श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 757 सभना का प्रभु एकु है दूजा अवरु न कोइ ॥ गुर परसादी मनि वसै तितु घटि परगटु होइ ॥५॥ सभु अंतरजामी ब्रहमु है ब्रहमु वसै सभ थाइ ॥ मंदा किस नो आखीऐ सबदि वेखहु लिव लाइ ॥६॥ बुरा भला तिचरु आखदा जिचरु है दुहु माहि ॥ गुरमुखि एको बुझिआ एकसु माहि समाइ ॥७॥ सेवा सा प्रभ भावसी जो प्रभु पाए थाइ ॥ जन नानक हरि आराधिआ गुर चरणी चितु लाइ ॥८॥२॥४॥९॥ {पन्ना 757} पद्अर्थ: प्रभु = मालिक। परसादी = कृपा से। मनि = मन में। तितु = उस में। घटि = हृदय में। तितु घटि = उस हृदय में (‘तिसु घटि’ = उसके हृदय में)।5। सभु = यह सारा जगत आकार। अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला। सभ थाइ = हरेक जगह में। लिव लाइ = सुरति जोड़ के।6। किस नो: ‘किसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है। तिचरु = उतना चिर, तब तक। दुहु माहि = मेरे तेर में। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य।7। प्रभ भावसी = (जो) प्रभू को अच्छी लगे। पाऐ थाइ = थाय पाए, कबूल करता है। चरणी = चरणों में।8। अर्थ: हे भाई! एक परमात्मा ही सब जीवों का मालिक है, उसके बराबर का और कोई नहीं हैं। गुरू की कृपा से (जिस) मन में आ बसता है, उसके हृदय में वह प्रत्यक्ष उघड़ ही पड़ता है (उस मनुष्य के जीवन में सुचॅजी तब्दीली आ जाती है)।5। हे भाई! ये सारा जगत-आकार उस अंतरजामी परमात्मा का स्वरूप है। हरेक जगह में ही परमात्मा बस रहा है। हे भाई! गुरू के शबद में सुरति जोड़ के देखो (हरेक जगह वही दिखेगा। जब हरेक जगह वही दिख पड़े, तो) किसी को बुरा कहा नहीं जा सकता।6। हे भाई! मनुष्य उतनी देर ही किसी को अच्छा या बुरा कहता है जब तक वह खुद मेर-तेर में रहता है। जो मनुष्य गुरू के राह पर चलता है, वह (हर जगह) एक प्रभू को ही (बसता) समझता है, वह एक परमात्मा में लीन रहता है।7। हे भाई! वही सेवा-भक्ति प्रभू को पसंद आती है, जो प्रभू कबूल करता है। हे दास नानक! गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य गुरू के चरणों में चिक्त जोड़ के परमात्मा की आराधना करते हैं।8।2।4।9। रागु सूही असटपदीआ महला ४ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ कोई आणि मिलावै मेरा प्रीतमु पिआरा हउ तिसु पहि आपु वेचाई ॥१॥ दरसनु हरि देखण कै ताई ॥ क्रिपा करहि ता सतिगुरु मेलहि हरि हरि नामु धिआई ॥१॥ रहाउ ॥ जे सुखु देहि त तुझहि अराधी दुखि भी तुझै धिआई ॥२॥ जे भुख देहि त इत ही राजा दुख विचि सूख मनाई ॥३॥ तनु मनु काटि काटि सभु अरपी विचि अगनी आपु जलाई ॥४॥ पखा फेरी पाणी ढोवा जो देवहि सो खाई ॥५॥ नानकु गरीबु ढहि पइआ दुआरै हरि मेलि लैहु वडिआई ॥६॥ {पन्ना 757} पद्अर्थ: आणि = ला के, आ के। हउ = मैं। पहि = पास, आगे। आपु = अपना आप। वेचाई = बेच दूँ।1। कै ताई = वासते। करहि = (अगर) तू करे। मेलहि = तू मिला दे। धिआई = मैं ध्याऊँ।1। रहाउ। इत ही = इतु ही, इस (भूख) में ही (‘इत’ की ‘ु’ की मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)। राजा = रजां, मैं तृप्त रहूँ, अघाया रहूँ। मनाई = मनाऊँगा।3। काटि = काट के। सभु = सारा। अरपी = अर्पित करूँ, मैं भेटा कर दूँ। आपु = अपना आप।4। फेरी = फेरूँ। ढोवा = ढोऊँ। देवहि = तू देगा। खाई = मैं खाऊँ।5। वडिआई = उपकार।6। अर्थ: हे प्रभू! अगर तू (मेरे पर) मेहर करे, (मुझे) गुरू मिला दे, तो तेरे दर्शन करने के लिए मैं सदा तेरा नाम सिमरता रहूँगा।1। रहाउ। हे भाई! अगर कोई (सज्जन) मेरा प्रीतम ला के मुझे मिला दे, तो मैं उसके आगे अपना आप बेच दूँ।1। हे प्रभू! (मेहर कर) अगर तू मुझे सुख दे, तो मैं तुझे ही सिमरता रहूँ, दुख में भी मैं तेरी ही आराधना करता रहूँ।2। हे प्रभू! अगर तू मुझे भूखा रखे, तो मैं इस भूख में ही तृप्त रहूँगा, दुख में मैं सुख प्रतीत करूँगा (तेरी ये मेहर जरूर हो जाए कि मुझे तेरे दर्शन हो जाएं)।3। हे प्रभू! (तेरे दर्शन करने की खातिर अगर जरूरत पड़े तो) मैं अपना शरीर अपना मन काट काट के सारा भेटा कर दूँगा, आग में अपने आप को जला (भी) दूँगा।4। हे प्रभू! (तेरे दीदार की खातिर, तेरी संगतों को) मैं पंखा झेलूँगा, पानी ढोऊँगा, जो कुछ तू मुझे (खाने के लिए) देगा वही (खुश हो के) खा लूँगा।5। हे प्रभू! (तेरा दास) गरीब नानक तेरे दर पर आ गिरा है, मुझे अपने चरणों में जोड़ ले, तेरा ये उपकार होगा।6। अखी काढि धरी चरणा तलि सभ धरती फिरि मत पाई ॥७॥ जे पासि बहालहि ता तुझहि अराधी जे मारि कढहि भी धिआई ॥८॥ जे लोकु सलाहे ता तेरी उपमा जे निंदै त छोडि न जाई ॥९॥ जे तुधु वलि रहै ता कोई किहु आखउ तुधु विसरिऐ मरि जाई ॥१०॥ वारि वारि जाई गुर ऊपरि पै पैरी संत मनाई ॥११॥ नानकु विचारा भइआ दिवाना हरि तउ दरसन कै ताई ॥१२॥ {पन्ना 757} पद्अर्थ: अखी = आँखों से। धरी = मैं धर दूँ। तलि = नीचे। फिरि = फिरूँ। मत पाई = शायद (गुरू को) पा लूँ।7। कढहि = तू निकाल ले।8। लोकु = जगत। सलाहे = (मेरी) उपमा करे। न जाई = ना जाऊँ।9। तुधु वलि रहै = तेरी तरफ प्रीति बनी रहे। किहु आखउ = बेशक कोई भी कहता रहे (आखउ = हुकमी भविष्य, अन्न पुरख, एकवचन)। मरि जाइ = मैं आत्मिक मौत मर जाऊँगा।10। जाई = जाऊँ। पै = पड़ कर। पैरी = पैरों पर। संत मनाई = गुरू को प्रसन्न करूँ।11। दिवाना = कमला। हरि = हे हरी! तउ = तेरे। कै ताई = के वास्ते।12। अर्थ: हे प्रभू! (अगर जरूरत पड़े तो) मैं अपनी आँखें निकाल के (गुरू के) पैरों तले रख दूँ, मैं सारी धरती पर तलाश करूँ कि शायद कहीं गुरू मिल जाए।7। हे प्रभू! यदि तू मुझे अपने पास बैठा ले, तो तुझे आराधता रहूँ, अगर तू मुझे (धक्के) मार के (अपने दर से) निकाल दे, तो भी मैं तेरा ही ध्यान धरता रहूँगा।8। हे प्रभू! अगर जगत मुझे अच्छा कहेगा, तो (दरअसल) ये तेरी ही उपमा होगी, अगर (तेरी सिफत सालाह करने के कारण) दुनिया मेरी निंदा करेगी, तो भी मैं (तुझे) छोड़ के नहीं जाऊँगा।9। हे प्रभू! अगर मेरी प्रीति तेरे पास बनी रहे, तो बेशक कोई कुछ भी मुझे कहता फिरे। पर, तुझे भूलते ही, हे प्रभू! मैं आत्मिक मौत मर जाऊँगा।10। हे प्रभू! (तेरे दर्शनों की खातिर) मैं गुरू पर कुर्बान-कुर्बान जाऊँगा, मैं संत-गुरू के चरणों में पड़ के उसको प्रसन्न करूँगा।11। हे हरी! तेरे दर्शन करने की खातिर (तेरा दास) बेचारा नानक कमला हुआ फिरता है।12। झखड़ु झागी मीहु वरसै भी गुरु देखण जाई ॥१३॥ समुंदु सागरु होवै बहु खारा गुरसिखु लंघि गुर पहि जाई ॥१४॥ जिउ प्राणी जल बिनु है मरता तिउ सिखु गुर बिनु मरि जाई ॥१५॥ जिउ धरती सोभ करे जलु बरसै तिउ सिखु गुर मिलि बिगसाई ॥१६॥ सेवक का होइ सेवकु वरता करि करि बिनउ बुलाई ॥१७॥ नानक की बेनंती हरि पहि गुर मिलि गुर सुखु पाई ॥१८॥ {पन्ना 757-758} पद्अर्थ: झखड़ु = झक्खड़, तेज अंधेरी। झागी = मैं झेलूँ, मैं सहने को तैयार हूँ। जाई = मैं जाऊँ।13। सागरु = समुंद्र। गुरसिख = गुरू का सिख। लंघि = लांघ के। पहि = पास। जाई = जाता है।14। जिउ = जैसे। मरि जाई = आत्मिक मौत मर जाता है।15। सोभ करे = सुंदर दिखने लग पड़ती है। बरसै = बरसता है। बिगसाई = खिल पड़ता है, खुश होता है।16। होइ = बन के। वरता = मैं बरतूँ, मैं कार करूँ। बिनउ = विनती। बुलाई = बुलाऊँ।17। गुर मिलि = गुरू को मिल के। गुर सुखु = बड़ा सुख, महा आनंद। पाई = प्राप्त करूँ।18। अर्थ: हे प्रभू! (तेरा मिलाप प्राप्त करने की खातिर) मैं गुरू के दर्शनों के लिए झक्खड़-अंधेरी (अपने सिर पर) झेलने के लिए भी तैयार हूँ, अगर बारिश होने लगे तो भी (बरसती बारिश में ही) मैं गुरू को देखने के लिए जाने को तैयार हूँ।13। हे भाई! खारा समुंद्र भी लांघना पड़े तो भी उसको लांघ के गुरू का सिख गुरू के पास पहुँचता है।14। जैसे प्राणी पानी के बिना मरने लगता है, वैसे ही सिख गुरू को मिले बिना अपनी आत्मिक मौत आ गई समझता है।15। जैसे जब बारिश होती है तब धरती सुंदर लगने लगती है, वैसे ही सिख को मिल के प्रसन्न होता है।16। हे भाई! मैं गुरू के सेवक का सेवक बन के उसके काम करने को तैयार हूँ मैं उसको विनतियाँ कर कर के (खुशी से) बुलाऊँगा।17। नानक की परमात्मा के पास विनती है (- हे प्रभू! मुझे गुरू मिला) गुरू को मिल के मुझे बड़ा आनंद प्राप्त होता है।18। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |