श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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तू आपे गुरु चेला है आपे गुर विचु दे तुझहि धिआई ॥१९॥ जो तुधु सेवहि सो तूहै होवहि तुधु सेवक पैज रखाई ॥२०॥ भंडार भरे भगती हरि तेरे जिसु भावै तिसु देवाई ॥२१॥ जिसु तूं देहि सोई जनु पाए होर निहफल सभ चतुराई ॥२२॥ सिमरि सिमरि सिमरि गुरु अपुना सोइआ मनु जागाई ॥२३॥ इकु दानु मंगै नानकु वेचारा हरि दासनि दासु कराई ॥२४॥ {पन्ना 758}

पद्अर्थ: आपे = आप ही। विचु दे = के द्वारा। गुर विचु दे = गुरू के द्वारा। धिआई = मैं ध्याता रहूँ।19।

तुधु = तुझे। तू है = तू ही, तेरा ही रूप। होवहि = हो जाते हैं। पैज = इज्जत।20।

भंडार = खजाने। हरि = हे हरी! भावै = तेरी रजा होती है।21।

निहफल = व्यर्थ। चतुराई = समझदारी।22।

सिमरि = सिमर के। सोइआ = (माया के मोह की नींद में) सोया हुआ। जागाई = मैं जगाता हूँ।23।

मंगै नानकु = नानक माँगता है। दासनि दासु = दासों का दास। कराई = कराय, बना दे।24।

अर्थ: हे प्रभू! तू स्वयं ही गुरू है, तू खुद ही सिख है। मैं गुरू के द्वारा तुझे ही ध्याता हूँ।19।

हे प्रभू! जो मनुष्य तेरी सेवा-भक्ति करते हैं, वे तेरा ही रूप बन जाते हैं। तू अपने सेवकों की इज्जत (सदा) रखता आया है।20।

हे हरी! तेरे पास तेरी भक्ति के खजाने भरे पड़े हैं। जिस पर तेरी रजा होती है उसको तू (गुरू के द्वारा ये खजाना) दिलवाता है।21।

हे प्रभू! (तेरी भक्ति का खजाना प्राप्त करने के लिए) हरेक समझदारी-चतुराई बेकार है। वही मनुष्य (इस खजाने को) हासिल करता है जिसको तू खुद देता है।22।

हे प्रभू! (तेरी मेहर से) मैं अपने गुरू को बार-बार याद करके (माया के मोह की नींद में) सोए हुए अपने मन को जगाता रहता हूँ।23।

हे प्रभू! (तेरे दर से तेरा) गरीब (दास) नानक एक दान माँगता है– (मेहर कर) मुझे अपने दासों का दास बनाए रख।24।

जे गुरु झिड़के त मीठा लागै जे बखसे त गुर वडिआई ॥२५॥ गुरमुखि बोलहि सो थाइ पाए मनमुखि किछु थाइ न पाई ॥२६॥ पाला ककरु वरफ वरसै गुरसिखु गुर देखण जाई ॥२७॥ सभु दिनसु रैणि देखउ गुरु अपुना विचि अखी गुर पैर धराई ॥२८॥ अनेक उपाव करी गुर कारणि गुर भावै सो थाइ पाई ॥२९॥ रैणि दिनसु गुर चरण अराधी दइआ करहु मेरे साई ॥३०॥ नानक का जीउ पिंडु गुरू है गुर मिलि त्रिपति अघाई ॥३१॥ नानक का प्रभु पूरि रहिओ है जत कत तत गोसाई ॥३२॥१॥ {पन्ना 758}

पद्अर्थ: वडिआई = उपकार। झिड़के = फटकार लगाए।25।

गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। थाइ पाऐ = परवान करता है। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य।26।

जाई = जाता है।27।

रैणि = रात। देखउ = देखूँ। विचि अखी = आँखों में। धराई = बसाए रखूँ।28।

उपाव = (‘अपाउ’ का बहुवचन)। करी = करूँ। गुर भावै = गुरू को अच्छा लगे।29।

आराधी = मैं आराधूँ। साई = हे सांई!।30।

जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। गुर मिलि = गुरू को मिल के। त्रिपति = तृप्ति हो जाती है। अघाई = मैं अघा जाता हूँ।31।

पूरि रहिओ है = व्यापक है। जत = जहाँ। कत = कहाँ। तत = वहाँ। जत कत तत = हर जगह।32।

अर्थ: अगर गुरू (मुझे मेरी किसी भूल के कारण) फटकार दे, तो उसकी वह झिड़क मुझे प्यारी लगती है। अगर गुरू मेरे पर मेहर की निगाह करता है, तो ये गुरू का उपकार है (मुझ में कोई कोई गुण नहीं)।25।

गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य जो वचन बोलते हैं, गुरू उन्हें परवान करता है। अपने मन के पीछे चलने वालों का बोला हुआ कबूल नहीं होता।26।

पाला पड़े, कक्कर पड़े, बर्फ पड़े, फिर भी गुरू का सिख गुरू के दर्शन करने जाता है।27।

मैं भी दिन-रात हर वक्त अपने गुरू के दर्शन करता रहता हूँ। गुरू के चरणों को अपनी आँखों में बसाए रखता हूँ।28।

अगर मैं गुरू (को प्रसन्न करने) के लिए अनेकों ही यत्न करता रहूँ वही प्रयत्न कबूल होता है, जो गुरू को पसंद आता है।29।

हे मेरे पति-प्रभू! (मेरे पर) मेहर कर, मैं दिन-रात हर वक्त गुरू के चरणों का ध्यान धरता रहूँ।30।

नानक की जिंद गुरू के हवाले है, नानक का शरीर गुरू के चरणों में है। गुरू को मिल के मैं तृप्त हो जाता हूँ, अघा जाता हूँ (माया की भूख नहीं रह जाती)।31।

(गुरू की कृपा से ये समझ आती है कि) नानक का प्रभू सब सृष्टि का पति हर जगह व्यापक हो रहा है।32।1।

रागु सूही महला ४ असटपदीआ घरु १०    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

अंदरि सचा नेहु लाइआ प्रीतम आपणै ॥ तनु मनु होइ निहालु जा गुरु देखा साम्हणे ॥१॥ मै हरि हरि नामु विसाहु ॥ गुर पूरे ते पाइआ अम्रितु अगम अथाहु ॥१॥ रहाउ ॥ हउ सतिगुरु वेखि विगसीआ हरि नामे लगा पिआरु ॥ किरपा करि कै मेलिअनु पाइआ मोख दुआरु ॥२॥ सतिगुरु बिरही नाम का जे मिलै त तनु मनु देउ ॥ जे पूरबि होवै लिखिआ ता अम्रितु सहजि पीएउ ॥३॥ सुतिआ गुरु सालाहीऐ उठदिआ भी गुरु आलाउ ॥ कोई ऐसा गुरमुखि जे मिलै हउ ता के धोवा पाउ ॥४॥ कोई ऐसा सजणु लोड़ि लहु मै प्रीतमु देइ मिलाइ ॥ सतिगुरि मिलिऐ हरि पाइआ मिलिआ सहजि सुभाइ ॥५॥ {पन्ना 758}

पद्अर्थ: अंदरि = (मेरे) हृदय में। सचा नेहु = सदा कायम रहने वाला प्यार। प्रीतम आपणै = अपने प्रीतम प्रभू का। निहालु = प्रसन्न। जा = जब। देखा = देखूँ।1।

विसाहु = सरमाया। ते = से। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। अगम = अपहुँच। अथाह = बहुत गहरा।1। रहाउ।

हउ = मैं। वेखि = देख के। विगसिआ = खिल गई हूँ। नामे = नाम में। मेलिअनु = मिला लिए हैं। मोख दुआरु = मुक्ति का दरवाजा।2।

बिरही = प्रेमी। त = तो। देउ = मैं दे दूँ। पूरबि = पहले जन्म में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। सहजि = आत्मिक अडोलता में। पीऐउ = पीऊँ।3।

आलाउ = मैं उच्चारूँ। ता के = उस के। पाउ = पैर।4।

लोड़ि लहु = ढूँढ लो। मै = मुझे। सतिगुरि मिलिअै = अगर गुरू मिल जाए। सुभाइ = प्यार रंग में।5।

अर्थ: हे भाई! पूरे गुरू से मैंने उस परमात्मा का वह नाम सरमाया प्राप्त कर लिया है जो आत्मिक जीवन देने वाला है, जो (गुरू के बिना) अपहुँच है, जो बड़े गहरे दिल वाला है।1। रहाउ।

हे भाई! (गुरू ने) अपने प्यारे प्रभू का सदा कामय रहने वाला प्यार मेरे दिल में पैदा कर दिया है, (तभी तो) जब मैं गुरू को अपने सामने देखता हूँ, तो मेरा तन मेरा मन खिल उठता है।1।

हे भाई! गुरू को देख के मेरी जिंद खिल उठती है, (गुरू की कृपा) परमात्मा के नाम में मेरा प्यार बन गया है। (जिन्हें गुरू ने) मेहर करके (परमात्मा के चरणों से) जोड़ दिया है, उन्होंने (दुनिया के मोह से) खलासी का रास्ता पा लिया।2।

हे भाई! गुरू परमात्मा के नाम का प्रेमी है, अगर मुझे गुरू मिल जाए तो मैं अपना तन अपना मन उसके आगे भेटा रख दूँ। अगर पूर्बले समय में (गुरू के मिलाप के लेख मेरे माथे पर) लिखें हों, तब ही (गुरू से ले के) मैं आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल आत्मिक अडोलता में पी सकता हूँ।3।

हे भाई! सोए हुए भी गुरू की सिफत सालाह करनी चाहिए, उठते समय पर भी मैं गुरू का नाम उचारूँ - अगर ऐसी मति देने वाले गुरू के सन्मुख रहने वाला कोई सज्जन मुझे मिल जाए, तो मैं उसके पैर धोऊँ।4।

हे भाई! मुझे कोई ऐसा सज्जन ढूँढ दो, जो मुझे प्रीतम-गुरू से मिला दे। गुरू के मिलने से ही परमात्मा (का मिलाप) हासिल होता है। (जिसको गुरू मिल जाता है, उसको) परमात्मा आत्मिक अडोलता में प्यार-रंग में मिल जाता है।5।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh