श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आवणु जाणा रहि गए मनि वुठा निरंकारु जीउ ॥ ता का अंतु न पाईऐ ऊचा अगम अपारु जीउ ॥ जिसु प्रभु अपणा विसरै सो मरि जमै लख वार जीउ ॥६॥ साचु नेहु तिन प्रीतमा जिन मनि वुठा आपि जीउ ॥ गुण साझी तिन संगि बसे आठ पहर प्रभ जापि जीउ ॥ रंगि रते परमेसरै बिनसे सगल संताप जीउ ॥७॥ तूं करता तूं करणहारु तूहै एकु अनेक जीउ ॥ तू समरथु तू सरब मै तूहै बुधि बिबेक जीउ ॥ नानक नामु सदा जपी भगत जना की टेक जीउ ॥८॥१॥३॥ {पन्ना 761}

पद्अर्थ: आवणु = पैदा होना। जाणा = मरना। रहि गऐ = खत्म हो गए। मनि = मन में। वुठा = आ बसा। ता का = उस (प्रभू) का। अगम = अपहुँच। अपारु = जिसके अस्तित्व का परला छोर ना मिल सके। मरि = मर के।6।

साचु नेहु = सदा कायम रहने वाला प्यार। तिन संगि = उनके साथ। जापि = जप के। रंगि = प्रेम में। रते = रंगे जाते हैं। सगल = सारे। संताप = दुख कलेश।7।

करणहारु = कर सकने वाला। तूहै = तू ही । समरथु = सब ताकतों का मालिक। सरब मै = सबमें व्यापक। बिबेक = (अच्छे बुरे की) परख। जपी = जपीं, मैं जपता रहूँै। टेक = आसरा।8।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के मन में परमात्मा आ बसता है, उसके जन्म-मरण का चक्र समाप्त हो जाता है। हे भाई! उस परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, वह सबसे ऊँची हस्ती वाला है, अपहुँच है, वह बेअंत है। जिस मनुष्य को परमात्मा भूल जाता है, वह लाखों बार पैदा होता मरता रहता है।6।

हे भाई! जिन गुरमुख सज्जनों के मन में परमात्मा आ बसता है, उनके हृदय में प्रभू का सदा कायम रहने वाला प्यार बन जाता है। जो मनुष्य उनकी संगति में बसते हैं, वे भी आठों पहर प्रभू का नाम जप के उनके साथ गुणों की सांझ बना लेते हैं। जो मनुष्य परमात्मा के प्रेम-रंग में रंगे जाते हैं, उनके अंदर से सारे दुख-कलेश दूर हो जाते हैं।7।

हे प्रभू! तू सबको पैदा करने वाला है, तू सब कुछ करने के समर्थ है, तू आप ही आप एक है, (जगत-रचना करके) अनेक रूप भी तू स्वयं ही है। तू सब ताकतों का मालिक है, तू सबमें व्यापक है, (जीवों, को अच्छे-बुरे की) परख की बुद्धि (देने वाला भी) तू स्वयं ही है। हे नानक! (कह–हे प्रभू! अगर तू मेहर करे, तो) तेरे भक्तजनों का आसरा ले के मैं सदा तेरा नाम जपता रहूँ।8।1।3।

रागु सूही महला ५ असटपदीआ घरु १० काफी    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जे भुली जे चुकी साईं भी तहिंजी काढीआ ॥ जिन्हा नेहु दूजाणे लगा झूरि मरहु से वाढीआ ॥१॥ हउ ना छोडउ कंत पासरा ॥ सदा रंगीला लालु पिआरा एहु महिंजा आसरा ॥१॥ रहाउ ॥ सजणु तूहै सैणु तू मै तुझ उपरि बहु माणीआ ॥ जा तू अंदरि ता सुखे तूं निमाणी माणीआ ॥२॥ जे तू तुठा क्रिपा निधान ना दूजा वेखालि ॥ एहा पाई मू दातड़ी नित हिरदै रखा समालि ॥३॥ {पन्ना 761}

पद्अर्थ: भुली = (मैं) भूली, मैं भूलें करती रही हूँ। चुकी = मैं गलतियां करती रही हूँ। साईं = साई, हे पति प्रभू! भी = तो भी। तहिंजी = तेरी। काढीआ = कहलवाती हूँ। नेहु = प्यार। दूजाणे = किसी और से। मरहु = (हुकमी भविष्यत, अॅन पुरख, बहुवचन)। झूरि मरहु = वह बेशक चिंता कर कर के मर जाएं। से = वे (बहुवचन)। वाढीआ = परदेसनें, जिनके पति परदेस में हैं, पति से विछुड़ी हुई, छुटड़ें।1।

हउ = मैं। ना छोडउ = मैं नहीं छोड़ती। पासरा = सोहाना पासा, बढ़िया वाली साईड। रंगीला = आनंद स्वरूप। महिंजा = मेरा।1। रहाउ।

सजणु = मित्र। सैणु = संबंधी। माणीआ = माण। सुखे = सुख में।2।

तुठा = प्रसन्न हुआ। क्रिपा निधान = हे कृपा के खजाने! मू = मैं। दातड़ी = सोहानी दाति। रखा = मैं रखती हूँ। समालि = संभाल के।3।

अर्थ: मैं पति-प्रभू का सोहाना पासा (का उक्तम पक्ष) (कभी भी) नहीं छोड़ूँगी। मेरा वह प्यारा लाल सदा आनंद-स्वरूप है, मेरा यही आसरा है।1। रहाउ।

हे मेरे पति-प्रभू! अगर मैं भूलें करती हूँ, अगर मैं गलतियां करती हूँ, तो भी मैं तेरी ही कहलवाती हूँ (मैं तेरा दर छोड़ के कहीं और जाने को तैयार नहीं हूँ)। जिनका प्यार (तेरे बग़ैर) किसी और से बना हुआ है, वे छुटॅड़ें जरूर झुर-झुर के मर रही हैं (वे पति से विछफड़ी हुई अवश्य चिंता में झुर रही हैं)।1।

हे पति-प्रभू! मेरा तो तू ही सज्जन है, तू ही संबंधी है। मुझे तो तेरे पर ही गर्व है। जब तू मेरे हृदय-घर में बसता है, तब ही मैं सुखी होती हूँ। मुझ निमाणी का तू ही माण है।2।

हे कृपा के खजाने पति-प्रभू! अगर तू मेरे पर दयावान हुआ है, तो (अपने चरणों के बिना) कोई और (आसरा) ना दिखलाना। मैंने तो यही सुंदर दाति पाई हुई है, इसी को मैं सदा अपने हृदय में संभाल-संभाल के रखती हूँ।3।

पाव जुलाई पंध तउ नैणी दरसु दिखालि ॥ स्रवणी सुणी कहाणीआ जे गुरु थीवै किरपालि ॥४॥ किती लख करोड़ि पिरीए रोम न पुजनि तेरिआ ॥ तू साही हू साहु हउ कहि न सका गुण तेरिआ ॥५॥ सहीआ तऊ असंख मंञहु हभि वधाणीआ ॥ हिक भोरी नदरि निहालि देहि दरसु रंगु माणीआ ॥६॥ जै डिठे मनु धीरीऐ किलविख वंञन्हि दूरे ॥ सो किउ विसरै माउ मै जो रहिआ भरपूरे ॥७॥ होइ निमाणी ढहि पई मिलिआ सहजि सुभाइ ॥ पूरबि लिखिआ पाइआ नानक संत सहाइ ॥८॥१॥४॥ {पन्ना 761}

पद्अर्थ: पाव = पैर (‘पाउ’ का बहुवचन)। जुलाई = मैं चलाऊँ। पंध तउ = तेरे रास्ते पर। नैणी = (मेरी इन) आखों को। स्रवणी = कानों से। सुणी = मैं सुनूँ। थीवै = हो जाए। किरपालि = कृपालु, दयावान।4।

किती = कितने ही, अनगिनत। पिरीऐ = हे प्यारे! न पुजनि = नहीं पहुँच सकते। साही हू साहु = शाहों का पातशाह। हउ = मैं। सका = सकूँ।5।

सहीआ = सहेलियां। तऊ = तेरी (दासियां)। असंख = अनगिनत। मंझहु = मेरे से। सभि = सारी। वधाणीआं = बढ़िया, अच्छी। हिक भोरी = एक पल भर ही। नदरि = मेहर की निगाह से। निहालि = देख। माणीआ = मैं माणू, मैं उपभोग करूँ।6।

जै डिठे = जिसे देखने से। धीरीअै = धैर्य पकड़ता है। किलविख = पाप। वंञनि् = वंजनि, चले जाते हैं। माऊ = हे माँ! मै = मुझे।7।

सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। पूरबि = पहले जन्म में। संत सहाइ = गुरू की सहायता से।8।

अर्थ: हे पति-प्रभू! अगर गुरू (मेरे पर) दयावान हो, तो मैं (उससे) अपने कानों से तेरी सिफत-सालाह की बातें सुनती रहूँ, मैं अपने पैरों को तेरे (देश ले जाने वाले) रास्ते पर चलाऊँ। हे प्यारे! (मेरी इन) आँखों को अपने दर्शन दे।4।

हे प्यारे! तू शाहों का पातशाह है। मैं तेरे सारे गुण बयान नहीं कर सकती। अगर में कितने ही लाखों-करोड़ों गुण तेरे बताऊँ, तो भी वह सारे तेरे एक रोम (जितनी महिमा) तक नहीं पहुँच सकते।5।

हे प्यारे! अनगिनत ही सहेलियां तेरे (दर की दासियां) हैं। मुझसे तो वह सारी ही अति उक्तम हैं। एक रक्ती भर समय के लिए ही सही मेरी तरफ भी मेहर भरी निगाह से देख। मुझे भी दर्शन दे ता कि मैं आत्मिक आनंद ले सकूँ।6।

हे माँ! मुझे (भला) वह (प्यारा) कैसे बिसर सकता है, जो सारे जगत में व्यापक है, जिसके दर्शन करने से मन धैर्य धरता है और सारे पाप दुख दूर हो जाते हैं?।7।

हे नानक! (कह–) जब मैं आत्मिक अडोलता में प्रेम में टिक के, आज़िज़ हो के (गुमान त्याग के उसके दर पर) गिर पड़ी, तो वह प्यारा मुझे मिल गया। किसी पूर्बले जन्म में अच्छी किस्मत के लिखे लेखों (के संयोग) मुझे गुरू की सहायता से मिल गए।8।1।4।

सूही महला ५ ॥ सिम्रिति बेद पुराण पुकारनि पोथीआ ॥ नाम बिना सभि कूड़ु गाल्ही होछीआ ॥१॥ नामु निधानु अपारु भगता मनि वसै ॥ जनम मरण मोहु दुखु साधू संगि नसै ॥१॥ रहाउ ॥ मोहि बादि अहंकारि सरपर रुंनिआ ॥ सुखु न पाइन्हि मूलि नाम विछुंनिआ ॥२॥ मेरी मेरी धारि बंधनि बंधिआ ॥ नरकि सुरगि अवतार माइआ धंधिआ ॥३॥ सोधत सोधत सोधि ततु बीचारिआ ॥ नाम बिना सुखु नाहि सरपर हारिआ ॥४॥ {पन्ना 761}

पद्अर्थ: पुकारनि = (जो मनुष्य कर्म-काण्ड आदि का राह) ऊँचा ऊँचा पुकारते बतलाते फिरते हैं। सभि = सारे। गाली = बातें। होछीआं = थोथी बातें।1।

निधानु = खजाना। अपारु = बेअंत। मनि = मन में। साधू संगि = गुरू की संगति में।1। रहाउ।

मोहि = मोह में। बादि = झगड़े में। अहंकारि = अहंकार में। सरपर = जरूर। रुंनिआ = रोते हुए। न पाइनि् = नहीं पाते। मूलि = बिल्कुल। विछुंनिआ = विछुड़े हुए।2।

मेरी मेरी धारि = माया की ममता ख्याल मन में टिका के। बंधनि = (मोह के) बंधनों में। नरकि = नर्क में, दुख में। सुरगि = स्वर्ग में, सुख में। अवतार = जनम।3।

सोधत = विचार करते हुए। सोधि = विचार करके। ततु = अस्लियत। हारिआ = (जीवन की बाजी) हारते हैं।4।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम का बेअंत खजाना (परमात्मा के) भक्तों के हृदय में बसता है। गुरू की संगति में (नाम जपने से) जनम-मरण के दुख और मोह आदि हरेक कलेश दूर हो जाते हैं।1। रहाउ।

हे भाई! जो मनुष्य वेद-पुराण-स्मृतियाँ आदि पुस्तकें पढ़ कर (नाम को किनारे छोड़ के कर्म काण्ड आदि के उपदेश) ऊँचे स्वरों में सुनाते फिरते हैं, वे लोग थोथी बातें करते हैं। परमात्मा के नाम के बिना झूठा प्रचार ही ये सारे लोग करते हैं।1।

हे भाई! प्रभू के नाम से विछुड़े हुए मनुष्य कभी भी आत्मिक आनंद नहीं पाते। वह मनुष्य माया के मोह में, शास्त्रार्थ में, अहंकार में फंस के अवश्य दुखी होते हैं।2।

हे भाई! (परमात्मा के नाम से टूट के) माया की ममता का विचार मन में टिका के मोह के बँधन में बँधे रहते हैं। निरी माया के झमेलों के कारण वे लोग दुख-सुख भोगते रहते हैं।3।

हे भाई! अच्छी तरह पड़ताल करके निर्णय करके हम इस सच्चाई पर पहुँचे हैं कि परमात्मा के नाम के बिना आत्मिक आनंद नहीं मिल सकता। नाम से टूटे रहने वाले अवश्य ही (मनुष्य जन्म की बाजी) हार के जाते हैं।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh