श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रागु सूही महला ५ घरु ३    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मिथन मोह अगनि सोक सागर ॥ करि किरपा उधरु हरि नागर ॥१॥ चरण कमल सरणाइ नराइण ॥ दीना नाथ भगत पराइण ॥१॥ रहाउ ॥ अनाथा नाथ भगत भै मेटन ॥ साधसंगि जमदूत न भेटन ॥२॥ जीवन रूप अनूप दइआला ॥ रवण गुणा कटीऐ जम जाला ॥३॥ अम्रित नामु रसन नित जापै ॥ रोग रूप माइआ न बिआपै ॥४॥ जपि गोबिंद संगी सभि तारे ॥ पोहत नाही पंच बटवारे ॥५॥ मन बच क्रम प्रभु एकु धिआए ॥ सरब फला सोई जनु पाए ॥६॥ धारि अनुग्रहु अपना प्रभि कीना ॥ केवल नामु भगति रसु दीना ॥७॥ आदि मधि अंति प्रभु सोई ॥ नानक तिसु बिनु अवरु न कोई ॥८॥१॥२॥ {पन्ना 760}

पद्अर्थ: मिथन = नाशवंत। अगनि = (तृष्णा की) आग। सोक = शोक, चिंता। सागर = समुंद्र। करि = कर के। उधरु = बचा ले। हरि नागर = हे सुंदर हरी!।1।

नराइण = हे नारायण! पराइण = आसरा।1। रहाउ।

भै = (‘भउ’ की बहुवचन) सारे डर। साधसंगि = संगति में। भेटन = नजदीक छूता।2।

अनूप = अद्वितीय। रवण = सिमरन।3।

अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। रसन = जीभ (से)। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकती।4।

संगी = साथी। सभि = सारे। पंच = पाँच। बटवारे = लुटेरे, डाकू।5।

बच = वचन। क्रम = कर्म। धिआऐ = ध्याता है।6।

धारि = धारण करके। अनुग्रहु = कृपा। प्रभि = प्रभू ने। रसु = स्वाद।7।

आदि मधि अंति = सदा ही। आदि = जगत के आरम्भ में। मधि = बीच के समय। अंति = आखिर में।8।

अर्थ: हे गरीबों के पति! हे भक्तों के आसरे! हे नारायण! (हम जीव) तेरे सुंदर चरणों की शरण में आए हैं (हमें विकारों से बचाए रख)।1। रहाउ।

हे सुंदर हरी! नाशवंत पदार्थों का मोह, तृष्णा की आग, चिंता के समुंद्र में से कृपा करके (हमें) बचा ले।1।

हे निआसरों के आसरे! हे भक्तों के सारे डर दूर करने वाले! (मुझे गुरू की संगति बख्श), गुरू की संगति में रहने से जमदूत (भी) नजदीक नहीं फटकते (मौत का डर नहीं व्यापता)।2।

हे जिंदगी के श्रोत! हे अद्वितीय प्रभू! हे दया के घर! (अपनी सिफत-सालाह बख्श), तेरे गुणों को याद करने से मौत के जंजाल कट जाते हैं।3।

हे भाई! जो मनुष्य अपनी जीभ से सदा आत्मि्क जीवन देने वाला हरी-नाम जपता है, उस पर ये माया जोर नहीं डाल सकती, जो सारे रोगों का मूल है।4।

हे भाई! सदा परमात्मा का नाम जपा कर (जो जपता है) वह (अपने) सारे साथियों को (संसार-समुंद्र से) पार लंघा लेता है पाँचों लुटेरे उस पर दबाव नहीं डाल सकते।5।

हे भाई! जो मनुष्य अपने मन से, कर्मों से एक परमात्मा का ध्यान धरे रखता है, वह मनुष्य (मानस जन्म के) सारे फल हासिल कर लेता है।6।

हे भाई! परमात्मा ने कृपा करके जिस मनुष्य को अपना बना लिया, उसको उसने अपना नाम बख्शा, उसको अपनी भक्ति का स्वाद दिया।7।

हे नानक! वह परमात्मा ही जगत के आरम्भ से है, अब भी है, जगत के आखिर में भी रहेगा। उसके बिना (उसके जैसा) और कोई नहीं है।8।1।2।

रागु सूही महला ५ असटपदीआ घरु ९    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जिन डिठिआ मनु रहसीऐ किउ पाईऐ तिन्ह संगु जीउ ॥ संत सजन मन मित्र से लाइनि प्रभ सिउ रंगु जीउ ॥ तिन्ह सिउ प्रीति न तुटई कबहु न होवै भंगु जीउ ॥१॥ पारब्रहम प्रभ करि दइआ गुण गावा तेरे नित जीउ ॥ आइ मिलहु संत सजणा नामु जपह मन मित जीउ ॥१॥ रहाउ ॥ देखै सुणे न जाणई माइआ मोहिआ अंधु जीउ ॥ काची देहा विणसणी कूड़ु कमावै धंधु जीउ ॥ नामु धिआवहि से जिणि चले गुर पूरे सनबंधु जीउ ॥२॥ {पन्ना 760}

पद्अर्थ: रहसीअै = खिल उठता है। किउ = कैसे? किस प्रकार? संगु = साथ। सजन = गुरमुख। मन मित्र = मन के मेली, असली मित्र। से = वह (बहुवचन)। लाइनि = लगाते हैं। रंगु = प्यार। सिउ = साथ। तुटई = टूटता है। भंगु = टूटना।1।

पारब्रहम प्रभ = हे पारब्रहम! हे प्रभू! गावा = मैं गाऊँ। जपह = हम जपें।1। रहाउ।

देखै सुणे न जाणई = ना देखे, ना सुने, ना जाने। मोहिआ = मोह में फसा हुआ। अंधु = अंधा। काची = कच्चे घड़े जैसी। विणसणी = नाशवंत। कूड़ धंधु = झूठा धंधा। धिआवहि = ध्याते हैं। जिणि = जीत के (शब्द ‘जिनि’ और ‘जिणि’ में फर्क याद रखें)। सनबंधु = मिलाप।2।

अर्थ: हे पारब्रहम! हे प्रभू! (मेरे मित्र) मेहर कर, मैं सदा तेरे गुण गाता रहूँ। हे संत जनो! हे सज्जनो! हे मेरे मन के मेलियो! आ के मिलो (इकट्ठे बैठें, और) परमात्मा का नाम जपें।1। रहाउ।

हे प्रभू! उन गुरमुखों का साथ कैसे प्राप्त हो, जिनके दर्शन करने से मन खिल उठता है? हे भाई! वही मनुष्य (मेरे वास्ते) सज्जन हैं, संत हैं, मेरे असली मेली हैं, जो परमात्मा के सथ मेरा प्यार जोड़ दें। हे प्रभू! (मेहर कर) उनके साथ मेरा प्यार ना टूटे, उनसे मेरे संबंध कभी खत्म ना हों।1।

हे भाई! माया के मोह में फसा हुआ मनुष्य (आत्मिक जीवन की ओर से) अंधा हो जाता है, वह (अस्लियत को) ना देख सकता है, ना सुन सकता है, ना ही समझ सकता है। (उसे ये नहीं सूझता कि) कच्चे घड़े जैसा ये शरीर नाश होने वाला है, वह हर वक्त नाशवान पदार्थों की खातिर ही दौड़-भाग करता रहता है। हे भाई! जो मनुष्य पूरे गुरू का मिलाप (हासिल करके) परमात्मा का नाम जपते हैं, वह (मानस जनम की बाजी) जीत के यहाँ से जाते हैं।2।

हुकमे जुग महि आइआ चलणु हुकमि संजोगि जीउ ॥ हुकमे परपंचु पसरिआ हुकमि करे रस भोग जीउ ॥ जिस नो करता विसरै तिसहि विछोड़ा सोगु जीउ ॥३॥ आपनड़े प्रभ भाणिआ दरगह पैधा जाइ जीउ ॥ ऐथै सुखु मुखु उजला इको नामु धिआइ जीउ ॥ आदरु दिता पारब्रहमि गुरु सेविआ सत भाइ जीउ ॥४॥ थान थनंतरि रवि रहिआ सरब जीआ प्रतिपाल जीउ ॥ सचु खजाना संचिआ एकु नामु धनु माल जीउ ॥ मन ते कबहु न वीसरै जा आपे होइ दइआल जीउ ॥५॥ {पन्ना 760}

पद्अर्थ: हुकमे = हुकमि ही, प्रभू के हुकम अनुसार ही। जुग = जगत। चलणु = कूच। संजोगि = कारणों के संजोग से। परपंचु = जगत रचना। रस भोग = रसों के भोग। तिसहि = उसको ही। सोगु = चिंता।3।

तिसहि: ‘तिसु’ की ‘सु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

जिस नो: (‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।

प्रभ भाणिआ = जो प्रभू को अच्छा लगा। पैधा = इज्जत से, सिरोपा ले के। जाइ = जाता है। अैथै = इस लोक में। उजला = रौशन। पारब्रहमि = पारब्रहम ने। सत भाइ = सच्ची भावना से।4।

थान थनंतरि = स्थान स्थान अंतर, हरेक जगह में। प्रतिपाल = पालने वाला। सचु = सदा स्थिर रहने वाला नाम। संचिआ = इकट्ठा किया। ते = से। कबहू = कभी भी। आपे = आप ही।5।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के हुकम अनुसार ही (जीव) जगत में आता है, हुकम के अनुसार ही संयोग बनने पर (जीव यहाँ से) कूच कर जाता है। प्रभू की रजा में जगत-पसारा पसरा है, रजा में ही जीव यहाँ रसों के भोग भोगता है। (इन रसों में फस के) जिस मनुष्य को करतार भूल जाता है, ये विछोड़ा उसके अंदर चिंता-फिक्र डाले रखता है।3।

हे भाई! जो मनुष्य अपने प्रभू को अच्छा लगने लग जाता है, वह प्रभू की दरगाह में इज्जत के साथ जाता है। उसे इस लोक में सुख मिला रहता है, परलोक में भी वह सुर्ख-रू होत है (क्योंकि वह) परमात्मा का ही नाम सिमरता रहता है। उसने (यहाँ) अच्छी भावना से गुरू का आसरा लिए रखा, (इस वास्ते) परमात्मा ने उसे आदर बख्शा।4।

हे भाई! जो परमात्मा हरेक जगह में व्यापक है, जो सारे जीवों की पालना करने वाला है जब वह स्वयं ही जिस जीव पर दयावान होता है उसके मन से वह कभी नहीं भूलता। वह मनुष्य सदा कायम रहने वाला हरी-नाम-खजाना इकट्ठा करता है, परमात्मा के नाम को ही वह अपना धन-पदार्थ बनाता है।5।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh