श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सुणि हरि गुण भीने सहजि सुभाए ॥ गुरमति सहजे नामु धिआए ॥ जिन कउ धुरि लिखिआ तिन गुरु मिलिआ तिन जनम मरण भउ भागा ॥ अंदरहु दुरमति दूजी खोई सो जनु हरि लिव लागा ॥ जिन कउ क्रिपा कीनी मेरै सुआमी तिन अनदिनु हरि गुण गाए ॥ सुणि मन भीने सहजि सुभाए ॥२॥ {पन्ना 767-768}

पद्अर्थ: भीने = भीग जाते हैं। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाऐ = सुभाय, प्रेम में। धिआऐ = सिमर के। धुरि = धुर दरगाह से। तिन् = उनको। तिन भउ = उनका डर। अंदरहु = हृदय में से। दुरमति दूजी = माया की ओर ले जाने वाली खोटी मति। खोई = दूर कर ली। लिव = लगन। मेरै सुआमी = मेरे मालिक ने। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा की सिफत सालाह सुन के आत्मिक अडोलता में प्रेम में भीगा जाता है। हे भाई! तू भी गुरू की मति पर चल के प्रभू का नाम सिमर के आत्मिक अडोलता में टिक। हे भाई! जिन मनुष्यों के माथे पर धुर-दरगाह से लिखे लेख उघड़ते हैं उनको गुरू मिलता है (और नाम की बरकति से) उनका जनम-मरण (के चक्करों) का डर दूर हो जाता है। (जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर अपने) हृदय में से माया की ओर ले जाने वाली खोटी मति दूर करता है, वह मनुष्य परमात्मा के चरणों में सुरति जोड़ता है।

हे भाई! मेरे मालिक प्रभू ने जिन मनुष्यों पर मेहर की, उन्होंने हर वक्त परमात्मा के गुण गाने आरम्भ कर दिए। हे मन! (परमात्मा की सिफत सालाह) सुन के आत्मिक अडोलता में प्रेम में भीगा जाता है।2।

जुग महि राम नामु निसतारा ॥ गुर ते उपजै सबदु वीचारा ॥ गुर सबदु वीचारा राम नामु पिआरा जिसु किरपा करे सु पाए ॥ सहजे गुण गावै दिनु राती किलविख सभि गवाए ॥ सभु को तेरा तू सभना का हउ तेरा तू हमारा ॥ जुग महि राम नामु निसतारा ॥३॥ {पन्ना 768}

पद्अर्थ: जुग महि = जगत में। निसतारा = पार उतारा (करता है)। गुर ते उपजै = (जो मनुष्य) गुरू के पास से नया जन्म लेता है। सहजे = आत्मिक अडोलता में (टिक के)। किलविख = पाप। सभि = सारे। सभु को = हरेक जीव। हउ = मैं।3।

अर्थ: हे भाई! जगत में परमात्मा का नाम ही (हरेक जीव का) पार उतारा करता है। जो मनुष्य गुरू से नया आत्मिक जीवन लेता है, वह गुरू के शबद को विचारता है। वह मनुष्य गुरू के शबद को (ज्यों-ज्यों) विचारता है (त्यों-त्यों) परमात्मा का नाम उसको प्यारा लगने लग जाता है। पर, हे भाई! जिस मनुष्य पर प्रभू कृपा करता है, वही मनुष्य (ये दाति) प्राप्त करता है।

वह मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिक के दिन-रात परमात्मा के गुण गाता रहता है, और अपने सारे पाप दूर कर लेता है।

हे प्रभू! हरेक जीव तेरा (पैदा किया हुआ है), तू सारे जीवों का पति है। हे प्रभू! मैं तेरा (सेवक) हॅूँ, तू हमारा मालिक है (हमें अपना नाम बख्श)। हे भाई! संसार में परमात्मा का नाम (ही हरेक जीव का पार-उतारा करता है)।3।

साजन आइ वुठे घर माही ॥ हरि गुण गावहि त्रिपति अघाही ॥ हरि गुण गाइ सदा त्रिपतासी फिरि भूख न लागै आए ॥ दह दिसि पूज होवै हरि जन की जो हरि हरि नामु धिआए ॥ नानक हरि आपे जोड़ि विछोड़े हरि बिनु को दूजा नाही ॥ साजन आइ वुठे घर माही ॥४॥१॥ {पन्ना 768}

पद्अर्थ: साजन = सज्जन प्रभू जी। वुठे = बस गए। घर = हृदय घर। गावहि = गाते हैं। त्रिपति = संतोष। अघाही = अघा जाते हैं, तृप्त हो जाते हैं। त्रिपतासी = (जो जिंद) तृप्त हो गई, अघा गई। न लागै = नहीं चिपकती। आऐ = आ के। दह दिसि = दसों दिशाओं में, हर जगह। पूज = इज्जत। नानक = हे नानक! आपे = आप ही। जोड़ि = (माया में) जोड़ के। विछोड़े = (अपने चरणों से) विछोड़ता है।

अर्थ: हे भाई! जिन मनुष्यों के हृदय-घर में सज्जन-प्रभू जी आ बसते हैं, वह मनुष्य परमात्मा के गुण गाते रहते हैं, माया की ओर से संतोषी हो जाते हैं, वे तृप्त हो जाते हैं।

हे भाई! जो जीवात्मा सदा प्रभू के गुण गा-गा के (माया की ओर से) तृप्त हो जाती है, उसे दोबारा माया की भूख आ के नहीं चिपकती। जो मनुष्य सदा परमात्मा का नाम सिमरता रहता है, उस सेवक की हर जगह इज्जत होती है।

हे नानक! परमात्मा खुद ही (किसी को माया में) जोड़ के (अपने चरणों से) विछोड़ता है। परमात्मा के बिना और कोई (ऐसी समर्था वाला) नहीं है। (जिस के ऊपर मेहर करते हैं) उसके हृदय-गृह में सज्जन-प्रभू जी आ के निवास करते हैं।4।1।

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु सूही महला ३ घरु ३ ॥ भगत जना की हरि जीउ राखै जुगि जुगि रखदा आइआ राम ॥ सो भगतु जो गुरमुखि होवै हउमै सबदि जलाइआ राम ॥ हउमै सबदि जलाइआ मेरे हरि भाइआ जिस दी साची बाणी ॥ सची भगति करहि दिनु राती गुरमुखि आखि वखाणी ॥ भगता की चाल सची अति निरमल नामु सचा मनि भाइआ ॥ नानक भगत सोहहि दरि साचै जिनी सचो सचु कमाइआ ॥१॥ {पन्ना 768}

पद्अर्थ: राखै = रखता है। जुगि जुगि = हरेक युग में। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख। सबदि = गुरू के शबद के द्वारा। भाइआ = प्यारा लगा। जिस दी = जिस प्रभू की। साची = सदा कायम रहने वाली। बाणी = सिफत सालाह की बाणी। सची = सदा स्थिर। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। आखि = उचार के। वखाणी = (औरों को) समझाई। चाल = जीवन जुगति। मनि = मन में। सोहहि = शोभा देते हैं। दरि साचै = सदा स्थिर प्रभू के दर पर। सचो सचु = सदा स्थिर रहने वाला हरी-नाम ही।1।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा अपने भक्तों की इज्जत रखता है, हरेक युग में ही (भक्तों की) इज्जत रखता आया है। जो मनुष्य गुरू के बताए हुए राह पर चलता है, वह प्रभू का भक्त बन जाता है, वह मनुष्य गुरू के शबद में जुड़ के अपने अहंकार को दूर करता है।

हे भाई! जो मनुष्य गुरू के शबद के द्वारा अपने अंदर से अहंकार को जला देता है, वह उस परमात्मा को प्यारा लगता है जिसकी सिफत सालाह सदा अटल रहने वाली है।

गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य दिन-रात परमात्मा की सदा स्थिर रहने वाले भगती करते रहते हैं, वे खुद सिफत सालाह वाली बाणी उचारते रहते हैं, और औरों को भी उसकी समझ देते हैं।

हे भाई! भक्तों की जीवन-जुगति सदा एक रस रहने वाली और बड़ी पवित्र होती है, उनके मन को परमात्मा का सदा-स्थिर नाम प्यारा लगता रहता है। हे नानक! परमात्मा के भक्त सदा-स्थिर परमात्मा के दर पर शोभा देते हैं, वे परमात्मा का सदा-स्थिर रहने वाला नाम ही सदा जपते रहते हैं।1।

हरि भगता की जाति पति है भगत हरि कै नामि समाणे राम ॥ हरि भगति करहि विचहु आपु गवावहि जिन गुण अवगण पछाणे राम ॥ गुण अउगण पछाणै हरि नामु वखाणै भै भगति मीठी लागी ॥ अनदिनु भगति करहि दिनु राती घर ही महि बैरागी ॥ भगती राते सदा मनु निरमलु हरि जीउ वेखहि सदा नाले ॥ नानक से भगत हरि कै दरि साचे अनदिनु नामु सम्हाले ॥२॥ {पन्ना 768}

पद्अर्थ: पति = इज्जत। कै नामि = के नाम में। करहि = करते हैं। विचहु = अपने अंदर से। आपु = स्वै भाव। पछाणै = पहचानता है। वखाणै = उचारता है। भै = डर अदब में। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। घर ही = घरि ही (शब्द ‘घरि’ की ‘ि’ क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण हट गई है) घर में ही। बैरागी = विरक्त। राते = रंगे हुए। वेखहि = देखते हैं। नाले = साथ। कै दरि = के दर पर। साचे = सच्चे, सुरखरू। समाले = हृदय में बसा के।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा ही भक्तों के लिए (ऊँची) जाति है, परमात्मा ही उनकी इज्जत है। भक्त परमात्मा के नाम में ही लीन रहते हैं। भक्त (सदा) हरी की भक्ति करते हैं, अपने अंदर से स्वै भाव (भी) दूर कर लेते हैं, क्योंकि उन्होंने गुणों व अवगुणों की परख कर ली होती है (उनको पता होता है कि अहंकार अवगुण है)। जो मनुष्य गुण और अवगुण की परख कर लेता है, और परमात्मा का नाम उचारता रहता है, उसको प्रभू के डर-अदब में रहने के कारण प्रभू की भक्ति प्यारी लगती है। जो मनुष्य दिन-रात हर वक्त परमात्मा की भक्ति करते हैं, वे गृहस्त में ही माया के मोह से निर्लिप रहते हैं। हे भाई! जो मनुष्य सदा प्रभू की भगती (के रंग) में रंगे रहते हैं, उनका मन पवित्र हो जाता है, वे परमात्मा को सदा अपने अंग-संग बसता देखते हैं। हे नानक! ऐसे भक्त हर वक्त प्रभू के नाम को अपने हृदय में बसा के परमात्मा के दर पर सुर्ख-रू हो जाते हैं।2।

मनमुख भगति करहि बिनु सतिगुर विणु सतिगुर भगति न होई राम ॥ हउमै माइआ रोगि विआपे मरि जनमहि दुखु होई राम ॥ मरि जनमहि दुखु होई दूजै भाइ परज विगोई विणु गुर ततु न जानिआ ॥ भगति विहूणा सभु जगु भरमिआ अंति गइआ पछुतानिआ ॥ कोटि मधे किनै पछाणिआ हरि नामा सचु सोई ॥ नानक नामि मिलै वडिआई दूजै भाइ पति खोई ॥३॥ {पन्ना 768}

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। करहि = करते हैं। रोगि = रोग में। विआपे = फसे रहते हैं। मरि जनमहि = मर के पैदा होते हैं, आत्मिक मौत सहेड़ के जूनियों में पड़े रहते हैं। दूजै भाइ = किसी और के प्यार में, माया के मोह में। परज = सृष्टि। विगोई = ख्वार होती है। ततु = अस्लियत। विहूणा = बगैर। भरमिआ = भटकता है। अंति = आखिर को। कोटि मधे = करोड़ों में। किनै = किसी विरले ने। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। नामि = नाम में। पति = इज्जत।3।

अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य गुरू की शरण पड़े बिना (अपनी ओर से ही) प्रभू की भक्ति करते हैं, पर गुरू की शरण पड़े बिना भक्ति नहीं हो सकती। वह मनुष्य अहंकार में, माया के रोग में, फंसे रहते हैं, आत्मिक मौत सहेड़ के वे जन्मों के चक्करों में पड़े रहते हैं, उन्हें दुख चिपका रहता है। हे भाई! माया के मोह में फस के दुनिया ख्वार होती है। गुरू की शरण पड़े बिना कोई भी अस्लियत को नहीं समझता। भक्ति से वंचित हुआ सारा जगत ही भटकता फिरता है, और, आखिर हाथ मलता (दुनिया से) जाता है।

हे नानक! करोड़ों में से किसी विरले मनुष्य ने ये बात समझी है कि परमात्मा का नाम ही सदा कायम रहने वाला है, नाम में जुड़ने से ही (लोक-परलोक में) इज्जत मिलती है, और, माया के मोह में मनुष्य इज्जत गवा लेता है।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh