श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 772 कामणि मनि सोहिलड़ा साजन मिले पिआरे राम ॥ गुरमती मनु निरमलु होआ हरि राखिआ उरि धारे राम ॥ हरि राखिआ उरि धारे अपना कारजु सवारे गुरमती हरि जाता ॥ प्रीतमि मोहि लइआ मनु मेरा पाइआ करम बिधाता ॥ सतिगुरु सेवि सदा सुखु पाइआ हरि वसिआ मंनि मुरारे ॥ नानक मेलि लई गुरि अपुनै गुर कै सबदि सवारे ॥४॥५॥६॥ {पन्ना 772} पद्अर्थ: कामणि मनि = (उस) जीव स्त्री के मन में। सोहिलड़ा = आनंद, खुशी। साजन = सज्जन प्रभू जी। गुरमती = गुरू की मति पर चल के। निरमल = पवित्र। उरि = हृदय में। धारे = धर के, टिका के। कारजु = काम, जनम का उद्देश्य। जाता = समझा, गहरी सांझ डाल ली। प्रीतमि = प्रीतम प्रभू ने। मनु मेरा = ‘मेरा मेरा’ करने वाला मन। करम बिधाता = जीवों को कर्मों के अनुसार पैदा करने वाला। सेवि = शरण पड़ के। मंनि = मन में। मुरारे = (मुर+अरि। मुर दैत्य का वैरी) परमात्मा। गुरि = गुरू ने। कै सबदि = के शबद से। सवारे = (जीवन) सुंदर बना लिया।4। अर्थ: जिस जीव स्त्री को प्यारे सज्जन प्रभू जी मिल जाते हैं, उसके मन में आनंद बना रहता है। गुरू की मति पर चल कर उसका मन पवित्र हो जाता है, वह अपने दिल में हरी-प्रभू को टिकाए रखती है। वह जीव-स्त्री परमात्मा को अपने हृदय में बसाए रखती है, इस तरह अपने जीवन के उद्देश्य को सँवार लेती है, गुरू की शिक्षा की बरकति से वह परमात्मा के साथ गहरी सांझ बना लेती है। उसका मन, जो पहले ममता में फसा हुआ था, प्रीतम प्रभू ने अपने बस में कर लिया, और, उस जीव-स्त्री ने सदा आत्मिक आनंद पाया है, मुरारी प्रभू उस के मन में आ बसा है। हे नानक! गुरू के शबद की बरकति से उस जीव-स्त्री ने अपना जीवन सुंदर बना लिया है, प्यारे गुरू ने उसको प्रभू-चरणों में जोड़ दिया है।4।5।6। सूही महला ३ ॥ सोहिलड़ा हरि राम नामु गुर सबदी वीचारे राम ॥ हरि मनु तनो गुरमुखि भीजै राम नामु पिआरे राम ॥ राम नामु पिआरे सभि कुल उधारे राम नामु मुखि बाणी ॥ आवण जाण रहे सुखु पाइआ घरि अनहद सुरति समाणी ॥ हरि हरि एको पाइआ हरि प्रभु नानक किरपा धारे ॥ सोहिलड़ा हरि राम नामु गुर सबदी वीचारे ॥१॥ {पन्ना 772} पद्अर्थ: सोहिलड़ा = आनंद की लहर। गुरसबदी = गुरू के शबद द्वारा। राम नामु वीचारे = हरी नाम को विचारता है। तनो = तनु। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रह के। पिआरे = प्यार करता है। सभि = सारे। उधारे = पार लंघा लेता है। मुखि = मुँह से। रहे = खत्म हो जाते हैं। घरि = हृदय घर में। अनहद = एक रस (सुख)। समाणी = जुड़ जाती है।1। अर्थ: जो मनुष्य गुरू के शबद में जुड़ के परमात्मा के नाम को विचारता है, उसके अंदर आनंद की लहर चलती रहती है। गुरू के सन्मुख रहने वाला उसका मन उसका हृदय परमात्मा (के प्यार रस) में भीग जाता है, वह मनुष्य परमात्मा के नाम को प्यार करता है। वह मनुष्य परमात्मा के नाम से प्यार करता है। परमात्मा का नाम, परमात्मा की सिफत सालाह की बाणी वह अपने मुँह से उचारता है, और अपनी सारी कुलों को (विकारों से) बचा लेता है। उसके जनम-मरन के चक्कर खत्म हो जाते हैं, वह अपने हृदय-घर में एक रस आनंद लेता रहता है, उसकी सुरति (प्रभू-चरणों में) लीन रहती है। हे नानक! परमात्मा उस मनुष्य पर मेहर करता है, वह मनुष्य परमात्मा के साथ मिलाप हासिल कर लेता है। हे भाई! जो मनुष्य गुरू के शबद के द्वारा प्रभू के नाम को विचारता है, उसके अंदर आत्मिक आनंद की रौंअ चल पड़ती है।1। हम नीवी प्रभु अति ऊचा किउ करि मिलिआ जाए राम ॥ गुरि मेली बहु किरपा धारी हरि कै सबदि सुभाए राम ॥ मिलु सबदि सुभाए आपु गवाए रंग सिउ रलीआ माणे ॥ सेज सुखाली जा प्रभु भाइआ हरि हरि नामि समाणे ॥ नानक सोहागणि सा वडभागी जे चलै सतिगुर भाए ॥ हम नीवी प्रभु अति ऊचा किउ करि मिलिआ जाए राम ॥२॥ {पन्ना 772} पद्अर्थ: हम = हम जीव सि्त्रयां। नीवी = (आत्मिक जीवन के) निम्न स्तर पर। किउ करि = कैसे? गुरि = गुरू ने। कै सबदि = के शबद के द्वारा। सुभाऐ = प्यार में (लीन)। मिलि = मिल के। आपु = स्वै भाव। सिउ = साथ। रलीआ = आत्मिक आनंद। सेज = हृदय सेज। सुखाली = सुख भरपूर। जा = जब। भाइआ = भाया, प्यारा लगता है। नामि = नाम में। सोहागणि = पति वाली। भाऐ = भाय, रजा में।2। अर्थ: हे भाई! हम जीव सि्त्रयां (आत्मिक जीवन की) निम्न स्तर पर हैं, पर प्रभू ( इस स्तर से) बहुत ऊँचा है (उच्च स्तर पर है), फिर हमारा उसके साथ मिलाप कैसे हो? (उक्तर) जिस पर गुरू ने कृपा कर दी, उसको (प्रभू चरणों में) जोड़ दिया। गुरू के शबद के द्वारा वह जीव स्त्री प्रभू के प्यार में लीन हो जाती है। गुरू के शबद के द्वारा वह जीव-स्त्री प्रभू में मिल के प्रभू के प्रेम में टिक के (अपने अंदर से) स्वै-भाव दूर कर लेती है, और प्रेम में प्रभू का मिलाप भोगती है। जब उसे परमात्मा प्यारा लगने लग जाता है, तब उसके हृदय की सेज आनंद-भरपूर हो जाती है, वह प्रभू के नाम में ही लीन रहती है। हे नानक! सोहाग-भाग वाली जीव-स्त्री जब गुरू की रजा के अनुसार चलती है तब वह बड़ी किस्मत वाली बन जाती है। (वैसे तो) हम जीव-सि्त्रयां (आत्मिक जीवन के) निम्न स्तर पर हैं (पर) प्रभू (इस स्तर से) बहुत ऊँचा है, उसके साथ हमारा मेल नहीं हो सकता।2। घटि घटे सभना विचि एको एको राम भतारो राम ॥ इकना प्रभु दूरि वसै इकना मनि आधारो राम ॥ इकना मन आधारो सिरजणहारो वडभागी गुरु पाइआ ॥ घटि घटि हरि प्रभु एको सुआमी गुरमुखि अलखु लखाइआ ॥ सहजे अनदु होआ मनु मानिआ नानक ब्रहम बीचारो ॥ घटि घटे सभना विचि एको एको राम भतारो राम ॥३॥ {पन्ना 772} पद्अर्थ: घटि घटे = घट घट, हरेक शरीर में। ऐको राम भतारो = एक प्रभू पति ही। मनि = मन में। आधारो = आसरा। सिरजणहारो = सबको पैदा करने वाला। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने वाला मनुष्य। अलखु = अदृश्य प्रभू। सहजे = आत्मिक अडोलता में। मानिआ = पतीज जाता है। ब्रहम बीचारो = परमात्मा (के गुणों) की विचार। भतारो = पति।3। अर्थ: हे भाई! हरेक शरीर में, सब जीवों में एक प्रभू-पति ही बस रहा है। पर, कई जीवों को वह प्रभू कहीं दूर बसता प्रतीत होता है, और, कई जीवों के मन में उस प्रभू का ही आसरा है। सबको पैदा करने वाला प्रभू ही कई जीवों के मन का सहारा है (क्योंकि उन्होंने उनके) बड़े भाग्यों से गुरू ढूँढ लिया है। हे भाई! हरेक शरीर में एक मालिक प्रभू ही बसता है, गुरू की शरण रहने वाले मनुष्य ने उस अदृश्य प्रभू को (हरेक शरीर में बसता) देख लिया है। हे नानक! वह मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिका रहता है, उसके अंदर आनंद बना रहता है, उसका मन परमात्मा के गुणों की विचार करने में पतीजा रहता है। हरेक शरीर में सब जीवों में एक प्रभू-पति ही बस रहा है।3। गुरु सेवनि सतिगुरु दाता हरि हरि नामि समाइआ राम ॥ हरि धूड़ि देवहु मै पूरे गुर की हम पापी मुकतु कराइआ राम ॥ पापी मुकतु कराए आपु गवाए निज घरि पाइआ वासा ॥ बिबेक बुधी सुखि रैणि विहाणी गुरमति नामि प्रगासा ॥ हरि हरि अनदु भइआ दिनु राती नानक हरि मीठ लगाए ॥ गुरु सेवनि सतिगुरु दाता हरि हरि नामि समाए ॥४॥६॥७॥५॥७॥१२॥ {पन्ना 772} पद्अर्थ: सेवनि = (जो मनुष्य) सेवा करते हैं, शरण पड़ते हैं। नामि = नाम में। हरि = हे हरी! मै = मुझे। आपु = स्वै भाव। निज घरि = अपने असल घर में, प्रभू चरणों में। बिबेक बुधी = अच्छे बुरे कर्मों को परखने वाली बुद्धि। सुखि = सुख में, आत्मिक आनंद में। रैणि = (जिंदगी की) राम। नामि = नाम से। प्रगासा = (आत्मिक जीवन का) प्रकाश।4। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य हरी-नाम की दाति देने वाले गुरू की शरण पड़ते हैं, वे परमात्मा के नाम में लीन रहते हैं। हे हरी! मुझे भी पूरे गुरू के चरणों की धूड़ बख्श। गुरू हम पापी जीवों को (विकारों से) आजाद कर देता है। गुरू विकारी जीवों को विकारों से स्वतंत्र कर देता है, (उनके अंदर से) स्वै-भाव दूर कर देता है। (गुरू की शरण आए मनुष्य) प्रभू-चरणों में ठिकाना प्राप्त कर लेते हैं। (गुरू से) अच्छे-बुरे कामों की परख कर सकने वाली बुद्धि प्राप्त करके उनकी (जिंदगी की) रात आनंद में बीतती है। गुरू की मति के सदके हरी-नाम के द्वारा (उनके अंदर आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो जाता है। हे नानक! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ते हैं, उनको हरी-नाम प्यारा लगने लगता है, दिन-रात उनके अंदर आत्मिक आनंद बना रहता है, वह मनुष्य परमात्मा के नाम में लीन हुए रहते हैं।4।6।7।5।7।12। नोट: |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |