनि ॥४॥ दुसटा नालि दोसती नालि संता वैरु करंनि ॥ आपि डुबे कुट्मब सिउ सगले कुल डोबंनि ॥५॥ निंदा भली किसै की नाही मनमुख मुगध करंनि ॥ मुह काले तिन निंदका नरके घोरि पवंनि ॥६॥ {पन्ना 755} पद्अर्थ: मरि वंञसी = मर जाएगी। मरि = मर के। खाकु = मिट्टी। थीई = हो जाएगी।1। वाहु = धन्य, साराहनीय। साहिबा = हे मालिक! गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। सलाहीअै = सिफत सालाह करनी चाहिए। सचा = सदा कायम रहने वाला। वेपरवाहु = बेमुथाज।1। रहाउ। केरी = की। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। दझि = जल के। मरंनि = मरते हैं। जम पुरि = जम की पुरी में। मारीअहि = मारे जाते हैं, मार खाते हैं। वेला = मानस जन्म का अवसर। न लाहंनि = नहीं प्राप्त कर सकते।2। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने वाले मनुष्य। सकारथा = सफल। सचै सबदि = सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह की बाणी में। आतम रामु = सर्व व्यापक परमात्मा। सहजे = आत्मिक अडोलता में। सुखि = आनंद में।3। दूजे भाइ = माया के प्यार में। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त।4। करंनि = करते हैं। दुसट = दुष्कर्मी, बुरे लोग। सिउ = समेत। डोबंनि = डुबा देते हैं।5। मुगध = मूर्ख। नरके घोरि = घोर नर्क में, भयानक नर्क में। पवंनि = पड़ते हैं।6। अर्थ: हे मेरे मालिक! तू धन्य है! तू ही सराहनीय है! हे भाई! गुरू की शरण पड़ कर सदा उस परमात्मा की सिफत सालाह करनी चाहिए जो सदा कायम रहने वाला है, और जिस को किसी की मुथाजी नहीं है।1। रहाउ। हे भाई! दुनिया की खुशामदें ना करता फिर, दुनिया तो नाश हो जाएगी। लोगों की महिमा भी ना गाता फिर, ख़लकत भी मर के मिट्टी हो जाएगी।1। हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य दुनिया की मित्रता में ही जल मरते हैं (आत्मि्क जीवन को जला के राख कर लेते हैं। अंत में) जमराज के दर पर चोटें खाते हैं। तब उन्हें (हाथों से फिसल चुका मानस जन्म का) समय नहीं मिलता।2। हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ते हैं, उनका जीवन सफल हो जाता है, क्योंकि वे सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह की बाणी में जुड़े रहते हैं। उनके अंदर सर्व-व्यापक परमात्मा का प्रकाश हो जाता है। वे आत्मिक अडोलता में आनंद में मगन रहते हैं।3। हे भाई! जो मनुष्य गुरू की बाणी को भुला देते हैं, वे माया के मोह में मस्त रहते हैं, उनके अंदर से माया की प्यास-भूख दूर नहीं होती, वे हर वक्त (तृष्णा की आग में) जलते फिरते हैं।4। ऐसे मनुष्य बुरे लोगों से मित्रता बनाए रखते हैं, और संतों से वैर कमाते हैं। वे खुद अपने परिवार समेत (संसार समुंद्र में) डूब जाते हैं, अपनी कुलों को भी (अपने ही अन्य रिश्तेदारों को भी) साथ में ही डुबा लेते हैं।5। हे भाई! किसी की भी निंदा करनी अच्छी बात नहीं है। अपने मन के पीछे चलने वाले मूर्ख मनुष्य ही निंदा किया करते हैं। (लोक-परलोक में) वही बदनामी कमाते हैं और भयानक नर्क में पड़ते हैं।6। ए मन जैसा सेवहि तैसा होवहि तेहे करम कमाइ ॥ आपि बीजि आपे ही खावणा कहणा किछू न जाइ ॥७॥ महा पुरखा का बोलणा होवै कितै परथाइ ॥ ओइ अम्रित भरे भरपूर हहि ओना तिलु न तमाइ ॥८॥ गुणकारी गुण संघरै अवरा उपदेसेनि ॥ से वडभागी जि ओना मिलि रहे अनदिनु नामु लएनि ॥९॥ देसी रिजकु स्मबाहि जिनि उपाई मेदनी ॥ एको है दातारु सचा आपि धणी ॥१०॥ सो सचु तेरै नालि है गुरमुखि नदरि निहालि ॥ आपे बखसे मेलि लए सो प्रभु सदा समालि ॥११॥ मनु मैला सचु निरमला किउ करि मिलिआ जाइ ॥ प्रभु मेले ता मिलि रहै हउमै सबदि जलाइ ॥१२॥ {पन्ना 755} पद्अर्थ: ऐ मन = हे मन! हे जीव! जैसा सेवहि = जैसी तू सेवा भक्ति करता है। तैसा होवहि = तू वैसा ही बन जाता है। तेहे = वैसे ही। कमाइ = कमा के। बीजि = (कर्मों के बीज) बीज के। आपे = आप ही। कहणा किछु न जाइ = (इस नियम में) कोई एतराज नहीं किया जा सकता।7। किते परथाइ = किसी प्रसंग के अनुसार। ओइ = महा पुरुख (बहुवचन शब्द ‘ओह’ से)। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। हहि = होते हैं। तमाइ = लालच, अपनी गरज़।8। गुणकारी = गुण करने वाला, उपकारी, गुरमुखि। संघरै = एकत्र करता है। उपदेसेनि = उपदेश देते हैं। सो = वह (बहुवचन)। जि = जो। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। लऐनि = लेते हैं।9। देसी = देगा। संबाहि = अपना के। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। मेदनी = सृष्टि। धणी = मालिक।10। सचु = सदा कायम रहने वाला। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। नदरि निहालि = ध्यान से देख। समालि = हृदय में संभाल के रख।11। निरमला = पवित्र। सबदि = शबद के द्वारा। जलाइ = जला के।12। अर्थ: हे (मेरे) मन! तू जैसे की सेवा-भक्ति करेगा, वैसे ही कर्म कमा के वैसा ही बन जाएगा। (प्रभू की रजा में ये नियम है कि जीव ने इस कर्म भूमि शरीर में) आप बीज के आप ही (उसका) फल खाना होता है। इस (सत्य) की उलंघ्ना नहीं की जा सकती।7। (उच्च आत्मिक अवस्था वाले) महापुरुषों के वचन किसी प्रसंग के अनुसार होते हैं। वे महापुरुख आत्मिक जीवन देने वाले नाम-रस से भरपूर रहते हैं, उन्हें किसी सेवा आदि का लालच नहीं होता (पर जो मनुष्य उनकी सेवा करता है, उसे उनसे आत्मिक जीवन मिल जाता है)।8। वह महापुरुख औरों को भी (नाम जपने का) उपदेश करते हैं। गुण ग्रहण करने वाला मनुष्य (उनसे) गुण ग्रहण कर लेता है। सो, जो मनुष्य उन महापुरुषों की संगति में रहते हैं, वे बड़े भाग्यशाली हो जाते हैं, वे भी हर वक्त नाम जपने लग जाते हैं।9। हे भाई! जिस परमात्मा ने ये सृष्टि पैदा की है वह स्वयं ही सब जीवों को रिज़क पहुँचाता है। वही स्वयं सब दातें देने वाला है। वह मालिक सदा कायम रहने वाला (भी) है।10। हे भाई! वह सदा कायम रहने वाला परमात्मा तेरे अंग-संग बसता है। गुरू की शरण पड़ कर तू उसको अपनी आँखें से देख ले। (जिस मनुष्य पर वह) स्वयं ही बख्शिश करता है उसको अपने आप ही (अपने चरनों में) जोड़ लेता है। हे भाई! उस प्रभू को सदा अपने दिल में बसाए रख।11। हे भाई! वह सदा कायम रहने वाला परमात्मा (सदा) पवित्र है, (जब तक मनुष्य का) मन (विकारों से) मैला रहे, उस परमात्मा के साथ मिलाप नहीं हो सकता। जीव तब ही उस प्रभू के चरणों से मिल सकता है, जब प्रभू खुद गुरू के शबद से उसके अंदर का अहंकार जला के उसको अपने साथ मिलाता है।12। सो सहु सचा वीसरै ध्रिगु जीवणु संसारि ॥ नदरि करे ना वीसरै गुरमती वीचारि ॥१३॥ सतिगुरु मेले ता मिलि रहा साचु रखा उर धारि ॥ मिलिआ होइ न वीछुड़ै गुर कै हेति पिआरि ॥१४॥ पिरु सालाही आपणा गुर कै सबदि वीचारि ॥ मिलि प्रीतम सुखु पाइआ सोभावंती नारि ॥१५॥ मनमुख मनु न भिजई अति मैले चिति कठोर ॥ सपै दुधु पीआईऐ अंदरि विसु निकोर ॥१६॥ आपि करे किसु आखीऐ आपे बखसणहारु ॥ गुर सबदी मैलु उतरै ता सचु बणिआ सीगारु ॥१७॥ सचा साहु सचे वणजारे ओथै कूड़े ना टिकंनि ॥ ओना सचु न भावई दुख ही माहि पचंनि ॥१८॥ {पन्ना 755} पद्अर्थ: सहु = खसम, पति। ध्रिगु = धिक्कार योग्य। संसारि = संसार में। नदरि = मेहर की निगाह। गुरमती = गुरू की मति ले कर। वीचारि = हरि नाम का विचार करता है।13। मिलि रहा = मैं मिला रह सकता हूँ। रखा = मैं रख सकता हूँ। उर = हृदय। धारि = टिका के। कै हेति पिआरि = के प्यार हित की बरकति से।14। पिरु सालाही = हे भाई! तू प्रभू पति की सिफत सालाह किया कर। वीचारि = सुरति जोड़ के। सबदि = शबद में। मिलि = मिल के।15। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। अति = बहुत। चिति = चिक्त में। सपै = साँप को। विसु = जहर। निकोर = निरोल।16। सबदी = शबद से। सचु = सदा स्थिर टिकने वाला।17। वणजारे = व्यापार करने वाला। ओथै = उस शाह के दरबार में। कूड़े = माया के साथ ही प्यार करने वाले। टिकंनि = टिक सकते। न भावई = न भाए, पसंद नहीं आता। सचु = सदा स्थिर प्रभू का नाम। पचंनि = ख्वार होते हैं।18। अर्थ: हे भाई! अगर वह सदा कायम रहने वाला पति-प्रभू भूल जाए, तो जगत में जीना धिक्कारयोग्य है। जिस मनुष्य पर प्रभू स्वयं मेहर की निगाह करता है, उसे प्रभू नहीं भूलता। वह मनुष्य गुरू की मति की बरकति से हरी-नाम में सुरति जोड़ता है।13। हे भाई! (हम जीवों का कोई अपना जोर नहीं चल सकता) अगर गुरू (मुझे प्रभू से) मिला दे, तो ही मैं मिला रह सकता हूँ, और उस सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा को मैं अपने हृदय में टिका के रख सकता हूँ। हे भाई! गुरू के प्यार की बरकति से जो मनुष्य प्रभू-चरणों में मिल जाए वह फिर कभी वहाँ से नहीं विछुड़ता।14। हे भाई! गुरू के शबद में सुरति जोड़ के तू भी अपने पति-प्रभू की सिफत सालाह किया कर। प्रीतम प्रभू को मिल के जिस जीव स्त्री ने आत्मिक आनंद प्राप्त कर लिया, उसने (लोक-परलोक में) शोभा कमा ली।15। हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्यों का मन परमात्मा के नाम में नहीं भीगता (हरी नाम के साथ प्यार नहीं डालता)। वह मनुष्य अपने मन में मैले और कठोर रहते हैं। अगर साँप को दूध भी पिलाया जाय, तो भी उसके अंदर निरोल जहिर ही टिका रहता है।16। हे भाई! (सब जीवों में व्यापक हो के सब कुछ) प्रभू स्वयं ही कर रहा है। किसको (अच्छा या बुरा) कहा जा सकता है? (गलत रास्ते पर पड़े हुए जीवों पर भी) वह स्वयं ही बख्शिश करने वाला है। जब गुरू के शबद की बरकति से (किसी मनुष्य के मन की) मैल उतर जाती है, तो उसकी आत्मा को सदा कायम रहने वाली स्वतंत्रता मिल जाती है।17। हे भाई! (हरी-नाम की पूँजी का मालिक) शाह-प्रभू सदा कायम रहने वाला है, उसके नाम का व्यापार करने वाले भी अटॅल आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं। पर उस शाह के दरबार में झूठी दुनिया के बनजारे नहीं टिक सकते। उन्हें सदा-स्थिर प्रभू का नाम पसंद नहीं आता, और वे सदा दुख में ही ख्वार होते रहते हैं।18। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |