श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सतिगुरु सागरु गुण नाम का मै तिसु देखण का चाउ ॥ हउ तिसु बिनु घड़ी न जीवऊ बिनु देखे मरि जाउ ॥६॥ जिउ मछुली विणु पाणीऐ रहै न कितै उपाइ ॥ तिउ हरि बिनु संतु न जीवई बिनु हरि नामै मरि जाइ ॥७॥ मै सतिगुर सेती पिरहड़ी किउ गुर बिनु जीवा माउ ॥ मै गुरबाणी आधारु है गुरबाणी लागि रहाउ ॥८॥ हरि हरि नामु रतंनु है गुरु तुठा देवै माइ ॥ मै धर सचे नाम की हरि नामि रहा लिव लाइ ॥९॥ {पन्ना 759}

पद्अर्थ: सागरू = समुंद्र। तिसु = उस (गुरू) को। हउ = मैं। न जीवऊ = (आत्मिक जीवन) जी नहीं सकता। मरि जाउ = मर जाऊँ, मेरी आत्मा की मौत हो जाती है।6।

कितै उपाइ = किसी भी यतन से। न जीवई = न जीए, आत्मिक जीवन कायम नहीं रख सकता।7।

सेती = साथ। पिरहड़ी = प्यार। किउ जीवा = कैसे जीऊँ? कैसे जी सकता हूँ? माउ = हे माँ! आधारु = आसरा। लागि रहाउ = लग के टिक सकता हूँ।8।

तुठा = प्रसन्न। माइ = हे माँ! धर = आसरा। नामि = नाम में। लिव लाइ = सुरति जोड़ के। रहा = रह सकता हूँ।9।

अर्थ: हे भाई! गुरू गुणों का समुंद्र है, परमात्मा के नाम का समुंद्र है। उस गुरू के दर्शन की मुझे तांघ लगी हुई है। मैं उस गुरू के बिना एक घड़ी भर के लिए भी आत्मिक जीवन कायम नहीं रख सकता। गुरू के दर्शन किए बिना मेरी आत्मिक मौत हो जाती है।6।

हे भाई! जैसे मछली पानी के बिना और किसी भी यत्न से जीवित नहीं रह सकती, वैसे ही परमात्मा के बिना संत भी जीवित नहीं रह सकता। परमात्मा के नाम के बिना वह अपनी आत्मिक मौत समझता है।7।

हे माँ! मेरा अपने गुरू के साथ गहरा प्यार है। गुरू के बिना मैं कैसे जी सकता हूँ? गुरू की बाणी में जुड़ के ही मैं रह सकता हूँ।8।

हे माँ! परमात्मा का नाम रत्न (जैसा कीमती पर्दाथ) है। गुरू (जिस पर) प्रसन्न (होता है, उसको ये रत्न) देता है। सदा-स्थिर रहने वाले प्रभू का नाम ही मेरा आसरा बन चुका है। प्रभू के नाम में सुरति जोड़ के ही मैं रह सकता हूँ।9।

गुर गिआनु पदारथु नामु है हरि नामो देइ द्रिड़ाइ ॥ जिसु परापति सो लहै गुर चरणी लागै आइ ॥१०॥ अकथ कहाणी प्रेम की को प्रीतमु आखै आइ ॥ तिसु देवा मनु आपणा निवि निवि लागा पाइ ॥११॥ सजणु मेरा एकु तूं करता पुरखु सुजाणु ॥ सतिगुरि मीति मिलाइआ मै सदा सदा तेरा ताणु ॥१२॥ सतिगुरु मेरा सदा सदा ना आवै ना जाइ ॥ ओहु अबिनासी पुरखु है सभ महि रहिआ समाइ ॥१३॥ राम नाम धनु संचिआ साबतु पूंजी रासि ॥ नानक दरगह मंनिआ गुर पूरे साबासि ॥१४॥१॥२॥११॥ {पन्ना 759}

पद्अर्थ: गुर बिआनु = गुरू की दी हुई आत्मिक जीवन की सूझ। पदारथु = कीमती चीज। नामो = नाम ही। देइ द्रिढ़ाइ = हृदय में पक्का कर देता है। लहै = हासिल करता है। आइ = आ के।10।

अकथ = जो बयान ना की जा सके। को प्रीतमु = (अगर) कोई प्यारा सज्जन। आइ = आ के। देवा = दूँ। निवि = झुक के। लागा = लगूँ। पाइ = पैरों पर।11।

ऐक तूं = सिर्फ तू ही। सुजाणु = समझदार। सतिगुरि = गुरू ने। मीति = मित्र ने। ताणु = आसरा।12।

आवै = पैदा होता है। जाइ = मरता। अबिनासी = नाश रहित।13।

संचिआ = इकट्ठा किया। साबतु = कभी ना कम होने वाली। मंनिआ = मत्कारा जाता है। साबासि = शाबाश।14।

अर्थ: हे भाई! गुरू की दी हुई आत्मिक जीवन की सूझ एक कीमती चीज है। गुरू का दिया हुआ हरी नाम कीमती पदार्थ है। जिस मनुष्य के भाग्यों में इसकी प्राप्ति लिखी है, वह मनुष्य गुरू के चरणों में आ लगता है, और ये पदार्थ हासिल कर लेता है।10।

हे भाई! प्रभू के प्रेम की कहानी हर कोई बयान नहीं कर सकता। जो कोई प्यारा सज्ज्न मुझे आ के ये कहानी सुनाए, तो मैं अपना मन उसके हवाले कर दूँ, झुक-झुक के उसके पैरों पर गिर पड़ूँ।11।

हे प्रभू! सिर्फ तू ही मेरा (असल) सज्जन है। तू सबको पैदा करने वाला है। सबमें व्यापक है, सबकी जानने वाला है।ं मित्र गुरू ने मुझे तेरे साथ मिला दिया है। मुझे सदा ही तेरा सहारा है।12।

हे भाई! प्यारा गुरू (बताता है कि) परमात्मा सदा ही कायम रहने वाला है। वह ना मरता है न पैदा होता है। वह पुरुख-प्रभू कभी नाश होने वाला नहीं, वह सबमें मौजूद है।13।

हे नानक! (कह–हे भाई!) जिस मनुष्य की पूरे गुरू ने पीठ थप-थपा दी उसने परमात्मा का नाम-धन इकट्ठा कर लिया, उसकी ये राशि-पूँजी सदा अखॅुट रहती है, और उसको प्रभू की दरगाह में सत्कार प्राप्त होता है।14।1।2।11।

नोट:
घरु10 की अष्टपदी---------------1
सूही राग में महला ४ की--------2 अष्टपदियां।
कुल अष्टपदियाँ------------------11


रागु सूही असटपदीआ महला ५ घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

उरझि रहिओ बिखिआ कै संगा ॥ मनहि बिआपत अनिक तरंगा ॥१॥ मेरे मन अगम अगोचर ॥ कत पाईऐ पूरन परमेसर ॥१॥ रहाउ ॥ मोह मगन महि रहिआ बिआपे ॥ अति त्रिसना कबहू नही ध्रापे ॥२॥ बसइ करोधु सरीरि चंडारा ॥ अगिआनि न सूझै महा गुबारा ॥३॥ भ्रमत बिआपत जरे किवारा ॥ जाणु न पाईऐ प्रभ दरबारा ॥४॥ आसा अंदेसा बंधि पराना ॥ महलु न पावै फिरत बिगाना ॥५॥ सगल बिआधि कै वसि करि दीना ॥ फिरत पिआस जिउ जल बिनु मीना ॥६॥ कछू सिआनप उकति न मोरी ॥ एक आस ठाकुर प्रभ तोरी ॥७॥ करउ बेनती संतन पासे ॥ मेलि लैहु नानक अरदासे ॥८॥ भइओ क्रिपालु साधसंगु पाइआ ॥ नानक त्रिपते पूरा पाइआ ॥१॥ रहाउ दूजा ॥१॥ {पन्ना 759}

पद्अर्थ: उरझि रहिओ = उलझा हुआ है, फसा पड़ा है। बिखिआ = माया (का मोह)। कै संगा = के साथ। मनहि = मन पर। बिआपत = जोर डाला हुआ है। तरंगा = लहरें।1।

मन = हे मन! अगम = अपहुँच प्रभू। अगोचर = (अ+गो+चर। गो = ज्ञानेन्द्रियां) जिस तक ज्ञानेन्द्रियाँ नहीं पहुँच सकती। कत = कैसे? ।1। रहाउ।

मगन = मस्ती। बिआपे = फसा हुआ। अति = बहुत। ध्रापे = तृप्त हो जाता, अघा जाता।2।

बसइ = बसै, बसता है। सरीरि = शरीर में। चंडारा = चंडाल। अगिआनि = अज्ञान के कारण, आत्मिक जीवन से बेसमझी के कारण। गुबारा = अंधेरा।3।

भ्रमत = भटकना। बिआपत = माया का जोर। जरे = बंद किए। किवारा = किवाड़, भिक्ति। जाणु न पाईअै = पहुँच नहीं सकते।4।

अंदेसा = चिंता। बंधि = बंधन में। महलु = प्रभू की हजूरी। बिगाना = बेगाना।5।

बिआधि = मानसिक रोग। कै वसि = के काबू में। मीना = मछली।6।

उकति = दलील, विचार। मोरी = मेरी। ठाकुर = हे ठाकुर! तेरी = तेरी।7।

करउ = मैं करता हूँ। अरदासे = आरजू।8।

साध संगु = गुरू की संगति। त्रिपते = तृप्त हुए, अघा गए।1। रहाउ दूजा।

अर्थ: हे मेरे मन! वह पूर्ण परमात्मा कैसे मिले? मनुष्य की बुद्धि से वह परे है, ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से भी उस तक पहुँचा नहीं जा सकता।1। रहाउ।

मनुष्य माया की संगति में फंसा रहता है, मनुष्य के मन को (लोभ की) अनेकों लहरें दबाए रखती हैं।1।

(मनुष्य का मन) मोह की मगनता में दबा रहता है (हर वक्त इसे माया की) बहुत सारी तृष्णा बनी रहती है, किसी भी वक्त (किसी भी तरह से) (इसका मन) तृप्त नहीं होता।2।

मनुष्य के शरीर में चांडाल क्रोध बसता है। आत्मिक जीवन से बेसमझी के कारण (इसकी जीवन-यात्रा में) बहुत अंधकार बना रहता है (जिसके कारण इसे सही जीवन-राह) नहीं सूझता (दिखाई देता)।3।

भटकना और माया का दबाव- (हर वक्त) ये दो किवाड़ बँद रहते हैं, इसलिए मनुष्य परमात्मा के दरबार में नहीं पहुँच सकता।4।

मनुष्य हर वक्त माया की आसा और चिंता-फिक्र के बँधन में पड़ा रहता है, प्रभू की हजूरी प्राप्त नहीं कर सकता, परदेसियों की तरह (राहों से बेराह हुआ) भटकता फिरता है।5।

हे भाई! मनुष्य सारी ही बिमारियों के वश में आया रहता है, जैसे पानी के बिना मछली तड़फती है, वैसे ही ये तृष्णा का मारा हुआ भटकता है।6।

हे प्रभू! (इन सारे विकारों के मुकाबले) मेरी कोई चतुराई कोई विकार चल नहीं सकते। हे मेरे मालिक! सिर्फ तेरी (सहायता की ही) आशा है (कि तू बचा ले)।7।

हे प्रभू! मैं तेरे संत-जनों के आगे विनती करता हूँ, आरजू करता हूँे कि मुझ नानक को (अपने चरणों में) मिलाए रखे।8।

हे नानक! (कह–) जिन मनुष्यों पर परमात्मा दयावान होता है, उनको गुरू की संगति प्राप्त होती है, वह (माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त हो जाते हैं, और, उन्हें पूरन प्रभू मिल जाता है।1। रहाउ दूजा।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh