श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 765 रागु सूही महला १ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आवहु सजणा हउ देखा दरसनु तेरा राम ॥ घरि आपनड़ै खड़ी तका मै मनि चाउ घनेरा राम ॥ मनि चाउ घनेरा सुणि प्रभ मेरा मै तेरा भरवासा ॥ दरसनु देखि भई निहकेवल जनम मरण दुखु नासा ॥ सगली जोति जाता तू सोई मिलिआ भाइ सुभाए ॥ नानक साजन कउ बलि जाईऐ साचि मिले घरि आए ॥१॥ घरि आइअड़े साजना ता धन खरी सरसी राम ॥ हरि मोहिअड़ी साच सबदि ठाकुर देखि रहंसी राम ॥ गुण संगि रहंसी खरी सरसी जा रावी रंगि रातै ॥ अवगण मारि गुणी घरु छाइआ पूरै पुरखि बिधातै ॥ तसकर मारि वसी पंचाइणि अदलु करे वीचारे ॥ नानक राम नामि निसतारा गुरमति मिलहि पिआरे ॥२॥ वरु पाइअड़ा बालड़ीए आसा मनसा पूरी राम ॥ पिरि राविअड़ी सबदि रली रवि रहिआ नह दूरी राम ॥ प्रभु दूरि न होई घटि घटि सोई तिस की नारि सबाई ॥ आपे रसीआ आपे रावे जिउ तिस दी वडिआई ॥ अमर अडोलु अमोलु अपारा गुरि पूरै सचु पाईऐ ॥ नानक आपे जोग सजोगी नदरि करे लिव लाईऐ ॥३॥ पिरु उचड़ीऐ माड़ड़ीऐ तिहु लोआ सिरताजा राम ॥ हउ बिसम भई देखि गुणा अनहद सबद अगाजा राम ॥ सबदु वीचारी करणी सारी राम नामु नीसाणो ॥ नाम बिना खोटे नही ठाहर नामु रतनु परवाणो ॥ पति मति पूरी पूरा परवाना ना आवै ना जासी ॥ नानक गुरमुखि आपु पछाणै प्रभ जैसे अविनासी ॥४॥१॥३॥ {पन्ना 764-765} पद्अर्थ: आवहु = आओ। सजणा = हे सज्जन प्रभू! हउ = मैं। देखा = देखूँ। घरि = हृदय घर में, अंतरात्मे। खड़ी तका = खड़ी हो के इन्तजार कर रही हूँ। मै मनि = मेरे मन में। घनेरा = बहुत। प्रभ मेरा = हे मेरे प्रभू! मै = मुझे। निहकेवल = पवित्र, निर्लिप। जाता = पहचाना। तू सोई = तुझे ही। भाइ = प्रेम से। भाउ = प्रेम। भाउ = प्रेम। साचि = सदा स्थिर नाम में जुड़ने से। घरि = हृदय घर में। आऐ = आय, आ के।1। घरि = घर में, हृदय में। आइअड़े साजना = प्यारे सज्जन जी आए, प्यारे सज्जन प्रभू जी प्रकट हुए। ता = तब। धन = जीव स्त्री। खरी = बहुत। सरसी = स+रसी, खुश, प्रसन्न। हरि मोहिअड़ी साच सबदि = साच हरि सबदि मोहिअड़ी, सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह के शबद में आकर्षित किया। रहंसी = एकाग्र चिक्त, अडोल चिक्त। संगि = साथ। जा = जब। रावी = अपने साथ जोड़ लिया, (उसे) पाया। रंगि रातै = प्रेम में रंगे हुए प्रभू ने। मारि = मार के। गुणी = गुणों से। घरु = हृदय। छाइआ = ढक दिया, भरपूर कर दिया। पुरखि = पुरख ने। बिधातै = विधाते ने, सृजनहार ने। तसकर = कामादिक चोर। पंचाइणि = पंचायण में। पंचाइणु = (पंच+अयन। पंच = साध-संगति। अयन = घर) साध-संगति जिसका घर है, जो साध-संगति में बसता है, परमात्मा। वीचारो = विचार, पूरी विचार से। अदलु = न्याय। निसतारा = पार उतारा। मिलहि पिआरे = प्यारे प्रभू जी मिल पड़ते हैं।2। वरु = पति प्रभू। पाइअड़ा = मिल गया। बालड़ीऐ = जिस जीव स्त्री ने। मनसा = इच्छा (मनीषा)। पिरि = पिर ने, पति ने। राविअड़ी = अपने चरणों में जोड़ ली। सबदि = गुरू के शबद से। रवि रहिआ = सब जगह व्यापक (दिखता है)। घटि घटि = हरेक घट में। सबाई नारि = सारी जीव सि्त्रयां। रसीआ = आनंद का मालिक, आनंद का श्रोत। वडिआई = रज़ा। गुरि = गुरू के द्वारा। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। जोग सजोगी = मिलाप के संजो बनाने वाला, योग के संयोग बनाने वाला।3। पिरु = पति प्रभू। उचड़ी = सुंदर ऊँची। उचड़ीअै = सुंदर ऊँची में। माड़ी = महल। माड़ड़ी = सुंदर महल। माड़ड़ीअै = सुंदर महल में। तिहु लोआ = तीनों लोकों का। सिरताजा = सिर का ताज, पति। हउ = मैं। बिखम = हैरान। अनहद = एक रस, बिना बजाए बजने वाला। सबद = नाद, जीवन रौंअ। अगाजा = चारों तरफ गर्जता है। वीचारी = विचारने वाला। करणी = आचरण। सारी = श्रेष्ठ। नीसाणो = नासाणु, परवाना, राहदारी। ठाहर = जगह, ठिकाना। परवाणो = प्रवान, कबूल। पति = इज्जत। पूरी = जिसमें कोई कमी ना हो। परवाना = हुकम। आपु = अपने आप को, अपने जीवन को।4। अर्थ: हे सज्जन प्रभू! आ, मैं तेरे दर्शन कर सकूँ। (हे सज्जन!) मैं अपने हृदय में पूरी सावधानी से तेरा इन्तजार कर रही हूँ, मेरे मन में बड़ा चाव है (कि मुझे तेरे दर्शन हों)। हे मेरे प्रभू! (मेरी विनती) सुन, मेरे मन में (तेरे दर्शनों के लिए) बड़ा ही उत्साह है, मुझे आसरा भी तेरा ही है। (हे प्रभू!) जिस जीव-स्त्री ने तेरे दर्शन कर लिए, वह पवित्र आत्मा हो गई, उसके जनम-मरण के दुख दूर हो गए। उसने सारे जीवों में तुझे ही बसता पहचान लिया, उसके प्रेम (के आर्कषण) के द्वारा तू उसे मिल गया। हे नानक! सज्जन प्रभू से सदके होना चाहिए। जो जीव-स्त्री उसके सदा-स्थिर नाम में जुड़ती है, उसके हृदय में वह आ प्रगट होता है।1। जब सज्जन प्रभू जी जीव-स्त्री के हृदय-गृह में प्रकट होते हैं, तो जीव-स्त्री बहुत प्रसन्न-चिक्त हो जाती है। जब सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह के शबद ने उसको आकर्षित किया, तब ठाकुर जी के दर्शन करके वह अडोल-चिक्त हो गई। जब प्रेम-रंग में रंगे हुए परमात्मा ने जीव-स्त्री को अपने चरणों में जोड़ा तो वह प्रभू के गुणों (की याद) में अडोल-आत्मा हो गई और बहुत प्रसन्न-चिक्त हो गई। पूरन-पुरख ने, सृजनहार ने (उसके अंदर से) अवगुण दूर करके उसके हृदय को गुणों से भरपूर कर दिया कामादिक चोरों को मार के वह जीव-स्त्री उस परमात्मा (के चरणों) में टिक गई जो सदा पूरी विचार से न्याय करता है। हे नानक! परमात्मा के नाम में जुड़ने से संसार-समुंद्र से पार लांघा जाता है, गुरू की शिक्षा पर चलने से प्यारे प्रभू जी मिल पड़ते हैं।2। जिस जीव-स्त्री ने पति-प्रभू को पा लिया, उसकी हरेक आस उसकी हरेक इच्छा पूरी हो जाती है (भाव, उसका मन दुनिया की आशाओं आदि की ओर नहीं दौड़ता भागता)। जिस जीव-स्त्री को प्रभू-पति ने अपने चरणों में जोड़ लिया, जो जीव-स्त्री गुरू के शबद की बरकति से प्रभू में लीन हो गई, उसे प्रभू हर जगह व्यापक दिखाई देता है, उसको अपने से दूर नहीं प्रतीत होता। उसे ये निश्चय हो जाता है कि प्रभू कहीं दूर नहीं हरेक शरीर में वही मौजूद है, सारी जीव-सि्त्रयां उसी की ही हैं। वह स्वयं ही आनंद का श्रोत है, जैसे उसकी रजा होती है वह स्वयं ही अपने मिलाप का आनंद देता है। वह परमात्मा मौत-रहित है, माया में डोलता नहीं उसका मूल्य नहीं पड़ सकता (भाव, कोई पदार्थ भी उसके बराबर का नहीं) वह सदा-स्थिर रहने वाला है, वह बेअंत है, पूरे गुरू के द्वारा ही उसकी प्राप्ति होती है। हे नानक! प्रभू खुद ही जीवों के अपने साथ मेल के संयोग बनाता है, जब वह मेहर की नजर करता है, तब जीव उसमें सुरति जोड़ता है।3। प्रभू-पति एक सोहाने-ऊँचे महल में बसता है (जहाँ माया का प्रभाव नहीं पड़ सकता) वह तीनों लोकों का नाथ है। उसके गुण देख के मैं हैरान हो रही हूँ। चारों तरफ (सारे संसार में) उसकी जीवन-रौंअ एक-रस रुमक रही है। जो मनुष्य प्रभू के सिफत सालाह के शबद को विचारता है (भाव, अपने मन में बसाता है) जिसने ये श्रेष्ठ कर्तव्य बना लिया है, जिसके पास परमात्मा के नाम (रूपी) राहदारी है (उसको प्रभू की हजूरी में जगह मिल जाती है, पर) नाम-हीन खोटे मनुष्य को (उसकी दरगाह में) जगह नहीं मिलती। (प्रभू के दर पर) प्रभू का नाम-रत्न ही कबूल होता है। जिस मनुष्य के पास (प्रभू-नाम का) अ-रुक परवाना है, उसको (प्रभू-दर पर) पूरी इज्जत मिलती है उसकी अक्ल त्रुटि-हीन हो जाती है।, वह जनम-मरन के चक्कर से बच जाता है। हे नानक! गुरू की शरण पड़ कर जो मनुष्य अपने जीवन को पड़तालता है, वह अविनाशी प्रभू का रूप हो जाता है।4।1।3। ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु सूही छंत महला १ घरु ४ ॥ जिनि कीआ तिनि देखिआ जगु धंधड़ै लाइआ ॥ दानि तेरै घटि चानणा तनि चंदु दीपाइआ ॥ चंदो दीपाइआ दानि हरि कै दुखु अंधेरा उठि गइआ ॥ गुण जंञ लाड़े नालि सोहै परखि मोहणीऐ लइआ ॥ वीवाहु होआ सोभ सेती पंच सबदी आइआ ॥ जिनि कीआ तिनि देखिआ जगु धंधड़ै लाइआ ॥१॥ हउ बलिहारी साजना मीता अवरीता ॥ इहु तनु जिन सिउ गाडिआ मनु लीअड़ा दीता ॥ लीआ त दीआ मानु जिन्ह सिउ से सजन किउ वीसरहि ॥ जिन्ह दिसि आइआ होहि रलीआ जीअ सेती गहि रहहि ॥ सगल गुण अवगणु न कोई होहि नीता नीता ॥ हउ बलिहारी साजना मीता अवरीता ॥२॥ गुणा का होवै वासुला कढि वासु लईजै ॥ जे गुण होवन्हि साजना मिलि साझ करीजै ॥ साझ करीजै गुणह केरी छोडि अवगण चलीऐ ॥ पहिरे पट्मबर करि अड्मबर आपणा पिड़ु मलीऐ ॥ जिथै जाइ बहीऐ भला कहीऐ झोलि अम्रितु पीजै ॥ गुणा का होवै वासुला कढि वासु लईजै ॥३॥ आपि करे किसु आखीऐ होरु करे न कोई ॥ आखण ता कउ जाईऐ जे भूलड़ा होई ॥ जे होइ भूला जाइ कहीऐ आपि करता किउ भुलै ॥ सुणे देखे बाझु कहिऐ दानु अणमंगिआ दिवै ॥ दानु देइ दाता जगि बिधाता नानका सचु सोई ॥ आपि करे किसु आखीऐ होरु करे न कोई ॥४॥१॥४॥ {पन्ना 765-766} पद्अर्थ: जिनि = जिस ने, (हे प्रभू!) जिस तू ने। कीआ = पैदा किया है। तिनि = उसने (हे प्रभू!) उस तू ने ही। देखिआ = संभाल की हुई है। धंधड़ै = माया की दौड़ भाग में। दानि तेरै = तेरी बख्शिश से। घटि = जीव के हृदय में। तनि = शरीर में। चंदु दीपाइआ = चाँद चमक रहा है, शीतलता हुलारे दे रही है। दानि हरि कै = परमात्मा की बख्शिश से। सोहै = शोभा देती है। परखि = परख के। मोहणी = मन को मोह लेने वाली, सुंदर स्त्री, वह जीव स्त्री जिसने अपना जीवन सुंदर बना लिया है। मोहणीअै = सुंदर जीव स्त्री ने। सेती = साथ। सोभ = शोभा। वीवाहु = जीव स्त्री का प्रभू से मिलाप। पंच सबद = पाँच किस्मों के साजों के बजने की आवाजें। पंच सबद धुनि = पाँच किस्मों के साजों के बजन से पैदा हुई मिले-जुले सुर, एक रस आनंद। पंच सबदी = एक रस आनंद देने वाला प्रभू। आइआ = हृदय में प्रकट हुआ।1। हउ = मैं। अवरीता = (अवृत) जिन पर माया का पर्दा नहीं पड़ा। जिन सिउ गाडिआ = जिन से मिलाया है। तनु = शरीर। मनु लीअड़ा दीता = जिन का मन लिया है और जिन को अपना मन दिया है, जिनसे दिल की सांझ डाली है। मानु = मन। वीसरहि = भूल जाएं। दिसि आइआ = दिस आया, दीदार करने से। होहि रलीआ = आत्मिक खुशियां पैदा होती हैं। जीअ सेती = जिंद से। गहि रहहि = पकड़ के रखते हैं, लगाए रखते हैं। सबल = सारे। नीता नीता = नित्य, सदा ही।2। वास = (वासु = to make fragrant, सुगंधित करना) सुगंधि, खुशबू। वासुला = सुगंधि देने वाली वस्तुओं का डिब्बा। कढि = निकाल के। लईजै = लेनी चाहिए। साजना मिलि = गुरमुखों के साथ मिल के। साझ = गुणों की सांझ। करीजै = करनी चाहिए। गुणह केरी = गुणों की। केरी = की। छोडि = त्याग के। चलीअै = जीवन-यात्रा में चलना चाहिए। पहिरे = पहन के। पटंबर = (पट+अंबर) रंशम के कपड़े, कोमलता और प्रेम भरा बर्ताव। अडंबर = हार श्रृंगार, सोहाने उद्यम। मलीअै = कब्जा कर लेना चाहिए, कब्जा किया जा सकता है। आपणा पिड़ ु मलीअै = दुनिया के विकारों से मुकाबले के लिए मैदान संभाला जा सकता है, विकारों से टकराव पर कुश्ती जीती जा सकती है। (नोट: जगत में जीव, मानो, पहलवान है। कामादिक विकारों से इसकी कुष्ती हो रही है। जो हार जाता है वह मैदान छोड़ के भाग जाता है)। पिड़ = वह जगह जहाँ कुष्तियाँ होती हैं (दंगल स्थल)। कहीअै = कहना चाहिए। झोलि = हिला के, नितार के, विकारों की गंदगी आदि को परे हटा के। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। पीजै = पीना चाहिए।3। किसु आखीअै = और किसी के आगे गिला नहीं किया जा सकता। ता कउ = उस (परमात्मा) को। जाइ = जा के। किउ भुलै = नहीं भूल सकता। बाझु कहिअै = (जीवों के) कहे बिना ही। दिवै = देता है, देवै। देइ = देता है। जगि = जगत में (सब जीवों को)। बिधाता = सृजनहार। सचु = सदा स्थिर रहने वाला।4। अर्थ: जिस प्रभू ने ये जगत पैदा किया है उसी ने ही इसकी संभाल की हुई है, उसी ने ही इसको माया की दौड़-भाग में लगाया हुआ है। (पर, हे प्रभू!) तेरी बख्शिश से (किसी सौभाग्य भरे) हृदय में तेरी ज्योति का प्रकाश होता है, (किसी सौभाग्यशाली) शरीर में चाँद चमकता है (तेरे नाम की शीतलता हिल्लौरे देती है)। प्रभू की बख्शिश से जिस हृदय में (प्रभू नाम की) शीतलता चमक मारती है उस हृदय में से (अज्ञानता का) अंधकार और दुख-कलेश दूर हो जाता है। जैसे बारात दूल्हे के साथ ही फबती है, वैसे ही जीव-स्त्री के गुण (भी) तभी अच्छे लगते हैं जब प्रभू-पति हृदय में बसता हो। जिस जीव-स्त्री ने अपने जीवन को प्रभू की सिफत सालाह से सुंदर बना लिया है, उस ने इसकी कद्र समझ के प्रभू को अपने हृदय में बसा लिया है। उसका प्रभू-पति से मिलाप हो जाता है, (लोक-परलोक में) उसे शोभा भी मिलती है, एक-रस आत्मिक आनंद का दाता प्रभू उसके हृदय में प्रकट हो जाता है। जिस प्रभू ने ये जगत पैदा किया है वही इसकी संभाल करता है, उसने इसको माया की दौड़-भाग में लगाया हुआ है।1। मैं उन सज्जनों-मित्रों से सदके जाता हॅूँ जिन पर माया का पर्दा नहीं पड़ा जिनकी संगति करके मैंने उनके साथ दिली सांझ डाली है। जिन गुरमुखों के साथ दिली सांझ पड़ सके वे सज्जन कभी भी भूलने नहीं चाहिए। उनका दर्शन करने से आत्मिक खुशियाँ पैदा होती हैं, वह सज्जन (अपने सत्संगियों को अपनी) जान की तरह रखते हैं (जिंद से भी ज्यादा प्यारा समझते हैं)। उनमें सारे ही गुण होते हें, अवगुण उनके नजदीक नहीं फटकते। मैं सदके हूँ उन सज्जन-मित्रों के जिन पर माया अपना असर ना कर सकी।2। (अगर किसी मनुष्य के पास सुगंधि देने वाली वस्तुओं से भरा डिब्बा हो, उस डब्बे का लाभ उसे तब ही है जब वह उस डब्बे को खोल के उससे सुगंधि ले। गुरमुखों की संगति गुणों का डब्बा है) यदि किसी को गुणों का डब्बा मिल जाए, तो वह डब्बा खोल के (डब्बे के भीतर की) सुगंधि लेनी चाहिए। (हे भाई!) अगर तू चाहता है कि तेरे अंदर (भी) गुण पैदा हों, तो गुरमुखों को मिल के उनके साथ गुणों की सांझ करनी चाहिए। (गुरमुखों से) गुणों की सांझ करनी चाहिए, इस तरह (अंदर से) अवगुण त्याग के जीवन-यात्रा पर चला जा सकता है, सबसे प्रेम भरा बर्ताव करके भलाई के सुंदर उद्यम करके विकारों से मुकाबला और जीवन-युद्ध को जीता जा सकता है। (गुरमुखों की संगति की बरकति से फिर) जहाँ भी जा के बैठें भलाई की बात ही की जा सकती है, और बुरी ओर से हट के आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीया जा सकता है। (हे भाई!) अगर किसी को गुणों का डब्बा मिल जाए तो वह डब्बा खोल के (डब्बे की) सुगंधि लेनी चाहिए। (जगत में अनेकों ही जीव गुण कमा रहे हैं, अनेकों ही अवगुण कमा रहे हैं। ये परमात्मा की अपनी ही रची हुई खेल है) परमात्मा स्वयं ही (ये सब कुछ) कर रहा है, उसके बिना और कोई नहीं कर सकता, (तभी तो) किसी और के पास (इसके संबंध में) कोई गिला-शिकवा आदि नहीं किया जा सकता। (फिर जो कुछ वह प्रभू करता है ठीक करता है) वह टूटा हुआ नहीं हैं, इस वास्ते (किसी कमी के बारे में) उसे कुछ कहने की आवश्यक्ता ही नहीं पड़ती। अगर वह टूटा हुआ (व भटका हुआ) हो तो जा के कुछ कहें भी, पर स्वयं करतार कोई भूल नहीं कर सकता। वह सब जीवों की अरदासें सुनता है वह सब जीवों के किए कर्मों को देखता है, माँगे बिना ही सबको दान देता है। हे नानक! वह सृजनहार ही सदा-स्थिर रहने वाला है। वह सब कुछ स्वयं ही करता है, कोई और (उससे आकी हो के) कुछ नहीं कर सकता। किसी और के पास जा के कोई गिला नहीं किया जा सकता।4।1।4। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |