श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 774 हरि दूजड़ी लाव सतिगुरु पुरखु मिलाइआ बलि राम जीउ ॥ निरभउ भै मनु होइ हउमै मैलु गवाइआ बलि राम जीउ ॥ निरमलु भउ पाइआ हरि गुण गाइआ हरि वेखै रामु हदूरे ॥ हरि आतम रामु पसारिआ सुआमी सरब रहिआ भरपूरे ॥ अंतरि बाहरि हरि प्रभु एको मिलि हरि जन मंगल गाए ॥ जन नानक दूजी लाव चलाई अनहद सबद वजाए ॥२॥ {पन्ना 774} पद्अर्थ: हरि दूजड़ी लाव = प्रभू पति (जीव-स्त्री के विवाह की) दूसरी सुंदर लांव। सतिगुरु पुरखु मिलाइआ = (प्रभू ने जीव स्त्री को) गुरू महा पुरुख मिला दिया। बलि राम जीउ = हे राम जी! मैं तुझसे सदके जाता हूँ। भै = (दुनिया के) सारे डरों से। निरभउ भउ = पवित्र डर, अदब सत्कार। वेखै = देखती है। हदूरे = हाजर नाजर, अंग संग। आतमु रामु पसारिआ = प्रभू अपने आपे का पसारा पसार रहा है। सरब = सब जीवों में। भरपूरे = व्यापक। ऐको = एक ही। मिलि हरि जन = संत जनों के साथ मिल के, साध-संगति में मिल के। मंगल = सिफत सालाह के गीत। चलाई = चला दी। अनहद = एक रस, बिना बजाए। सबद वजाऐ = सिफत सालाह की बाणी के जैसे बाजे बजते हैं।2। अर्थ: हे राम जी! मैं तुझसे कुर्बान जाता हूँ। (तू मेहर करके जिस जीव-स्त्री को) गुरू महापुरुख मिलवा देता है (उसका) मन (दुनिया के) सारे डरों से निडर हो जाता है (निर्भय हो जाता है), (गुरू, उसके अंदर से) अहंकार की मैल दूर कर देता है– यही है प्रभू पति के (जीव-स्त्री के विवाह की) दूसरी सुंदर लांव। हे भाई! (जो जीव-स्त्री अहंकार दूर करके) परमात्मा के गुण गाती है, उसके अंदर (प्रभू-पति के लिए) आदर-सत्कार पैदा हो जाता है, वह परमात्मा को अपने अंग-संग बसता देखती है। (उसे ये निश्चय हो जाता है कि यह जगत-पसारा) प्रभू अपने स्वयं का पसारा पसार रहा है, और वह मालिक-प्रभू सब जीवों में व्याप रहा है। (उस जीव-स्त्री को अपने) अंदर और बाहर (सारे जगत में) सिर्फ परमात्मा ही (बसता दिखता है), साध-संगति में मिल के वह प्रभू की सिफत सालाह के गीत गाती रहती है। हे दास नानक! (कह– गुरू की शरण पड़ कर, अहंकार दूर करके प्रभू की सिफत-सालाह के गीत गाने और उसे सर्व-व्यापक देखना- प्रभू ने यह) दूसरी लांव (जीव-स्त्री के विवाह की) चाल दी है, (इस आत्मिक अवस्था पर पहुँची जीव-स्त्री के अंदर प्रभू) सिफत सालाह की बाणी के, जैसे एक-रस बाजे बजा देता है।2। हरि तीजड़ी लाव मनि चाउ भइआ बैरागीआ बलि राम जीउ ॥ संत जना हरि मेलु हरि पाइआ वडभागीआ बलि राम जीउ ॥ निरमलु हरि पाइआ हरि गुण गाइआ मुखि बोली हरि बाणी ॥ संत जना वडभागी पाइआ हरि कथीऐ अकथ कहाणी ॥ हिरदै हरि हरि हरि धुनि उपजी हरि जपीऐ मसतकि भागु जीउ ॥ जनु नानकु बोले तीजी लावै हरि उपजै मनि बैरागु जीउ ॥३॥ {पन्ना 774} पद्अर्थ: तीजड़ी लाव = सुंदर सी तीसरी लांव। हरि तीजड़ी लाव = प्रभू पति के साथ (जीव-स्त्री के विवाह की) तीसरी सुंदर सी लांव। मनि = मन में। बैरागीआ मनि = वैरावानों के मन में। चाउ = (प्रभू = मिलाप के लिए) उत्साह। मेलु = मिलाप। वडभागीआ = बड़े भाग्यों वाले मनुष्य। मुखि = मुँह से। बोली = उचारण की। हरि बाणी = परमात्मा के सिफत सालाह की बाणी। कथीअै = कथन करनी चाहिए। अकथ = जिसका सही स्वरूप बयान ना किया जा सके, अकथनीय। अकथ कहाणी = अकथ प्रभू की सिफत सालाह। हिरदै = हृदय में। धुनि = लगन, रौंअ। जपीअै = जपा जा सकता है। मसतकि = माथे पर। भागु = अच्छी किस्मत। नानकु बोलै = नानक बोलता है। तीजी लावै = तीसरी लांव द्वारा, प्रभू पति से जीव स्त्री के विवाह की तीसरे फेरे के वक्त। मनि = (जीव स्त्री के) मन में। हरि बैरागु = प्रभू (-मिलाप की) तीव्र इच्छा। उपजै = पैदा हो जाती है।3। अर्थ: हे राम जी! मैं तेरे से सदके जाता हूँ। (तेरी मेहर से) वैरागियों के मन में (तेरे से मिलने के लिए) तीव्र तमन्ना पैदा होती है, (ये आत्मिक अवस्था प्रभू-पति के साथ जीव-स्त्री के विवाह की) तीसरी सुंदर लांव है। हे भाई! जिन अति-भाग्यशाली मनुष्यों को संतजनों का मिलाप हासिल होता है, उनको परमात्मा का मेल प्राप्त होता है, (वे मनुष्य जीवन को) पवित्र करने वाले प्रभू का मिलाप हासिल करते हैं, सदा प्रभू के गुण गाते हैं, और मुँह से परमात्मा की सिफत सालाह की बाणी उचारते हैं, वह अति-भाग्यशाली मनुष्य संत-जनों की संगति में प्रभू-मिलाप प्राप्त करते हैं। हे भाई! अकॅथ प्रभू की सिफत सालाह हमेशा करते रहना चाहिए, (जो मनुष्य प्रभू की सिफत-सालाह सदा करता रहता है, उसके) हृदय में सदा टिकी रहने वाली प्रभू-प्रेम की रौंअ चल पड़ती है। पर, हे भाई! परमात्मा का नाम (तब ही) जपा जा सकता है, अगर माथे पर अहो-भाग्य जाग जाएं। हे भाई! दास नानक कहता है (कि प्रभू-पति के साथ जीव-स्त्री की) तीसरी लांव के समय (जीव-स्त्री के) मन में प्रभू (-मिलाप की) तीव्र चाहत पैदा हो जाती है।3। हरि चउथड़ी लाव मनि सहजु भइआ हरि पाइआ बलि राम जीउ ॥ गुरमुखि मिलिआ सुभाइ हरि मनि तनि मीठा लाइआ बलि राम जीउ ॥ हरि मीठा लाइआ मेरे प्रभ भाइआ अनदिनु हरि लिव लाई ॥ मन चिंदिआ फलु पाइआ सुआमी हरि नामि वजी वाधाई ॥ हरि प्रभि ठाकुरि काजु रचाइआ धन हिरदै नामि विगासी ॥ जनु नानकु बोले चउथी लावै हरि पाइआ प्रभु अविनासी ॥४॥२॥ {पन्ना 774} पद्अर्थ: चउथड़ी लाव = चौथी सुंदर लांव। हरि चउथड़ी लाव = प्रभू पति के साथ (जीव-स्त्री के विवाह की) चौथी सुंदर लांव। मनि = (जीव स्त्री के) मन में। सहजु = आत्मिक अडोलता। गुरमुखि = गुरू की तरफ मुँह करके, गुरू के सन्मुख रहके। सुभाइ = (प्रभू के) प्यार में (टिक के)। मनि = मन में। तनि = तन में। प्रभ भाइआ = प्रभू को भाया, अच्छा लगा। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। लिव लाई = सुरति जोड़ के रखी। मन चिंदिआ = मन इच्छित। नामि = नाम से। वजी वाधाई = चढ़दीकला बन गई, प्रफुल्लित हो गई। प्रभि = प्रभू ने। ठाकुरि = ठाकुर ने। काजु = (जीव-स्त्री के) विवाह का उद्यम। रचाइआ = रचाया, आरम्भ कर दिया। धन = जीव स्त्री। हिरदै = हृदय में। नामि = नाम की बरकति से। विगासी = खिल उठी, आनंद भरपूर हो गई। चउथी लावै = प्रभू पति के साथ जीव स्त्री के विवाह की चौथी लांव के समय। अविनासी = कभी नाश ना होने वाला।4। अर्थ: हे सुंदर राम जी! मैं तुझसे सदके हूँ। (तेरी मेहर से जिस जीव-स्त्री के) मन में आत्मिक अडोलता पैदा हो जाती है, उसको तेरा मिलाप हासिल हो जाता है (ये आत्मिक अवस्था प्रभू-पति के साथ जीव-स्त्री के मिलाप की) चौथी लांव है। हे भाई! गुरू की शरण पड़ कर (प्रभू-) प्रेम में (टिक के, जिस जीव-स्त्री को प्रभू) मिल जाता है, (उसके) मन में (उसके) तन में प्रभू प्यारा लगने लग जाता है। हे भाई! जिस जीव को परमात्मा प्यारा लगने लग जाता है, प्रभू को (भी) वह जीव प्यारा लगने लगता है, वह मनुष्य सदा प्रभू की याद में (अपनी) सुरति जोड़े रखता है, वह मनुष्य प्रभू-मिलाप का मन-बाँछित फल प्राप्त कर लेता है। प्रभू के नाम की बरकति से (उसके अंदर सदा) चढ़दीकला बनी रहती है। हे भाई! प्रभू ने, मालिक हरी ने (जिस जीव-स्त्री के) विवाह का उद्यम शुरू कर दिया, वह जीव-स्त्री नाम-सिमरन की बरकति से (अपने) दिल में सदैव आनंद-भरपूर रहती है। दास नानक कहता है– प्रभू-पति के साथ जीव-स्त्री के विवाह की चौथी लांव के समय जीव-स्त्री कभी नाश ना होने वाले प्रभू के मिलाप का आनंद प्राप्त कर लेती है।4।2। ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु सूही छंत महला ४ घरु २ ॥ गुरमुखि हरि गुण गाए ॥ हिरदै रसन रसाए ॥ हरि रसन रसाए मेरे प्रभ भाए मिलिआ सहजि सुभाए ॥ अनदिनु भोग भोगे सुखि सोवै सबदि रहै लिव लाए ॥ वडै भागि गुरु पूरा पाईऐ अनदिनु नामु धिआए ॥ सहजे सहजि मिलिआ जगजीवनु नानक सुंनि समाए ॥१॥ {पन्ना 774} पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। गाऐ = गाता रहता है। हिरदै = हृदय में (बसाता है)। रसन = जीभ से। रसाऐ = रस लेता है। प्रभ भाऐ = (वह मनुष्य) प्रभू को प्यारा लगता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाऐ = प्यार से। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। सुखि = सुख में। सोवै = लीन रहता है। सबदि = शबद से। लिव लाऐ रहै = सुरति जोड़े रखता है। भागि = किस्मत से। पाईअै = मिलता है। धिआऐ = सिमरता रहता है। सहजे सहजि = हर वक्त आत्मिक अडोलता में। जग जीवनु = जगत का जीवन प्रभू। सुंनि = सुंन में, उस अवस्था में जहाँ माया के फुरनों से सुंन्न है।1। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरू के सन्मुख रह के परमात्मा के गुण गाता रहता है (परमात्मा के गुण अपने) हृदय में (बसाए रखता है, अपनी) जीभ से (गुणों का) रस लेता है, (जो मनुष्य) हरी (के गुणों का) रस (अपनी) जीभ से लेता रहता है, वह मनुष्य प्रभू को प्यारा लगने लगता है, आत्मिक अडोलता में प्रेम में (उस टिके हुए को) परमात्मा मिल जाता है। वह मनुष्य हर वक्त (सिफत सालाह का) आनंद लेता है, आनंद में लीन रहता है, (गुरू के) शबद के द्वारा (वह मनुष्य प्रभू में) सुरति जोड़े रखता है। पर, हे भाई! पूरा गुरू मिलता है बड़ी किस्मत से, (जिसको मिलता है, वह) हर वक्त हरी-नाम सिमरता रहता है। हे नानक! वह मनुष्य हर समय आत्मिक अडोलता में टिका रहता है, जगत का सहारा प्रभू उसको मिल जाता है, वह मनुष्य उस अवस्था में लीन रहता है जहाँ माया का कोई विचार छू भी नहीं सकता।1। संगति संत मिलाए ॥ हरि सरि निरमलि नाए ॥ निरमलि जलि नाए मैलु गवाए भए पवितु सरीरा ॥ दुरमति मैलु गई भ्रमु भागा हउमै बिनठी पीरा ॥ नदरि प्रभू सतसंगति पाई निज घरि होआ वासा ॥ हरि मंगल रसि रसन रसाए नानक नामु प्रगासा ॥२॥ {पन्ना 774} पद्अर्थ: संगति संत = संत जनों की संगति में। सरि = सरोवर में। सरि निरमल = पवित्र सरोवर में। नाऐ = स्नान करता है। निरमलि जलि = पवित्र (नाम-) जल में। दुरमति = खोटी मति। भ्रमु = भटकना। बिनठी = नाश हो जाती है। पीरा = पीड़ा। नदरि = मेहर की निगाह से। निज घरि = अपने (असल) घर में, प्रभू चरणों में। होआ = हो जाता है। मंगल = सिफत सालाह के गीत। रसि = स्वाद से। रसन रसाऐ = जीभ से (गुणों का) रस लेता है। प्रगासा = (आत्मिक जीवन का) प्रकाश करता है।2। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य संत जनों की संगति में मिलता है, वह परमात्मा के पवित्र सरोवर में स्नान करता है। वह मनुष्य प्रभू के पवित्र नाम-जल में स्नान करता है, उसका शरीर पवित्र हो जाता है, (नाम-जल उसके अंदर से विकारों की) मैल दूर कर देता है। (नाम-जल के बरकति से उसके अंदर से) दुमर्ति की मैल धुल जाती है, भटकना दूर हो जाती है, अहंकार की पीड़ा नाश हा जाती है। पर, हे भाई! परमात्मा की मेहर की निगाह के साथ ही साध-संगति मिलती है (जिसको मिलती है, उसका) ठिकाना प्रभू-चरणों में हुआ रहता है। हे नानक! वह मनुष्य स्वाद से परमातमा की सिफत सालाह के गीतों का रस लेता है, (उसके अंदर परमात्मा का) नाम (आत्मिक जीवन का) प्रकाश पैदा कर देता है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |