श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 770

सतिगुरु सेवि धन बालड़ीए हरि वरु पावहि सोई राम ॥ सदा होवहि सोहागणी फिरि मैला वेसु न होई राम ॥ फिरि मैला वेसु न होई गुरमुखि बूझै कोई हउमै मारि पछाणिआ ॥ करणी कार कमावै सबदि समावै अंतरि एको जाणिआ ॥ गुरमुखि प्रभु रावे दिनु राती आपणा साची सोभा होई ॥ नानक कामणि पिरु रावे आपणा रवि रहिआ प्रभु सोई ॥२॥ {पन्ना 770}

पद्अर्थ: सेवि = सेवा कर, शरण पड़। धन बालड़ीऐ = हे अंजान जिंदे! वरु = पति। पावहि = तू पा लेगी। होवहि = तू रहेगी। सोहागणी = पति वाली। मैला वेसु = रंडेपा, विधवा, प्रभू पति से विछोड़ा।

(नोट: 'मैला वेसु' विधवा स्त्री को मैले कपड़े पहनने पड़ते हैं; रंडेपा, विधवा, प्रभू पति से विछोड़ा)।

गुरमुखि = गुरू की शरण में रहने वाली जीव स्त्री। रवि रहिआ = जो सब जगह मौजूद है।2।

अर्थ: हे अंजान जीवात्मा! गुरू के बताए हुए काम किया कर, (इस तरह) तू प्रभू-पति को प्राप्त कर लेगी। तू सदा के लिए पति वाली (सोहागनि) हो जाएगी, फिर कभी प्रभू-पति से विछोड़ा नहीं होगा। कोई विरली जीव-स्त्री ही गुरू के बताए हुए मार्ग पर चल के इस बात को समझती है (कि गुरू के द्वारा प्रभू से मिलाप होने पर) फिर उससे कभी विछोड़ा नहीं होता। वह जीव-स्त्री (अपने अंदर से) अहंकार दूर करके प्रभू से सांझ कायम रखती है। वह जीव-स्त्री (प्रभू सिमरन का) करने-योग्य कार्य करती रहती है, गुरू के शबद में लीन रहती है, अपने हृदय में एक प्रभू के साथ जीव-स्त्री पहचान बनाए रखती है। हे नानक! गुरू के सन्मुख रहने वाली जीव-स्त्री दिन-रात अपने प्रभू का नाम सिमरती रहती है, (लोक-परलोक में) उसको सदा कायम रहने वाली इज्जत मिलती है। वह जीव-स्त्री अपने उस प्रभू-पति को हर वक्त याद करती है जो हर जगह व्यापक है।2।

गुर की कार करे धन बालड़ीए हरि वरु देइ मिलाए राम ॥ हरि कै रंगि रती है कामणि मिलि प्रीतम सुखु पाए राम ॥ मिलि प्रीतम सुखु पाए सचि समाए सचु वरतै सभ थाई ॥ सचा सीगारु करे दिनु राती कामणि सचि समाई ॥ हरि सुखदाता सबदि पछाता कामणि लइआ कंठि लाए ॥ नानक महली महलु पछाणै गुरमती हरि पाए ॥३॥ {पन्ना 770}

पद्अर्थ: करे = करि, कर। धन बालड़ीऐ = हे अंजान जिंदे! देइ मिलाऐ = देय मिलाय, मिला देता है। कै रंगि = के प्रेम रंग में। रती = रंगी हुई। कामणि = जीव स्त्री। साचि = सदा स्थिर प्रभू में। सचु = सदा स्थिर प्रभू। सबदि = गुरू के शबद द्वारा। पछाता = पहचान लिया, सांझ डाल ली। कंठि = गले से। महली महलु = महल के मालिक प्रभू का महल।3।

अर्थ: हे अंजान जिंदे! गुरू का बताया हुआ काम किया कर। गुरू प्रभू-पति के साथ मिला देता है। जो जीव-स्त्री प्रभू के प्रेम-रंग में रंगी जाती है, वह प्यारे प्रभू को मिल के आत्मिक आनंद पाती है। प्रभू प्रीतम को मिल के वह आत्मिक आनंद भोगती है, सदा स्थिर प्रभू में लीन रहती है, वह सदा स्थिर प्रभू उसे हर जगह बसता दिखाई देता है। वह जीव स्त्री सदा-स्थिर प्रभू की याद में मस्त रहती है, यही सदा कायम रहने वाला (आत्मिक) श्रंृगार दिन-रात वह किए रखती है। गुरू के शबद में जुड़ के वह जीव-स्त्री सारे सुख देने वाले प्रभू के साथ सांझ डालती है, उसको अपने गले से लगाए रखती है (गले में परोए रखती है, हर वक्त उसका जाप करती है)। हे नानक! वह जीव स्त्री मालिक प्रभू का महल ढॅूँढ लेती है, गुरू की मति पर चल के वह प्रभू-पति का मिलाप प्राप्त कर लेती है।3।

सा धन बाली धुरि मेली मेरै प्रभि आपि मिलाई राम ॥ गुरमती घटि चानणु होआ प्रभु रवि रहिआ सभ थाई राम ॥ प्रभु रवि रहिआ सभ थाई मंनि वसाई पूरबि लिखिआ पाइआ ॥ सेज सुखाली मेरे प्रभ भाणी सचु सीगारु बणाइआ ॥ कामणि निरमल हउमै मलु खोई गुरमति सचि समाई ॥ नानक आपि मिलाई करतै नामु नवै निधि पाई ॥४॥३॥४॥ {पन्ना 770}

पद्अर्थ: साधन बाली = अंजान जीव स्त्री। धुरि = धुर दरगाह से। प्रभि = प्रभू ने। गुरमती = गुरू की मति पर चल के। घटि = हृदय में। मंनि = मन में। पूरबि = पूर्बले जन्म में। सेज = हृदय सेज। सुखाली = सुखी। प्रभ भाणी = प्रभू को अच्छी लगी। सचु सीगारु = सदा स्थिर हरी का नाम जपने का आत्मिक सुहज। कामणि = जीव स्त्री। खोई = दूर कर ली। सचि = सदा स्थिर प्रभू में। करतै = करतार ने। नवै निधि = नौ ही खजाने।4।

अर्थ: हे भाई! जिस अंजान जीव स्त्री को धुर दरगाह से मिलाप के लेख प्राप्त हुआ, उसको प्रभू ने स्वयं अपने चरणों से जोड़ लिया। उस जीव-स्त्री के हृदय में ये रौशनी हो गई कि परमात्मा हर जगह मौजूद है। सब जगह व्यापक प्रभू को उस जीव-स्त्री ने अपने मन में बसा लिया, पिछले जन्म के लिखे लेख (उसके माथे पर) उघड़ आए। वह जीव-स्त्री प्यारे प्रभू को अच्छी लगने लग पड़ी, उसकी हृदय-सेज आनंद-भरपूर हो गई, सदा-स्थिर प्रभू के नाम सिमरन को उसने (अपने जीवन का) श्रृंगार बना लिया।

जो जीव-स्त्री गुरू की मति ले के सदा-स्थिर प्रभू के नाम में लीन हो जाती है, वह (अपने अंदर से) अहंकार की मैल दूर कर लेती है, वह पवित्र जीवन वाली बन जाती है। हे नानक! (कह–) करतार ने स्वयं उसे अपने साथ मिला लिया, उसने परमात्मा का नाम प्राप्त कर लिया, जो उसके लिए सृष्टि के नौ खजानों के तूल्य है।4।3।4।

सूही महला ३ ॥ हरि हरे हरि गुण गावहु हरि गुरमुखे पाए राम ॥ अनदिनो सबदि रवहु अनहद सबद वजाए राम ॥ अनहद सबद वजाए हरि जीउ घरि आए हरि गुण गावहु नारी ॥ अनदिनु भगति करहि गुर आगै सा धन कंत पिआरी ॥ गुर का सबदु वसिआ घट अंतरि से जन सबदि सुहाए ॥ नानक तिन घरि सद ही सोहिला हरि करि किरपा घरि आए ॥१॥ {पन्ना 770}

पद्अर्थ: हरि हरे हरि गुण = सदा ही हरी के गुण। गुरमुखे = गुरू की शरण पड़ने से। अनदिनो = हर रोज। सबदि = गुरू के शबद द्वारा। रवहु = सिमरो। वजाऐ = बजा के। अनहद = एक रस, लगातार। अनहद सबद वजाऐ = एक रस परमात्मा की सिफत सालाह की बाणी (के बाजे) बजा के। वजाऐ = बजाता है। घरि = हृदय घर में। नारी = हे नारियो! हे ज्ञानेन्द्रियो! गुर आगै = गुरू के सन्मुख हो के। साधन = वह जीव सि्त्रयां। सुहाऐ = सुंदर जीवन वाले बन जाते हैं। सोहिला = खुशी के गीत। करि = कर के। आऐ = आता है।1।

अर्थ: हे भाई! सदा परमात्मा के गुण गाया करो। (जो मनुष्य प्रभू के गुण गाता है वह) गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा को मिल जाता है। हे भाई! एक रस परमात्मा के सिफत सालाह की बाणी (के बाजे) बजा के गुरू के शबद के द्वारा हर वक्त परमात्मा का नाम सिमरा करो। जो मनुष्य परमात्मा की सिफत सालाह की बाणी के बाजे एक-रस बजाता रहता है, परमात्मा उसके हृदय-गृह में प्रकट हो जाता है। हे (मेरी) ज्ञानेन्द्रियो! तुम भी परमात्मा की सिफत सालाह के गीत गाया करो। जो जीव-सि्त्रयां गुरू के सन्मुख हो के हर वक्त परमात्मा की भक्ति करती हैं, वे प्रभू-पति को प्यारी लगती हैं।

हे नानक! जिन मनुष्यों के दिल में गुरू का शबद बस पड़ता है, गुरू के शबद की बरकति से उनका जीवन सुंदर बन जाता है, उनके हृदय-घर में सदा ही (मानो) खुशी के गीत चलते रहते हैं, प्रभू कृपा करके उनके हृदय-घर में आ बसता है।1।

भगता मनि आनंदु भइआ हरि नामि रहे लिव लाए राम ॥ गुरमुखे मनु निरमलु होआ निरमल हरि गुण गाए राम ॥ निरमल गुण गाए नामु मंनि वसाए हरि की अम्रित बाणी ॥ जिन्ह मनि वसिआ सेई जन निसतरे घटि घटि सबदि समाणी ॥ तेरे गुण गावहि सहजि समावहि सबदे मेलि मिलाए ॥ नानक सफल जनमु तिन केरा जि सतिगुरि हरि मारगि पाए ॥२॥ {पन्ना 770}

पद्अर्थ: मनि = मन में। नामि = नाम में। रहे लिव लाऐ = लिव लगा के रखते हैं। गुरमुखे = गुरू के सन्मुख रह के। गाऐ = गा के। मंनि = मन में। वसाऐ = बसा के। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाली। सेई जन = वही मनुष्य। निसतरे = पार लांघ जाते हैं। घटि घटि = हरेक शरीर में। सबदि = शबद के द्वारा। गावहि = गाते हैं। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समावहि = लीन रहते हैं। सबदि = शबद की बरकति से। केरा = का। जि = जिन मनुष्यों को। सतिगुरि = गुरू ने। मारगि = रास्ते पर।2।

अर्थ: हे भाई! प्रभू के भक्तों के मन में आनंद बना रहता है, क्योकि वह परमात्मा के नाम में सदा सुरति जोड़े रखते हैं। गुरू के द्वारा परमात्मा के पवित्र गुण गा गा के उनका मन पवित्र हो जाता है। परमात्मा की आत्मिक जीवन देने वाली सिफत सालाह की बाणी के द्वारा, प्रभू के पवित्र गुण गा गा के, प्रभू का नाम अपने मन में बसा के (उनका मन पवित्र हो जाता है)। हे भाई! जिन मनुष्यों के मन में परमात्मा का नाम बस जाता है, वे मनुष्य संसार सागर से पार लांघ जाते हैं। गुरू के शबद की बरकति सेउनको परमात्मा हरेक शरीर में बसता दिखता है।

हे प्रभू! जो मनुष्य तेरे गुण गाते हैं, वे आत्मिक अडोलता में टिके रहते हैं। गुरू अपने शबद के द्वारा उनको (हे प्रभू!) तेरे चरणों में जोड़ देता है। हे नानक! उन मनुष्यों का जनम कामयाब हो जाता है, जिनको गुरू परमात्मा के रास्ते पर चला देता है।2।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh