श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 773 रागु सूही महला ४ छंत घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सतिगुरु पुरखु मिलाइ अवगण विकणा गुण रवा बलि राम जीउ ॥ हरि हरि नामु धिआइ गुरबाणी नित नित चवा बलि राम जीउ ॥ गुरबाणी सद मीठी लागी पाप विकार गवाइआ ॥ हउमै रोगु गइआ भउ भागा सहजे सहजि मिलाइआ ॥ काइआ सेज गुर सबदि सुखाली गिआन तति करि भोगो ॥ अनदिनु सुखि माणे नित रलीआ नानक धुरि संजोगो ॥१॥ {पन्ना 773} पद्अर्थ: विकणा = बेचते हुए, दूर करते हुए। रवा = मैं याद करूँ। बलि = सदके। राम जीउ = हे राम जी! चवा = मैं उचारता रहूँ। सद = सदा। सहजे सहजि = सहज ही सहज, सदा आत्मिक अडोलता में। काइम = शरीर। सबदि = शबद की बरकति से। सुखाली = आसान। गिआन = आत्मिक जीवन की सूझ। तति = तत्व में। गिआन तति = आत्मिक जीवन की सूझ के मूल प्रभू में (जुड़ के)। करि = करे, करती है। करि भोगो = मिलाप का सुख भोगती है। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। सुखि = सुख में। धुरि = धुर दरगाह से। संजोगो = मिलाप।1। अर्थ: हे राम जी! मैं तुझसे सदके हूँ। मुझे गुरू पुरख मिला (जिसके द्वारा) मैं (तेरे) गुणों को याद करूँ, और (इन गुणों के बदले) अवगुण बेच दूँ (दूर कर दूँ)। हे हरी! तेरा नाम सिमर-सिमर के मैं सदा ही गुरू की बाणी उचारूँ। जिस जीव-स्त्री को गुरू की बाणी सदा प्यारी लगती है, वह (अपने अंदर से) पाप विकार दूर कर लेती है, उसका अहंकार का रोग समाप्त हो जाता है, हरेक किस्म का डर-सहम भाग जाता है, वह सदा सदा ही आत्मिक अडोलता में टिकी रहती है। गुरू के शबद की बरकति से उसके हृदय में सेज सुख से भरपूर हो जाती है (सुख का घर बन जाती है), आत्मिक जीवन की सूझ के मूल-प्रभू में जुड़ के वह प्रभू के मिलाप का सुख भोगती है। हे नानक! धुर-दरगाह से जिसके भाग्यों में संजोग लिखा होता है, वह हर वक्त आनंद में टिकी रह के सदा (प्रभू-मिलाप का) सुख पाती है।1। सतु संतोखु करि भाउ कुड़मु कुड़माई आइआ बलि राम जीउ ॥ संत जना करि मेलु गुरबाणी गावाईआ बलि राम जीउ ॥ बाणी गुर गाई परम गति पाई पंच मिले सोहाइआ ॥ गइआ करोधु ममता तनि नाठी पाखंडु भरमु गवाइआ ॥ हउमै पीर गई सुखु पाइआ आरोगत भए सरीरा ॥ गुर परसादी ब्रहमु पछाता नानक गुणी गहीरा ॥२॥ {पन्ना 773} पद्अर्थ: सतु = दान, सेवा। करि = पैदा कर के। भाउ = प्रेम। कुड़मु = जीव स्त्री को प्रभू पति के साथ मिलाने वाला बिचोलिया, गुरू। कुड़माई = जीव-स्त्री का प्रभू पति के साथ मिलाप करने के लिए (विवाह)। करि मेलु = इकट्ठा करके, साध-संगति एकत्र करके। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। पंच = ज्ञानेन्द्रियां। सोहाइआ = (हृदय = स्थल) सुंदर बना लिया। तनि = शरीर में। नाठी = भाग गई। पीर = पीड़ा। आरोगत = आरोग, निरोआ। परसादी = कृपा से। ब्रहमु पछाता = परमात्मा के साथ सांझ बना ली। गुणी = गुणों का खजाना। गुणी = गुणों का खजाना। गहीरा = गहरे जिगरे वाला।2। अर्थ: हे राम जी! मैं तुझसे सदके जाता हूँ। (जिस जीव स्त्री को) प्रभू-पति से मिलाने के लिए विचोलिया गुरू आ के मिल गया (उसके हृदय में) सेवा-संतोख-प्रेम आदि गुण पैदा करके, साधसंगति का (उसके साथ) मेल करके गुरू ने (उसको) सिफत सालाह की बाणी गाने की प्रेरणा की। जब जीव-स्त्री ने गुरू की उचारी हुई प्रभू की सिफत-सालाह की बाणी गानी आरम्भ की, उसने सबसे उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त कर ली, उसकी ज्ञानेन्द्रियां (विकारों की तरफ दौड़ने की जगह प्रभू की सिफत सालाह करने में) मिल बैठीं, और सुंदर लगने लग पड़ी। उसके अंदर से क्रोध दूर हो गया, उसके शरीर में बसती ममता भाग गई, उसका पाखण्ड दूर हो गया, भटकना दूर हो गई। (उसके अंदर से) अहंकार की पीड़ा चली गई, उसका सारा शरीर निरोग हो गया, और उसको आत्मिक आनंद प्राप्त हो गया। हे नानक! गुरू की कृपा से उस जीव-स्त्री ने गुणों के मालिक गहरे जिगरे वाले परमात्मा के सयाथ सांझ डाल ली।2। मनमुखि विछुड़ी दूरि महलु न पाए बलि गई बलि राम जीउ ॥ अंतरि ममता कूरि कूड़ु विहाझे कूड़ि लई बलि राम जीउ ॥ कूड़ु कपटु कमावै महा दुखु पावै विणु सतिगुर मगु न पाइआ ॥ उझड़ पंथि भ्रमै गावारी खिनु खिनु धके खाइआ ॥ आपे दइआ करे प्रभु दाता सतिगुरु पुरखु मिलाए ॥ जनम जनम के विछुड़े जन मेले नानक सहजि सुभाए ॥३॥ {पन्ना 773} पद्अर्थ: मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाली जीव स्त्री। महलु = प्रभू की हजूरी। बलि गई = (तृष्णा की आग में) जल जाती है। कूरि ममता = झूठी ममता। विहाझे = खरीदती है, वणज करती है। कूड़ि लई = झूठ ने उसको ग्रस लिया। कपटु = ठगी। मगु = (सही जीवन का) रास्ता। उझड़ पंथि = उजाड़ के रास्ते पर। भ्रमै = भटकती फिरती है। गावारी = मूर्ख जीव स्त्री। आपे = स्वयं ही। सतिगुरु पुरखु = समरथ गुरू। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाऐ = प्रेम में।3। अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री प्रभू-पति से विछुड़ी रहती है, (उसके चरणों से) दूर रहती है, उसकी हजूरी प्राप्त नहीं कर सकती, (तृष्णा की आग में) जली रहती है। उसके अंदर झूठी ममता बनी रहती है, वह सदा नाशवंत माया ही एकत्र करती रहती है, माया उसे सदैव ग्रसे हुए रखती है। वह जीव-स्त्री (माया की खातिर सदा) झूठ-ठगी (आदि का ही) काम करती है, बड़ा दुख सहती रहती है, गुरू की शरण पड़े बिना उसको (जिंदगी का सही) रास्ता नहीं मिलता। वह मूर्ख जीव-स्त्री उजाड़ के रास्ते में (जहाँ कामादिक लुटेरे उसे लूटते रहते हैं) भटकती फिरती है, और हर वक्त धक्के खाती है। हे नानक! जिन मनुष्यों पर दातार प्रभू खुद ही दया करता है, उनको समर्थ गुरू मिला देता है, गुरू उन अनेकों जन्मों से विछुड़े हुओं को आत्मिक अडोलता में प्रेम में टिका के प्रभू से मिला देता है।3। आइआ लगनु गणाइ हिरदै धन ओमाहीआ बलि राम जीउ ॥ पंडित पाधे आणि पती बहि वाचाईआ बलि राम जीउ ॥ पती वाचाई मनि वजी वधाई जब साजन सुणे घरि आए ॥ गुणी गिआनी बहि मता पकाइआ फेरे ततु दिवाए ॥ वरु पाइआ पुरखु अगमु अगोचरु सद नवतनु बाल सखाई ॥ नानक किरपा करि कै मेले विछुड़ि कदे न जाई ॥४॥१॥ {पन्ना 773} पद्अर्थ: लगनु गणाइ = लगन गणाय, महूर्त निकलवा के, लगन गिनवा के। हिरदै = हृदय में। धन = जीव स्त्री। ओमाहीआ = उमाह से भर जाती है, चाव से भर जाती है। आणि = ला के। पती = पत्री। बहि = बैठ के। वाचाईआ = पढ़वाई, सोधी। मनि = मन में। वजी वधाई = खुशी पैदा हुई। घरि = घर में, हृदय घर में। मता पकाइआ = सलाह की। फेरे = लावां, विवाह। ततु = तुरंत। अगंमु = अपहुँच। अगोचरु = जिस तक ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच ना हो सके (अ+गो+चरु। गो = ज्ञानेन्द्रियां)। सद = सदा। नवतनु = नूतन, नया। बाल सखाई = बचपन से ही मित्र।4। अर्थ: (जैसे जब दूल्हा) महूर्त निकलवा के (बारात ले के) आता है (तब,) स्त्री अपने दिल में प्रसन्न होती है, ज्योतिषी-पंडित पत्री ला के बैठ के (फेरे देने के समय) की विचार करते हैं। (ज्योतिषी-पण्डित) पत्री विचारते हैं (उधर) जब (विवाह वाली कन्या) साजन घर आए सुनती है, तो उसके मन में खुशी की लहर चल पड़ती है, गुणवान बैठ के फैसला करते हैं, और तुरंत फेरे दे देते हैं (वैसे ही, गुरू की कृपा से प्रभू जीव-स्त्री के अंदर प्रकट होता है, जीव-स्त्री के हृदय में आत्मिक आनंद की लहर चल पड़ती है। गुरमुख बाणी के रसिए साध-संगति में मिल के गुरू की बाणी पढ़ते-विचारते हैं। ज्यों-ज्यों गुरबाणी विचारते हैं, जीव-स्त्री के हृदय-गृह में साजन-प्रभू का प्रकाश होता है, उसके मन में आनंद के, मानो, बाजे बजते हैं। गुरमुख सत्संगी जीव-स्त्री का प्रभू-पति से मिलाप करवा देते हैं)। हे नानक! जीव-स्त्री को पति-प्रभू मिल जाता है जो (साधारण उद्यम से) अपहुँच है, जिस तक ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती, जो सदा नए प्यार वाला है, जो बचपन से मित्र बना हुआ है। जिस जीव-स्त्री को वह प्रभू कृपा करके अपने साथ मिलाता है, वह दोबारा कभी उससे नहीं विछुड़ती।4।1। सूही महला ४ ॥ हरि पहिलड़ी लाव परविरती करम द्रिड़ाइआ बलि राम जीउ ॥ बाणी ब्रहमा वेदु धरमु द्रिड़हु पाप तजाइआ बलि राम जीउ ॥ धरमु द्रिड़हु हरि नामु धिआवहु सिम्रिति नामु द्रिड़ाइआ ॥ सतिगुरु गुरु पूरा आराधहु सभि किलविख पाप गवाइआ ॥ सहज अनंदु होआ वडभागी मनि हरि हरि मीठा लाइआ ॥ जनु कहै नानकु लाव पहिली आर्मभु काजु रचाइआ ॥१॥ {पन्ना 773} पद्अर्थ: हरि पहलड़ी लाव = प्रभू पति के साथ (जीव स्त्री के विवाह की) ये पहली सुंदर लाव है (फेरी है)। परविरती करम = कर्म की प्रवृति, परमात्मा के नाम जपने में व्यस्त होने का काम। द्रिढ़ाइआ = (गुरू ने) दृढ़ करवाया। बाणी = गुरू की बाणी। द्रिढ़हु = हृदय में पक्का करो। तजाइआ = त्यागे जाते हैं। सिम्रिति नामु द्रिढ़ाइआ = गुरू ने जो हरी नाम सिमरन की ताकीद की है = यही सिख के लिए स्मृति (का उपदेश) है। सभि = सारे। किलविख = पाप। सहज अनंदु = आत्मिक अडोलता का सुख। मनि = मन में। आरंभु = आदि, आरम्भ। काजु = विवाह।1। अर्थ: हे राम जी! मैं तुझसे सदके जाता हूँ। (तेरी मेहर से गुरू के सिख को) हरी-नाम जपने के आहर में व्यस्त होने का काम निश्चय करवाया है (हरी-नाम जपने की कर्म प्रवृति दृढ़ करवाई है)। यही है प्रभू-पति से (जीव-स्त्री के विवाह की) पहली सुंदर लांव। हे भाई! गुरू की बाणी ही (सिख के लिए) ब्रहमा के वेद हैं। इस बाणी की बरकति से (परमात्मा के नाम के सिमरन का) धर्म (अपने हृदय में) पक्का करो (नाम सिमरने से सारे) पाप दूर हो जाते हैं। हे भाई! परमात्मा का नाम सिमरते रहो, (मनुष्य के जीवन का यह) धर्म (अपने अंदर) पक्का कर लो। गुरू ने जो नाम-सिमरन की ताकीद की है, यही सिख के लिए स्मृतियों (का उपदेश) है। हे भाई! पूरे गुरू (के इस उपदेश को) हर वक्त याद रखो, सारे पाप विकार (इसकी बरकति से) दूर हो जाते हैं। हे भाई! जिस मनुष्य के मन में परमात्मा का नाम प्यारा लगने लग जाता है, उस अति भाग्यशाली को आत्मिक अडोलता का सुख मिला रहता है। दास नानक कहता है– परमात्मा का नाम जपना प्रभू-पति के साथ जीव-स्त्री के विवाह की पहली लांव है। हरी के नाम सिमरन से ही (प्रभू-पति से जीव-स्त्री के) विवाह (का) आगाज़ (आरम्भ) होता है।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |