श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 771 संतसंगति सिउ मेलु भइआ हरि हरि नामि समाए राम ॥ गुर कै सबदि सद जीवन मुकत भए हरि कै नामि लिव लाए राम ॥ हरि नामि चितु लाए गुरि मेलि मिलाए मनूआ रता हरि नाले ॥ सुखदाता पाइआ मोहु चुकाइआ अनदिनु नामु सम्हाले ॥ गुर सबदे राता सहजे माता नामु मनि वसाए ॥ नानक तिन घरि सद ही सोहिला जि सतिगुर सेवि समाए ॥३॥ {पन्ना 771} पद्अर्थ: सिउ = साथ। मेलु = मिलाप। नामि = नाम में। कै सबदि = के शबद की बरकति से। जीवन मुकते = दुनिया के काम काज करते हुए भी निर्लिप। कै नामि = के नाम में। लिव = लगन। लाऐ = लगा के। गुरि = गुरू ने। मेलि = प्रभू चरणों में। चुकाइआ = चुकाया, दूर कर दिया। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। समाले = हृदय में बसा के। सहजे = आत्मिक अडोलता में। माता = मस्त। मनि = मन में। घरि = हृदय घर में। सद = सदा। सोहिला = खुशी, आनंद। जि = जो मनुष्य।3। अर्थ: हे भाई! जिन मनुष्यों का साध-संगति के साथ मिलाप हो जाता है, वे परमात्मा के नाम में लीन रहते हैं। गुरू के शबद की बरकति से परमात्मा के नाम में सुरति जोड़ के वे दुनिया के काम-काज करते हुए ही माया से निर्लिप रहते हैं। जिनको गुरू ने प्रभू-चरणों में जोड़ दिया, उन मनुष्यों ने परमात्मा के नाम में मन जोड़ लिया, उनका मन परमात्मा के (प्रेम-रंग से) रंगा गया। उन्होंने हर वक्त परमात्मा का नाम हृदय में बसा के (अपने अंदर से माया का) मोह दूर कर लिया, और, सारे सुख देने वाले परमात्मा के साथ मिलाप हासिल कर लिया। जो मनुष्य गुरू के शबद में रंगा जाता है, वह आत्मिक अडोलता में मस्त रहता है, वह हरी-नाम को मन में बसाए रखता है। हे नानक! जो मनुष्य गुरू की बताई हुई सेवा करके प्रभू में लीन रहते हैं, उनके हृदय में सदा ही खुशी बनी रहती है।3। बिनु सतिगुर जगु भरमि भुलाइआ हरि का महलु न पाइआ राम ॥ गुरमुखे इकि मेलि मिलाइआ तिन के दूख गवाइआ राम ॥ तिन के दूख गवाइआ जा हरि मनि भाइआ सदा गावहि रंगि राते ॥ हरि के भगत सदा जन निरमल जुगि जुगि सद ही जाते ॥ साची भगति करहि दरि जापहि घरि दरि सचा सोई ॥ नानक सचा सोहिला सची सचु बाणी सबदे ही सुखु होई ॥४॥४॥५॥ {पन्ना 771} पद्अर्थ: भरमि = भटकना में (पड़ कर)। भुलाइआ = कुराहे पड़ा रहता है। महलु = हजूरी। गुरमुखे = गुरू के सन्मुख रहने वाले। इकि = (‘इक’ का बहुवचन) कई। मेलि = प्रभू चरणों में। मनि = मन में। रंगि = रंग में। राते = रंगे हुए। जुगि जुगि = हरेक युग में। जाते = प्रकट हो जाते हैं। साची भगति = सदा स्थिर प्रभू की भक्ति। दरि = प्रभू के दर पर। जापहि = आदर पाते हैं। घरि = हृदय-घर में। वरि = अंदर। सोहिला = खुशी।4। अर्थ: हे भाई! गुरू की शरण पड़े बिना जगत भटकना में पड़ कर गलत रास्ते पर पड़ा रहता है, परमात्मा की हजूरी प्राप्त नहीं कर सकता। पर कई (भाग्यशाली ऐसे हैं, जो) गुरू के सन्मुख (रहते हैं, उन्हें गुरू ने) प्रभू-चरणों में जोड़ दिया है, उनके सारे दुख दूर कर दिए हैं। जब वे प्रभू के मन को प्यारे लगते हैं, उनके दुख दूर हो जाते हैं, वे प्रेम-रंग में रंगीज के सदा परमात्मा की सिफत सालाह के गीत गाते रहते हैं। परमात्मा के वे भक्त सदा के लिए पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं, वे हरेक युग में सदा ही प्रकट हो जाते हैं। वे (भाग्यशाली मनुष्य) सदा-स्थिर प्रभू की भक्ति करते हैं, उसके दर पर इज्जत पाते हैं, उनके हृदय में उनके अंदर सदा-स्थिर रहने वाला प्रभू बस जाता है। हे नानक! उनके अंदर सिफत सालाह वाली बाणी बसी रहती है, शबद की बरकति से उनके अंदर आत्मिक आनंद बना रहता है।4।4।5। सूही महला ३ ॥ जे लोड़हि वरु बालड़ीए ता गुर चरणी चितु लाए राम ॥ सदा होवहि सोहागणी हरि जीउ मरै न जाए राम ॥ हरि जीउ मरै न जाए गुर कै सहजि सुभाए सा धन कंत पिआरी ॥ सचि संजमि सदा है निरमल गुर कै सबदि सीगारी ॥ मेरा प्रभु साचा सद ही साचा जिनि आपे आपु उपाइआ ॥ नानक सदा पिरु रावे आपणा जिनि गुर चरणी चितु लाइआ ॥१॥ {पन्ना 771} पद्अर्थ: वरु = पति प्रभू (का मिलाप)। बालड़ीऐ = हे अंजान जीव स्त्री! लाऐ = लगा। सोहागणी = सोहाग भाग वाली। जाऐ = नाश होता। गुर कै = गुरू के द्वारा। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाऐ = प्रेम में, सुभाय। साधन = जीव स्त्री। सचि = सदा स्थिर हरी नाम में। संजमि = संयम में, बंदिश में। गुर कै सबदि = गुरू के शबद के द्वारा। सीगारी = आत्मिक जीवन को सुंदर बनाती है। साचा = सदा स्थिर रहने वाला। जिनि = जिस (प्रभू) ने। आपे = स्वयं ही। आपु = अपने आप को। जिनि = जिस जीव स्त्री ने।1। अर्थ: हे अंजान जीव स्त्री! अगर तू प्रभू पति का मिलाप चाहती है, तो अपने गुरू के चरणों में चिक्त जोड़ के रख। तू सदा के लिए सोहाग-भाग वाली बन जाएगी, (क्योंकि) प्रभू-पति ना कभी मरता है ना कभी नाश होता है। जो जीव-स्त्री गुरू के द्वारा आत्मिक अडोलता में प्रेम में लीन रहती है, वह पति-प्रभू को प्यारी लगती है। सदा-स्थिर प्रभू में जुड़ के, (विकारों पर) संयम रख के, वह जीव-स्त्री पवित्र जीवन वाली हो जाती है, गुरू के शबद की बरकति से वह अपने आत्मिक जीवन को सुंदर बना लेती है। हे सहेलिए! मेरा प्रभू सदा कायम रहने वाला है, उसने अपने आप को आप ही प्रकट किया हुआ है। हे नानक! जिस जीव-स्त्री ने गुरू के चरणों में अपना मन जोड़ लिया, वह सदा प्रभू पति के मिलाप का आनंद भोगती है।1। पिरु पाइअड़ा बालड़ीए अनदिनु सहजे माती राम ॥ गुरमती मनि अनदु भइआ तितु तनि मैलु न राती राम ॥ तितु तनि मैलु न राती हरि प्रभि राती मेरा प्रभु मेलि मिलाए ॥ अनदिनु रावे हरि प्रभु अपणा विचहु आपु गवाए ॥ गुरमति पाइआ सहजि मिलाइआ अपणे प्रीतम राती ॥ नानक नामु मिलै वडिआई प्रभु रावे रंगि राती ॥२॥ {पन्ना 771} पद्अर्थ: पिरु = प्रभू पति। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। सहजे = आत्मिक अडोलता में। मनि = मन में। तितु तनि = उस शरीर में। राती = रक्ती भर भी। प्रभि = प्रभू में। राती = मस्त। मेलि = मेल में, चरणों में। आपु = स्वै भाव। रावै = भोगती है, माणती है। रंगि राती = प्रेम रंग में रंगी हुई।2। अर्थ: हे अंजान जीव-स्त्री! जो जीव-स्त्री प्रभू-पति का मिलाप हासिल कर लेती है, वह हर वक्त आत्मिक अडोलता में मस्त रहती है। गुरू की मति के सदका उसके मन में आनंद बना रहता है, (उसके) शरीर में (विचारों की) रक्ती भर भी मैल नहीं होती। (उसके) शरीर में रक्ती भर भी मैल नहीं होती, वह प्रभू (के प्रेम-रंग में) रंगी रहती है प्रभू उसको अपने चरणों में मिला लेता है। वह जीव-स्त्री अपने अंदर से स्वै भाव दूर करके हर वक्त अपने हरी-प्रभू को सिमरती रहती है। गुरू की शिक्षा के साथ प्रभू से मिल जाती है, गुरू उसको आत्मिक अडोलता में टिका देता है, वह अपने प्रभू-प्रीतम के रंग में रंगी जाती है। हे नानक! उसको हरी-नाम मिल जाता है, इज्जत मिल जाती है, वह प्रेम-रंग में रंगी हुई हर वक्त प्रभू का सिमरन करती है।2। पिरु रावे रंगि रातड़ीए पिर का महलु तिन पाइआ राम ॥ सो सहो अति निरमलु दाता जिनि विचहु आपु गवाइआ राम ॥ विचहु मोहु चुकाइआ जा हरि भाइआ हरि कामणि मनि भाणी ॥ अनदिनु गुण गावै नित साचे कथे अकथ कहाणी ॥ जुग चारे साचा एको वरतै बिनु गुर किनै न पाइआ ॥ नानक रंगि रवै रंगि राती जिनि हरि सेती चितु लाइआ ॥३॥ {पन्ना 771} पद्अर्थ: रावे = मिलाप करती है, सिमरन करती है। रंगि रातड़ीऐ = हे प्रेम रंग में रंगी हुई जीव स्त्री! महलु = हजूरी। तिन = उस (जीव स्त्री) ने। सहो = सहु, शहु। जिनि = जिस (जीव स्त्री) ने। आपु = स्वै भाव। हरि मनि = हरी के मन में। कामणि = जीव स्त्री। भाई = पसंद आई। अकथ = जिसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सके। किनै = किसी ने भी। रवै = सिमरती है। जिनि = जिस (जीव स्त्री) ने। सेती = साथ।3। अर्थ: हे प्रभू के प्रेम-रंग में रंगी हुई जीव-स्त्री! जो जीव-स्त्री प्रभू-पति को हर वक्त सिमरती है, जिसने अपने अंदर से स्वैभाव दूर कर दिया है, उसने उस प्रभू की हजूरी प्राप्त कर ली है जो बहुत पवित्र है, और, सबको दातें देने वाला है। जब प्रभू की रजा होती है, तब जीव-स्त्री अपने अंदर से मोह दूर करती है, और, प्रभू के मन को प्यारी लगने लगती है। फिर वह हर वक्त सदा-स्थिर प्रभू के गुण गाती रहती है, और उस प्रभू की सिफत सालाह की बातें करती है जिसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता। हे सखिए! चारों युगों में वह सदा-स्थिर प्रभू खुद ही अपना हुकम बरता रहा है, पर गुरू की शरण के बिना किसी ने भी उसका मिलाप हासिल नहीं किया। हे नानक! जिस जीव-स्त्री ने परमात्मा से अपना मन जोड़ लिया, वह उसके प्रेम-रंग में रंगी हुई उसके प्रेम में उसका सिमरन करती है।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |