श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 769 भगता कै घरि कारजु साचा हरि गुण सदा वखाणे राम ॥ भगति खजाना आपे दीआ कालु कंटकु मारि समाणे राम ॥ कालु कंटकु मारि समाणे हरि मनि भाणे नामु निधानु सचु पाइआ ॥ सदा अखुटु कदे न निखुटै हरि दीआ सहजि सुभाइआ ॥ हरि जन ऊचे सद ही ऊचे गुर कै सबदि सुहाइआ ॥ नानक आपे बखसि मिलाए जुगि जुगि सोभा पाइआ ॥४॥१॥२॥ {पन्ना 769} पद्अर्थ: कै घरि = के हृदय में। कारजु = कार्य, काम, आहर। साचा = सदा कायम रहने वाला। वखाणे = उचारे। आपे = आप ही। कंटकु = कांटा, काँटे की तरह चुभने वाला, दुखदाई। मारि = मार के। समाणे = लीन रहे। मनि = मन में। भाणे = अच्छे लगे। निधानु = खजाना। सचु = सदा कायम रहने वाला। अखुटु = कभी ना खत्म होने वाला। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइआ = सुभाया, प्रेम में। कै सबदि = के शबद से। जुगि जुगि = हरेक युग में।4। अर्थ: परमात्मा के गुण सदा गाते रहने के कारण भक्तों के हृदय में ये आहर सदा बना रहता है। भक्ति का खजाना परमात्मा ने खुद ही अपने भक्तों को दिया हुआ है, (इसकी बरकति से वे) दुखद मौत के डर को समाप्त करके (परमात्मा में) लीन रहते हैं। दुखदाई मौत के डर को खत्म करके भक्त परमात्मा में लीन रहते हैं, परमात्मा के मन को प्यारे लगते हैं, (परमात्मा के पास से भक्त) सदा कायम रहने वाला नाम-खजाना प्राप्त कर लेते हैं। ये खजाना ना खत्म होने वाला है, कभी खत्म नहीं होता। परमात्मा ने उनको आत्मिक अडोलता में प्रेम में टिके हुओं को ये खजाना दे दिया। (इस खजाने के सदका) भक्त सदा ही ऊँचे आत्मिक मण्डल में टिके रहते हैं, गुरू के शबद की बरकति से उनका जीवन सोहाना बन जाता है। हे नानक! परमात्मा खुद ही मेहर कर के उनको चरणों से जोड़े रखता है, हरेक युग में वे शोभा कमाते हैं।4।1।2। सूही महला ३ ॥ सबदि सचै सचु सोहिला जिथै सचे का होइ वीचारो राम ॥ हउमै सभि किलविख काटे साचु रखिआ उरि धारे राम ॥ सचु रखिआ उर धारे दुतरु तारे फिरि भवजलु तरणु न होई ॥ सचा सतिगुरु सची बाणी जिनि सचु विखालिआ सोई ॥ साचे गुण गावै सचि समावै सचु वेखै सभु सोई ॥ नानक साचा साहिबु साची नाई सचु निसतारा होई ॥१॥ {पन्ना 769} पद्अर्थ: सबदि सचै = सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह के शबद के द्वारा। सोहिला = (सुख केल:) आत्मिक आनंद देने वाला गीत। जिथै = जिस हृदय घर में। सभि किलविख = सारे पाप। सचु = सदा स्थिर। उरि = हृदय में। दुतरु = जिसे तैरना बहुत मुश्किल है। भवजलु = संसार समुंद्र। तरणु न होई = तैरने की जरूरत नहीं पड़ती। सची बाणी = सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह से भरपूर बाणी। जिनि = जिस (गुरू) ने। सचु = सदा स्थिर प्रभू। सचि = सदा कायम रहने वाले प्रभू में। नाई = महिमा, वडिआई (स्ना, अरबी शब्द)। सचु निसतारा = सदा के लिए पार उतारा।1। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय-गृह में सच्चे शबद के द्वारा सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह का गीत होता रहता है, सदा स्थिर प्रभू के गुणों की विचार होती रहती है, उसके अंदर से अहंकार आदि जैसे सारे पाप कट जाते हैं, वह मनुष्य सदा-कायम रहने वाले परमात्मा को अपने दिल में बसाए रखता है। वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू को हृदय में बसाए रखता है, मुश्किल से तैरे जाने वाले संसार-समुंद्र से पार लांघ जाता है। संसार-समुंद्र से पार लांघने की उसे बार-बार आवश्यक्ता नहीं रहती। हे भाई! जिस गुरू ने उसको सदा-स्थिर प्रभू के दर्शन करवा दिए हैं, वह खुद भी सदा-स्थिर प्रभू का रूप है, उसकी बाणी प्रभू की सिफत सालाह से भरपूर है। (गुरू की कृपा से) वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू के गुण गाता रहता है, उसमें ही लीन रहता है, और उसको हर जगह बसा हुआ देखता है। हे नानक! जो परमात्मा खुद सदा-स्थिर है, जिसकी महिमा सदा-स्थिर है वह उस मनुष्य का सदा के लिए पार-उतारा कर देता है।1। साचै सतिगुरि साचु बुझाइआ पति राखै सचु सोई राम ॥ सचा भोजनु भाउ सचा है सचै नामि सुखु होई राम ॥ साचै नामि सुखु होई मरै न कोई गरभि न जूनी वासा ॥ जोती जोति मिलाई सचि समाई सचि नाइ परगासा ॥ जिनी सचु जाता से सचे होए अनदिनु सचु धिआइनि ॥ नानक सचु नामु जिन हिरदै वसिआ ना वीछुड़ि दुखु पाइनि ॥२॥ {पन्ना 769} पद्अर्थ: सचै सतिगुरि = सदा-स्थिर प्रभू के रूप् गुरू ने। साचु = सदा स्थिर प्रभू। पति = इज्जत। भाउ सचा = सदा कायम रहने वाला प्रेम। नामि = नाम में। मरै न = आत्मिक मौत नहीं सहेड़ता। गरभि = माँ के पेट में। जोती = परमात्मा की जोति में। सचि = सदा स्थिर प्रभू में। सचि नाइ = सदा स्थिर हरी नाम की बरकति से। जिनि = जिन मनुष्यों ने। जाता = गहरी सांझ डाली। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। धिआइनि = ध्याते हैं। हिरदै = हृदय घर में। वीछुड़ि = विछुड़ के। न पाइनि = नहीं पाते।2। अर्थ: हे भाई! सदा-स्थिर प्रभू के रूप गुरू ने जिस मनुष्य को सदा-स्थिर प्रभू का ज्ञान दिया उसकी लाज सदा-स्थिर प्रभू स्वयं रखता है। प्रभू-चरणों से अटल प्यार उस मनुष्य की आत्मिक खुराक बन जाता है, सदा-स्थिर हरी-नाम से उसको आत्मिक आनंद प्राप्त होता है। जिस भी मनुष्य को सदा-स्थिर प्रभू के नाम में आत्मिक आनंद मिलता है, वह कभी आत्मिक मौत नहीं सहेड़ता, वह जनम-मरण के चक्करों जूनियों में नहीं पड़ता। (गुरू ने जिस मनुष्य की) सुरति परमात्मा की ज्योति में मिला दी, वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू में लीन हो जाता है, सदा-स्थिर हरी-नाम की बरकति से (उसके अंदर आत्मिक जीवन का) प्रकाश पैदा हो जाता है। हे भाई! जिन मनुष्यों ने सदा-स्थिर प्रभू के साथ गहरी सांझ डाल ली वे उसी का रूप बन गए, वे हर वक्त उस सदा-स्थिर प्रभू का नाम सिमरते रहते हैं। हे नानक! जिन मनुष्यों के हृदय में सदा-स्थिर प्रभू का नाम बस जाता है, वे फिर परमात्मा के चरणों से विछुड़ के दुख नहीं पाते।2। सची बाणी सचे गुण गावहि तितु घरि सोहिला होई राम ॥ निरमल गुण साचे तनु मनु साचा विचि साचा पुरखु प्रभु सोई राम ॥ सभु सचु वरतै सचो बोलै जो सचु करै सु होई ॥ जह देखा तह सचु पसरिआ अवरु न दूजा कोई ॥ सचे उपजै सचि समावै मरि जनमै दूजा होई ॥ नानक सभु किछु आपे करता आपि करावै सोई ॥३॥ {पन्ना 769} पद्अर्थ: सची बाणी = सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह की बाणी के द्वारा। गावहि = गाते हैं। तितु घरि = (उनके) उस हृदय घर में। सोहिला = (सुख केल:) खुशी के गीत, आनंद की रौंअ। सचा = सदा स्थिर, अडोल। सभु = हर जगह। सचो = सच ही, सदा स्थिर प्रभू ही। जह देखा = जिधर भी उन्होंने देखा। तह = उधर (ही)। सचे उपजै = (जो मनुष्य) सदा स्थिर प्रभू से नया आत्मिक जीवन लेता है। सचि = सदा स्थिर प्रभू में।3। अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य अपने हृदय में) सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह की बाणी के द्वारा सदा-स्थिर प्रभू के गुण गाते हैं (उनकी) उस हृदय-गृह में आनंद मीठी सुरीली अवस्था बनी रहती है। सदा-स्थिर प्रभू के पवित्र गुणों की बरकति से उनका मन उनका तन (विकारों की ओर से) अडोल हो जाता है। उनके अंदर सदा-स्थिर प्रभू-पुरुख प्रत्यक्ष प्रकट हो जाता है। (उन्हें यकीन बन जाता है कि) हर जगह सदा-स्थिर प्रभू काम कर रहा है, वह ही बोल रहा है, जो कुछ वह करता है वही होता है। जिधर भी उन्होंने निगाह की, उधर ही उनको सदा-स्थिर प्रभू का पसारा दिखा। प्रभू के बिना उनको (कहीं भी) कोई और नहीं दिखता। हे भाई! जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू से नया आत्मिक जीवन प्राप्त करता है, वह सदा-स्थिर प्रभू में ही लीन रहता है। पर माया के साथ प्यार करने वाला जनम-मरण में पड़ा रहता है। हे नानक! करतार खुद ही सब कुछ कर रहा है, खुद ही जीवों से करवा रहा है।3। सचे भगत सोहहि दरवारे सचो सचु वखाणे राम ॥ घट अंतरे साची बाणी साचो आपि पछाणे राम ॥ आपु पछाणहि ता सचु जाणहि साचे सोझी होई ॥ सचा सबदु सची है सोभा साचे ही सुखु होई ॥ साचि रते भगत इक रंगी दूजा रंगु न कोई ॥ नानक जिस कउ मसतकि लिखिआ तिसु सचु परापति होई ॥४॥२॥३॥ {पन्ना 769} पद्अर्थ: सचे भगत = सदा-स्थिर प्रभू के भक्त। दरवारे = दरबारि, (प्रभू की) हजूरी में। सचो सचु = सत्य ही सत्य, सदा स्थिर प्रभू का नाम ही नाम। अंतरे = अंदर। घट = हृदय। साची बाणी = सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह की बाणी। साचो = साचु ही, सदा स्थिर प्रभू को ही। आपि = अपने अंदर। आपु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को। जाणहि = गहरी सांझ डालते हैं। साचि = सदा स्थिर हरी नाम में। इक रंगी = एक प्रभू के ही प्रेम रंग वाले। मसतकि = माथे पर।4। जिस कउ: ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कउ’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के भक्त उस सदा स्थिर प्रभू का नाम ही हर वक्त उचार के उसकी हजूरी में शोभा पाते हैं। उनके हृदय में सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह की बाणी सदा बसती है। वे सदा-स्थिर प्रभू को अपने अंदर बसता देखते हैं। जब भक्तजन अपने आत्मिक जीवन की पड़ताल (आत्मचिंतन) करते हैं, तब वे सदा-स्थिर प्रभू के साथ गहरी सांझ डालते हैं, उन्हें उस सदा-स्थिर प्रभू की जान-पहचान हो जाती है। उनके अंदर प्रभू की सिफत सालाह वाला गुरू-शबद बसता रहता है, (इस कारण लोक-परलोक में) उन्हें सदा के लिए शोभा मिल जाती है। प्रभू में जुड़े रहने के कारण उन्हें आत्मिक आनंद मिला रहता है। सदा कायम रहने वाले परमात्मा (के प्रेम रंग) में रंगे हुए भक्तजन एक ही प्रभू-प्रेम के रंग में रंगे रहते हैं। कोई और (माया के मोह आदि का) रंग उन पर नहीं चढ़ता। हे नानक! जिस मनुष्य के माथे पर (प्रभू-मिलाप के लेख) लिखे होते हैं, उसको सदा कायम रहने वाले परमात्मा का मिलाप प्राप्त हो जाता है।4।2।3। सूही महला ३ ॥ जुग चारे धन जे भवै बिनु सतिगुर सोहागु न होई राम ॥ निहचलु राजु सदा हरि केरा तिसु बिनु अवरु न कोई राम ॥ तिसु बिनु अवरु न कोई सदा सचु सोई गुरमुखि एको जाणिआ ॥ धन पिर मेलावा होआ गुरमती मनु मानिआ ॥ सतिगुरु मिलिआ ता हरि पाइआ बिनु हरि नावै मुकति न होई ॥ नानक कामणि कंतै रावे मनि मानिऐ सुखु होई ॥१॥ {पन्ना 769-770} पद्अर्थ: जुग चारे = चारों ही युगों में। धन = जीव स्त्री। सोहागु = प्रभू पति का मिलाप। निहचल = अटल, कभी ना हिलने वाला। केरा = का। सचु = सदा कायम रहने वाला। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने वाला मनुष्य। ऐको = एक परमात्मा ही। मेलावा = मिलाप। गुरमती = गुरू की मति पर चलने से। कामणि = जीव स्त्री। कंतै रावै = पति प्रभू को हृदय में बसाती है। रावे = मिलाप भोगती है। मनि मानिअै = अगर मन पतीज जाए।1। अर्थ: हे भाई! (युग चाहे कोई भी हो) गुरू (की शरण पड़े) बिना पति प्रभू का मिलाप नहीं होता, जीव-स्त्री चाहे चारों युगों में भटकती फिरे। उस प्रभू-पति का हुकम अटल है (कि गुरू के द्वारा ही उसका मिलाप प्राप्त होता है)। उसके बिना कोई और उसकी बराबरी का नहीं (जो इस हुकम को बदलवा सके)। हे भाई! जिस प्रभू के बिना उस जैसा और कोई नहीं। वह प्रभू स्वयं ही सदा कायम रहने वाला है। गुरू के सन्मुख रहने वाली जीव-स्त्री उस एक के साथ गहरी सांझ बनाती है। जब गुरू की मति पर चल के जीव-स्त्री का मन (परमात्म की याद में) रीझ जाता है, तब जीव-स्त्री का प्रभू-पति से मिलाप हो जाता है। हे भाई! जब गुरू मिलता है तब ही प्रभू की प्राप्ति होती है (गुरू ही) प्रभू का नाम जीव-स्त्री के हृदय में बसाता है, और परमात्मा के नाम के बिना (माया के बँधनों से) खलासी नहीं होती। हे नानक! अगर मन प्रभू की याद में रीझ जाए, तो जीव-स्त्री प्रभू के मिलाप का आनंद भोगती है, उसके हृदय में आनंद पैदा हुआ रहता है।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |