श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 756 हउमै मैला जगु फिरै मरि जमै वारो वार ॥ पइऐ किरति कमावणा कोइ न मेटणहार ॥१९॥ संता संगति मिलि रहै ता सचि लगै पिआरु ॥ सचु सलाही सचु मनि दरि सचै सचिआरु ॥२०॥ गुर पूरे पूरी मति है अहिनिसि नामु धिआइ ॥ हउमै मेरा वड रोगु है विचहु ठाकि रहाइ ॥२१॥ गुरु सालाही आपणा निवि निवि लागा पाइ ॥ तनु मनु सउपी आगै धरी विचहु आपु गवाइ ॥२२॥ खिंचोताणि विगुचीऐ एकसु सिउ लिव लाइ ॥ हउमै मेरा छडि तू ता सचि रहै समाइ ॥२३॥ {पन्ना 756} पद्अर्थ: मैला = मैले मन वाला। वारो वार = बार बार। पइअै किरति = किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार।19। सचि = सदा स्थिर प्रभू में। सलाही = सिफत सालाह कर। मनि = मन में। दरि सचै = सदा स्थिर प्रभू के दर पर। सचिआरु = सुखरू।20। पूरी = बगैर किसी कमी के। अहि = दिन। निसि = रात। ठाकि रहाइ = रोक के रखता है।21। सालाही = मैं सिफत सालाह करूँ। निवि = झुक के। लागा = लगूँ। पाइ = पैरों पर। सउपी = मैं सौंप दूँ। धरी = धर दूं। आपु = स्वै भाव। गवाइ = गवा के, दूर कर के।22। खिंचोताणि = खींचोतान में, डाँवा डोल हालत में। विगुचीअै = ख्वार होते हैं। लिव लाइ = प्यार जोड़। मेरा = ममता। सचि = सदा स्थिर प्रभू में।23। अर्थ: हे भाई! अहंकार (की मैल) से मैला हुआ ये जगत भटक रहाप है, बार बार जनम-मरन के चक्कर में रहता है, पिछले जन्मों के किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार वैसे ही और कर्म किए जाता है। (कर्मों के बनी इस फाही को) कोई मिटा नहीं सकता।19। हे भाई! अगर मनुष्य साध-संगति में टिका रहे, तो इसका प्यार सदा-स्थिर प्रभू में बन जाता है। हे भाई! तू (साध-संगति में टिक के) सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह किया कर, सदा-स्थिर प्रभू को अपने मन में बसा ले, (इस तरह) सदा-स्थिर प्रभू के दर पे सुर्खरू होगा।20। हे भाई! पूरे गुरू की मति किसी (भी तरह की) कमी के बग़ैर है। (जो मनुष्य गुरू की पूरी मति ले के) दिन-रात परमात्मा का नाम सिमरता है, वह मनुष्य अहंकार और ममता के बड़े रोग को अपने अंदर से रोक देता है।21। हे भाई! (यदि प्रभू मेहर करे तो) मैं अपने गुरू की वडिआई करूँ, झुक झुक के मैं गुरू के चरणों में लगूँ, अपने अंदर से अहंकार को दूर करके अपना मन अपना तन गुरू के हवाले करि दूँ, गुरू के आगे रख दूँ।22। हे भाई! डाँवा-डोल हालत में रहने से दूखी ही हुआ जाता है। एक परमात्मा के साथ ही सुरति जोड़े रख। अपने अंदर से अहंकार दूर कर, ममता दूर कर। (जब मनुष्य अहंकार-ममता दूर करता है) तब सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा में लीन हुआ रहता है।23। सतिगुर नो मिले सि भाइरा सचै सबदि लगंनि ॥ सचि मिले से न विछुड़हि दरि सचै दिसंनि ॥२४॥ से भाई से सजणा जो सचा सेवंनि ॥ अवगण विकणि पल्हरनि गुण की साझ करंन्हि ॥२५॥ गुण की साझ सुखु ऊपजै सची भगति करेनि ॥ सचु वणंजहि गुर सबद सिउ लाहा नामु लएनि ॥२६॥ सुइना रुपा पाप करि करि संचीऐ चलै न चलदिआ नालि ॥ विणु नावै नालि न चलसी सभ मुठी जमकालि ॥२७॥ मन का तोसा हरि नामु है हिरदै रखहु सम्हालि ॥ एहु खरचु अखुटु है गुरमुखि निबहै नालि ॥२८॥ ए मन मूलहु भुलिआ जासहि पति गवाइ ॥ इहु जगतु मोहि दूजै विआपिआ गुरमती सचु धिआइ ॥२९॥ {पन्ना 756} पद्अर्थ: ने = को। सि = वह मनुष्य (से = बहुवचन)। भाइरा = (मेरे) भाई। सचै सबदि = सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह की बाणी में। लगंनि = लगते हैं, चिक्त जोड़ते हैं। सचि = सदा स्थिर प्रभू में। दरि सचै = सदा थिर प्रभू के दर पर।24। से = वह मनुष्य (बहुवचन)। सेवंनि = सिमरते हैं। विकणि = बिकने से। अवगण विकणि = अवगुणों के बिक जाने से। पल्रनि = प्रफुल्लित होते हैं।25। सची भगति = सदा कायम रहने वाली हरी भक्ति। करंनि् = करते हैं। वणंजहि = व्यापार करते हैं। सिउ = साथ, से। लाहा = लाभ। लऐनि = लेते हैं।26। रुपा = चाँदी। संचीअै = इकट्ठा किया जाता है। न चलसी = नहीं चलेगा। सभ = सारी सृष्टि। मुठी = लूट ली। जमकालि = जम काल ने, मौत ने, आत्मिक मौत ने।27। तोसा = रास्ते का खर्च। समालि = संभाल के। अखुटु = कभी ना खत्म होने वाला। गुरमुखि = वह मनुष्य जो गुरू के बताए हुए रास्ते पर चलता है।28। मूलहु = मूल से, परमात्मा से। जासहि = जाएगा। पति = इज्जत। गवाइ = गवा के। मोह = मोह में। मोहि दूजे = दूसरे के मोह में, माया के मोह में। विआपिआ = फसा हुआ है। सचु = सदा कायम रहने वाला परमात्मा।29। अर्थ: हे भाई! वे मनुष्य (मेरे) भाई हैं, जो गुरू की शरण में आ पड़े हैं, और सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह की बाणी में चिक्त जोड़ते हैं। जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू में लीन हो जाते हैं, वह (फिर प्रभू से) नहीं विछुड़ते। वह सदा-स्थिर प्रभू के दर पे (टिके हुए) दिखते हैं।24। हे भाई! वह मनुष्य मेरे भाई हैं मित्र हैं, जो सदा कायम रहने वाले परमात्मा की सेवा-भक्ति करते हैं। (गुणों के बदले) अवगुण बिक जाने से (दूर हो जाने से) वह मनुष्य (आत्मिक जीवन में) प्रफुल्लित होते हैं, वह मनुष्य परमात्मा के गुणों से सांझ पाते हैं।25। हे भाई! गुरू से (आत्मिक) सांझ की बरकति से (उनके अंदर आत्मिक आनंद पैदा होता है, वह परमात्मा की अटल रहने वाली भक्ति करते रहते हैं। वह मनुष्य गुरू के शबद से सदा-स्थिर प्रभू के नाम का व्यापार करते हैं और हरी-नाम (का) लाभ कमाते हैं।26। हे भाई! (कई किस्म के) पाप कर कर के सोना-चाँदी (आदि धन) इकट्ठा करते हैं, पर (जगत से) चलने के वक्त (वह धन मनुष्य के) साथ नहीं जाता। परमात्मा के नाम के बिना और कोई भी चीज मनुष्य के साथ नहीं जाएगी। नाम से विहीन सारी दुनिया आत्मिक मौत के हाथों से लूटी जाती है (अपना आत्मिक जीवन लुटा बैठती है)।27। हे भाई! मनुष्य के मन के लिए परमात्मा का नाम ही (जीवन यात्रा का) खर्च है। इस यात्रा-खर्च को अपने हृदय में संभाल के रखो। ये खर्च कभी समाप्त होने वाला नहीं है। जो मनुष्य गुरू के बताए हुए रास्ते पर चलता है, उसके साथ ये सदा के लिए साथ बनाता है।28। जगत के मूल परमात्मा से टूटे हुए ऐ मन! (अगर तू इसी तरह टूटा रहा तो) अपनी इज्जत गवा के (यहाँ से) जाएगा। ये जगत तो माया के मोह में फसा हुआ है (तू इससे मोह छोड़ दे, और) गुरू की मति पर चल के सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा का नाम सिमरा कर।29। हरि की कीमति ना पवै हरि जसु लिखणु न जाइ ॥ गुर कै सबदि मनु तनु रपै हरि सिउ रहै समाइ ॥३०॥ सो सहु मेरा रंगुला रंगे सहजि सुभाइ ॥ कामणि रंगु ता चड़ै जा पिर कै अंकि समाइ ॥३१॥ चिरी विछुंने भी मिलनि जो सतिगुरु सेवंनि ॥ अंतरि नव निधि नामु है खानि खरचनि न निखुटई हरि गुण सहजि रवंनि ॥३२॥ ना ओइ जनमहि ना मरहि ना ओइ दुख सहंनि ॥ गुरि राखे से उबरे हरि सिउ केल करंनि ॥३३॥ सजण मिले न विछुड़हि जि अनदिनु मिले रहंनि ॥ इसु जग महि विरले जाणीअहि नानक सचु लहंनि ॥३४॥१॥३॥ {पन्ना 756} पद्अर्थ: जसु = शोभा, वडिआई। कै सबदि = के शबद में। सिउ = साथ।30। सहु = शहु, पति प्रभू। रंगुला = रंगीला, आनंद स्वरूप। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। कामणि = जीव स्त्री। रंगु = प्रेम रंग। ता = तब। जा = जब। कै अंकि = की गोद में, के चरणों में।31। मिलनि = मिल जाते हैं। सेवंनि = शरण पड़ते हैं। अंतरि = (हरेक के) अंदर। नवनिधि = धरती के सारे नौ खजाने। खानि = खाते हैं। खरचनि = खर्चते हैं। रवंनि = सिमरते हैं।32। ओइ = (‘ओह’ का बहुवचन)। सहंनि = सहते हैं। गुरि = गुरू ने। उबरे = (जन्म मरन के चक्कर में से) बच गए। सिउ = साथ। केल = आनंद।33। जि = जो। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। जाणीअहि = जाने जाते हैं। सचु = सदा स्थिर प्रभू। लहंनि = लेते हैं, मेल प्राप्त करते हैं।34। अर्थ: हे भाई! परमात्मा किसी मूल्य से नहीं मिल सकता। परमात्मा की महिमा बयान नहीं की जा सकती। जिस मनुष्य का मन और तन गुरू के शबद में रंगा जाता है, वह सदा परमात्मा में लीन रहता है।30। हे भाई! मेरा वह पति-प्रभू आनंद स्वरूप है (जो मनुष्य उसके चरणों में आ जुड़ता है) उसको वह आत्मिक अडोलता में, प्रेम रंग में रंग देता है। जब कोई जीव-स्त्री उस पति-प्रभू के चरणों में लीन हो जाती है, तब उस (की जिंद) को प्रेम-रंग चढ़ जाता है।31। हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ते हैं, वह (प्रभू से) चिरों से विछुड़े हुए भी (प्रभू को) आ मिलते हैं। परमात्मा का नाम (जो, मानो धरती के सारे) नौ खजाने (हैं, उनको) अपने अंदर ही मिल जाते हैं। उस नाम-खजाने को वे खुद इस्तेमाल करते हैं, औरों को बाँटते हैं, वह फिर भी खत्म नहीं होता। आत्मिक अडोलता में टिक के वह मनुष्य परमात्मा के गुण याद करते रहते हैं।32। हे भाई! (गुरू की शरण आ पड़े) वे मनुष्य ना तो पैदा होते हैं ना मरते हैं, ना ही वे (जनम-मरण के चक्कर में) दुख सहते हैं। जिनकी रक्षा गुरू ने कर दी है, वह (जन्म-मरन के चक्करों से) बच गए। वह सदा प्रभू के चरणों में जुड़ के आत्मिक आनंद पाते हैं।33। हे भाई! जो भले मनुष्य हर वक्त प्रभू-चरणों में जुड़े रहते हैं, वह प्रभू-चरणों में मिल के दोबारा कभी नहीं विछुड़ते। पर, हे नानक! इस जगत में ऐसे विरले बंदे ही उघड़ते हैं, जो सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा का मिलाप प्राप्त करते हैं।34।1।3। सूही महला ३ ॥ हरि जी सूखमु अगमु है कितु बिधि मिलिआ जाइ ॥ गुर कै सबदि भ्रमु कटीऐ अचिंतु वसै मनि आइ ॥१॥ गुरमुखि हरि हरि नामु जपंनि ॥ हउ तिन कै बलिहारणै मनि हरि गुण सदा रवंनि ॥१॥ रहाउ ॥ गुरु सरवरु मान सरोवरु है वडभागी पुरख लहंन्हि ॥ सेवक गुरमुखि खोजिआ से हंसुले नामु लहंनि ॥२॥ नामु धिआइन्हि रंग सिउ गुरमुखि नामि लगंन्हि ॥ धुरि पूरबि होवै लिखिआ गुर भाणा मंनि लएन्हि ॥३॥ वडभागी घरु खोजिआ पाइआ नामु निधानु ॥ गुरि पूरै वेखालिआ प्रभु आतम रामु पछानु ॥४॥ {पन्ना 756-757} पद्अर्थ: सूखमु = सूक्ष्म, बहुत बारीक, अदृश्य। अगम = अगम्य, अपहुँच। कितु बिधि = किस तरीके से? कै सबदि = के शबद से। अचिंतु = हमारी सोचों विचारों के बिना ही, सहज सुभाय। मनि = मन में। आइ = आ के।1। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। कै बलिहारणै = से सदके। रवंनि = याद करते हैं।1। रहाउ। सरवरु = सोहणा तालाब। लहंनि् = पा लेते हैं। से = वह (बहुवचन)। हंसुले = सुंदर हंस।2। धिआइनि् = ध्यान करते हैं। रंग = प्यार। सिउ = साथ। नामि = नाम में। धुरि = धुर दरगाह से। पूरबि = पहले जन्म में। भाणा = रजा।3। घरु = हृदय घर। निधानु = खजाना। गुरि पूरे = पूरे गुरू ने। आतम रामु = सर्व व्यापक परमात्मा। पछानु = सांझ पैदा कर।4। अर्थ: हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य सदा परमात्मा का नाम जपते हैं। जो मनुष्य अपने मन में सदा परमात्मा के गुण याद करते रहते हैं, मैं उनसे सदके जाता हूँ।1। रहाउ। हे भाई! परमात्मा अदृश्य है अपहुँच है, (फिर) उसको किस तरीके से मिला जा सकता है? हे भाई! जब गुरू के शबद की बरकति से (मनुष्य के अंदर से उसके मन की) भटकना कट जाती है, तब परमात्मा सहज स्वभाव ही (खुद ही मनुष्य के) मन में आ बसता है।1। हे भाई! गुरू एक सुंदर सा सरोवर है, मान सरोवर है। बड़े भाग्यों वाले मनुष्य उसको पा लेते हैं। गुरू के सन्मुख रहने वाले जिन सेवकों ने तलाश की, वह सुंदर हंस (-गुरसिख उस मान सरोवर में से) नाम (-मोती) पा लेते हैं।2। हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य प्रेम से परमात्मा का नाम सिमरते हैं, और नाम में जुड़े रहते हैं। जिन मनुष्यों के भाग्यों में धुर-दरगाह से पहले से ही लिखा होता है, वही गुरू की रजा को मानते हैं।3। हे भाई! जिन बड़े भाग्यों वाले मनुष्यों ने अपने हृदय-घर की खोज की, उन्होंने (अपने हृदय में से ही) परमात्मा का नाम-खजाना पा लिया। पूरे गुरू ने (उन्हें उनके अंदर ही वह नाम-खजाना) दिखला दिया। हे भाई! तू भी (गुरू की शरण पड़ कर) उस सर्व-व्यापक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल।4। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |