श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सूही महला १ ॥ मेरा मनु राता गुण रवै मनि भावै सोई ॥ गुर की पउड़ी साच की साचा सुखु होई ॥ सुखि सहजि आवै साच भावै साच की मति किउ टलै ॥ इसनानु दानु सुगिआनु मजनु आपि अछलिओ किउ छलै ॥ परपंच मोह बिकार थाके कूड़ु कपटु न दोई ॥ मेरा मनु राता गुण रवै मनि भावै सोई ॥१॥ {पन्ना 766}

पद्अर्थ: राता = रंगा हुआ, रत्र। रवै = याद करता है, सिमरता है। मनि = मन में। सोई = वही, वह प्रभू ही। पउड़ी साच की = सदा स्थिर प्रभू तक पहुँचाने वाली सीढ़ी। साचा = सदा स्थिर रहने वाला। सुखु = आत्मक आनंद। सूखि = आत्मिक आनंद में। सहजि = आत्मिक अडोलता में। आवै = आता है, पहुँचता है। साच भावै = सदा स्थिर प्रभू को प्यारा लगता है।

(नोट: कई बीड़ों में पाठ ‘साचु’ है। इस तरह अर्थ बनता है; उस बंदे को सदा स्थिर प्रभू प्यारा लगता है। पर श्री करतारपुर वाली बीड़ में पाठ ‘साच’ है)।

साच की मति = सदा स्थिर प्रभू के गुण गाने वाली मति। किउ टलै = नहीं टलती, अटल हो जाती है। सुगिआनु = अच्छा ज्ञान, ज्ञान की बातें कर सकने की अच्छी समर्था। मजनु = तीर्थ स्नान। अछलिओ = जो ठगा ना जा सके। किउ छलै = ठॅग नहीं सकता, खुश नहीं कर सकता। परपंच = धोखे। थाके = रह जाते हैं, हार जाते हैं, खत्म हो जाते हैं। दोई = द्वैत, मेर तेर। कपटु = ठॅगी।1।

अर्थ: (परमात्मा के प्यार में) रंगा हुआ मेरा मन (ज्यों-ज्यों परमात्मा के) गुण चेते करता है (त्यों-त्यों) मेरे मन में वह परमात्मा ही प्यारा लगता जाता है। परमात्मा के गुण गाने, मानो, एक सीढ़ी है जो गुरू ने दी है और इस सीढ़ी के माध्यम से सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा तक पहुँचा जा सकता है, (इस सीढ़ी पर चढ़ने की बरकति से मेरे अंदर) सदा-स्थिर रहने वाला आनंद बन रहा है।

जो मनुष्य (इस सीढ़ी की बरकति से) आत्मिक आनंद में आत्मिक अडोलता में पहुँचता है वह सदा-स्थिर प्रभू को प्यारा लगता है। सदा-स्थिर प्रभू के गुण गाने वाली उसकी मति अटल हो जाती है। परमात्मा अटल है। (अगर गुण गाने वाली मति नहीं बनी तो) कोई स्नान, कोई दान, कोई ज्ञान की चोंच-चर्चा, और कोई तीर्थ स्नान परमात्मा को खूश नहीं कर सकते। (गुण गाने वाले मनुष्य के मन में से) धोखे-फरेब, मोह के चमत्कार, विकार आदि सब समाप्त हो जाते हैं। उसके अंदर ना झूठ रह जाता है, ना ठॅगी रहती है, ना ही मेर-तेर रहती है।

(प्रभू के प्यार में) रंगा हुआ मेरा मन (ज्यों-ज्यों प्रभू के) गुण गाता है (त्यों-त्यों) मेरे मन में वह प्रभू ही प्यारा लगता जा रहा है।1।

साहिबु सो सालाहीऐ जिनि कारणु कीआ ॥ मैलु लागी मनि मैलिऐ किनै अम्रितु पीआ ॥ मथि अम्रितु पीआ इहु मनु दीआ गुर पहि मोलु कराइआ ॥ आपनड़ा प्रभु सहजि पछाता जा मनु साचै लाइआ ॥ तिसु नालि गुण गावा जे तिसु भावा किउ मिलै होइ पराइआ ॥ साहिबु सो सालाहीऐ जिनि जगतु उपाइआ ॥२॥ {पन्ना 766}

पद्अर्थ: जिनि = जिस (साहब) ने। कारणु = जगत। मनि मैलिअै = अगर मन मैला रहे, अगर मन को विकारों की मैल लगी रहे। किनै = किसी विरले ने, किसी ने नहीं। मथि = मथ के, बार बार जप के। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। मनु दीआ = मन (गुरू को) दे दिया। मोलु = मूल्य, कीमत। सहजि = आत्मिक अडोलता में। साचै = सदा स्थिर रहने वाले प्रभू में। तिसु नालि = उस प्रभू के चरणों में जुड़ के। गावा = मैं गा सकता हूँ। तिसु भावा = उस प्रभू को अच्छा लगूँ। किउ मिलै = नहीं मिल सकता। होइ = हो के। पराइआ = बेगाना।2।

अर्थ: उस मालिक प्रभू की सिफत-सालाह करनी चाहिए जिसने जगत पैदा किया है। (सिफत-सालाह किए बिना मनुष्य के मन में विकारों की) मैल लगी रहती है, और अगर मन (विकारों से) मैला टिका रहे तो कोई भी नाम-अमृत पी नहीं सकता। (पर इस नाम-अमृत की प्राप्ति के लिए भी मूल्य चुकाना पड़ता है) मैंने गुरू से मूल्य डलवाया (तो उसने बताया कि) जिसने अपना ये मन (गुरू के) हवाले किया उसने बार-बार सिमर के नाम-अमृत पी लिया। (गुरू के बताए हुए राह पर चल कर) जब किसी मनुष्य ने अपना मन (मैल से हटा के) सदा-स्थिर प्रभू में जोड़ा तो उसने आत्मिक अडोलता में टिक के अपने प्रीतम प्रभू से गहरी सांझ डाल ली।

(पर) मैं तब ही प्रभू-चरणों से जुड़ के प्रभू के गुण गा सकता हूँ अगर प्रभू की रजा ही हो (यदि मैं उसे अच्छा लगने लगूँ)। प्रभू के साथ ऊपर-ऊपर रहने पर प्रभू के साथ मिलाप नहीं हो सकता।

(सो, हे भाई!) उस मालिक प्रभू की (सदा) सिफत सालाह करनी चाहिए जिसने (ये) जगत पैदा किया है।2।

आइ गइआ की न आइओ किउ आवै जाता ॥ प्रीतम सिउ मनु मानिआ हरि सेती राता ॥ साहिब रंगि राता सच की बाता जिनि बि्मब का कोटु उसारिआ ॥ पंच भू नाइको आपि सिरंदा जिनि सच का पिंडु सवारिआ ॥ हम अवगणिआरे तू सुणि पिआरे तुधु भावै सचु सोई ॥ आवण जाणा ना थीऐ साची मति होई ॥३॥ {पन्ना 766}

पद्अर्थ: आइ गइआ = आय गया (जिस मनुष्य के दिल में प्रभू) आ बसा। की न आइओ = उस के पास और क्या कुछ नहीं आया? उसे और क्या ना मिला? उसे किसी और चीज की तमन्ना ना रही। जाता = वह क्यों पैदा होगा और मरेगा? उसका जनम मरण समाप्त हो जाता है। सेती = साथ। राता = रंगा जाता है। रंगि = रंगमें। सच की बाता = सदा स्थिर प्रभू की बातें। जिनि = जिस प्रभू ने। बिंब का कोटु = पानी की बूँद से शरीर किला। पंच भू = पंच तत्व। नाइको = मालिक। सिरंदा = पैदा करने वाला। सच = सदा स्थिर रहने वाला। सच का पिंडु = (सदा स्थिर प्रभू ने) अपने रहने के वास्ते शरीर। सवारिआ = सजाया। तुधु = तूझे। सचु = सदा स्थिर परमात्मा की सिफत सालाह करने वाली बूद्धि।3।

अर्थ: जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा आ बसे, उसे किसी और पदार्थ की लालसा नहीं रह जाती, उसका जनम-मरण समाप्त हो जाता है। उसका मन प्रीतम-प्रभू में रीझ जाता है, प्रभू के प्रेम से रंगा जाता है। उसका मन उस मालिक के रंग में रंगा जाता है, वह उस सदा-स्थिर मालिक की सिफत सालाह की बातें करता रहता है जिसने पानी की बूँद से शरीर किले का निर्माण किया है, जो पाँच तत्वों का मालिक है, जो स्वयं ही (शरीर जगत को) पैदा करने वाला है, जिसने अपने रहने के लिए मनुष्य का शरीर सजाया है।

हे प्यारे प्रभू! तू (मेरी विनती) सुन। हम जीव अवगुणों से भरे हुए हैं (तू स्वयं ही अपनी सिफत सालाह की दाति दे के हमें पवित्र करने वाला है) जो जीव (तेरी मेहर से) तुझे पसेंद आ जाता है वह तेरा ही रूप हो जाता है। उसके जनम-मरन के चक्कर समाप्त हो जाते हैं, उसकी बुद्धि अभुल हो जाती है (वह सद्बुद्धि वाला हो जाता है)।3।

अंजनु तैसा अंजीऐ जैसा पिर भावै ॥ समझै सूझै जाणीऐ जे आपि जाणावै ॥ आपि जाणावै मारगि पावै आपे मनूआ लेवए ॥ करम सुकरम कराए आपे कीमति कउण अभेवए ॥ तंतु मंतु पाखंडु न जाणा रामु रिदै मनु मानिआ ॥ अंजनु नामु तिसै ते सूझै गुर सबदी सचु जानिआ ॥४॥ {पन्ना 766}

पद्अर्थ: अंजनु = सुरमा। अंजनु तैसा अंजीअै = वैसा सुर्मा (आँखों में) डालना चाहिए, आत्मिक जीवन की प्राप्ति के लिए वैसा उद्यम करना चाहिए।

(नोट: स्त्री अपनी शारीरिक सुंदरता से अपने पति को प्रसन्न करने के लिए अपनी आँखों में सुर्मा डालती है)।

पिर भावै = पति को पसंद आ जाए।

(नोट: ‘पिर भावै’ और ‘पिरु भावै’ में फर्क है जो याद रखना चाहिए)।

जाणावै = जानने में सहायता करे। मारगि = (सही) रास्ते पर। लेवऐ = लेवे, लेता है, अपने वश में कर लेता है।

करम सुकरम = साधारण कर्म और अच्छे कर्म। अभेवऐ = अभेवै, अभेव प्रभू की। अभेव = जिसका भेद ना पाया जा सके। तंतु = तंत्र, टूणा। न जाणा = मैं नहीं जानता। रिदै = हृदय में। तिसै ते = उस परमात्मा से। सचु = सदा स्थिर प्रभू।4।

अर्थ: स्त्री को ऐसा सुर्मा पहनना चाहिए जैसा उसके पति को अच्छा लगे (जीव-स्त्री को प्रभू-पति के मिलाप के लिए ऐसे उद्यम करने चाहिए जो प्रभू-पति को पसंद आए)। (पर जीव के भी वश में क्या है?) जब परमात्मा खुद समझ बख्शे, तब ही जीव (सही रास्ता) समझ सकता है, तब ही जीव को सूझ आ सकती है, तब ही कुछ जाना जा सकता है। परमात्मा खुद ही समझ देता है, खुद ही सही रास्ते पर डालता है खुद ही जीव के मन को अपनी ओर प्रेरित करता है। साधारण काम और अच्छे काम परमात्मा खुद ही जीव से करवाता है, पर उस प्रभू का भेद नहीं पाया जा सकता, कोई उसकी कीमत नहीं जान सकता।

(परमात्मा का प्यार प्राप्त करने के लिए) मैं कोई जादू-टोना कोई मंत्र आदि पाखण्ड करना नहीं जानती। मैंने तो केवल उस प्रभू को अपने हृदय में बसाया है, मेरा मन उसकी याद में भीग गया है। प्रभू-पति को प्रसन्न करने के लिए उसका नाम ही सुर्मा है, इस सुर्मे की सूझ भी उसके पास से ही मिलती है। (जिस जीव को ये सूझ पड़ जाती है वह) गुरू के शबद में जुड़ के उस सदा-स्थिर प्रभू के साथ गहरी सांझ डाल लेता है।4।

साजन होवनि आपणे किउ पर घर जाही ॥ साजन राते सच के संगे मन माही ॥ मन माहि साजन करहि रलीआ करम धरम सबाइआ ॥ अठसठि तीरथ पुंन पूजा नामु साचा भाइआ ॥ आपि साजे थापि वेखै तिसै भाणा भाइआ ॥ साजन रांगि रंगीलड़े रंगु लालु बणाइआ ॥५॥ {पन्ना 766-767}

पद्अर्थ: साजन होवनि आपणे = अगर सज्जन पुरुष अपने बन जाएं।

(नोट: शब्द ‘साजन होवनि आपणे’ आदर सत्कारन के भाव में ‘बहुवचन’ बरते जाते हैं)।

पर घर = पराए घरों में (घरि-घर में। घर-घरों में)। साजन राते = सज्जन पुरुख के रंग में रंगे हुए। सच के संगे = सदा स्थिर प्रभू की संगति में। मन माही = मन में, अंतरात्मे। साजन = प्रभू जी। रलीआ = आनंद। सबाइआ = सारा। करम धरम = धार्मिक कर्म। नामु साचा = सदा स्थिर प्रभू का नाम। भाइआ = भाया, प्यारा लगा। तिसै भाणा = उस प्रभू की ही मर्जी। साजन रांगि = सज्जन प्रभू के रंग में।5।

अर्थ: सज्जन प्रभू जी (जिन सौभाग्यशाली बँदों के) अपने बन जाते हैं, वह लोग फिर पराए घरों में नहीं जाते (भाव, प्रभू का सिमरन छोड़ के और तथाकथित धर्म-कर्म नहीं करते फिरते)। वे आदमी अंतरात्मे सदा-स्थिर सज्जन-प्रभू के साथ रंगे रहते हैं। वे अपने मन में सज्जन-प्रभू जी के मिलाप का आनंद ही लेते हैं, यही उनके वास्ते सारे धार्मिक कर्म हैं। उनको सदा-स्थिर प्रभू का नाम प्यारा लगता है– यही उनके वास्ते अढ़सठ तीर्थों का स्नान है, यही उनके वास्ते पुंन-दान है और यही उनकी देव-पूजा है। उन लोगों को उसी प्रभू की रजा मीठी लगती है जो खुद (जगत को) पैदा करता है और पैदा करके संभाल करता है। सज्जन-प्रभू के रंग में रंगे हुए उन लोगों ने अपने अंदर प्रभू-प्रेम का लाल रंग बना रखा है।5।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh