श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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अंतरि रतनु बीचारे ॥ गुरमुखि नामु पिआरे ॥ हरि नामु पिआरे सबदि निसतारे अगिआनु अधेरु गवाइआ ॥ गिआनु प्रचंडु बलिआ घटि चानणु घर मंदर सोहाइआ ॥ तनु मनु अरपि सीगार बणाए हरि प्रभ साचे भाइआ ॥ जो प्रभु कहै सोई परु कीजै नानक अंकि समाइआ ॥३॥ {पन्ना 775}

पद्अर्थ: अंतरि = हृदय में। रतनु = नाम रत्न को, प्रभू की अमोलक सिफत सालाह को। बीचारे = बिचारता है, आत्मिक अडोलता में परोए रखता है। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख हो के। पिआरे = प्यार करता है। सबदि = (गुरू अपने) शबद के द्वारा। निसतारे = (गुरू उसको संसार समुंद्र से) पार लंघा लेता है। अगिआनु = आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझी। अधेरु = अंधेरा। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। प्रचण्ड = तेज, तीव्र। बलिआ = जल उठता है। घटि = हृदय में। घर मंदर = शरीर और ज्ञानंन्द्रियां। सोहाइआ = सुंदर आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं। अरपि = भेटा करके। सीगार = आत्मिक जीवन की सुहज। प्रभ साचे भाइआ = सदा स्थिर प्रभू को प्यारा लगता है। परु कीजै = अच्छी तरह करना चाहिए। अंकि = गोद में।3।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य अपने अंदर प्रभू की अमूल्य सिफत सालाह को परोए रखता है, गुरू के सन्मुख रहके परमात्मा के नाम को प्यार करता है, हरी-नाम से प्यार डाले रखता है, (गुरू अपने) शबद के द्वारा (उसको संसार समुंद्र से) पार लंघा देता है, (उसके अंदर से) आत्मिक जीवन के प्रति अज्ञानता (का) अंधकार दूर कर देता है। (उस मनुष्य के) हृदय में आत्मिक जीवन की सूझ वाला तेज प्रकाश जल उठता है, उसकी सारी ज्ञानेन्द्रियां सुंदर आत्मिक जीवन वाली बन जाती हैं। (वह मनुष्य अपना) शरीर भेट करके, (अपना) मन भेट करके आत्मिक जीवन का सुहज पैदा कर लेता है, वह सदा-स्थिर प्रभू को प्यारा लगने लग जाता है। हे नानक! (वह मनुष्य सदा प्रभू की) गोद में लीन रहता है (उसकी ये श्रद्धा बनी रहती है कि) जो कुछ प्रभू हुकम करता है, वही ध्यान से करना चाहिए (प्रभू की रजा में पूरी तौर पर राजी रहना चाहिए)।3।

हरि प्रभि काजु रचाइआ ॥ गुरमुखि वीआहणि आइआ ॥ वीआहणि आइआ गुरमुखि हरि पाइआ सा धन कंत पिआरी ॥ संत जना मिलि मंगल गाए हरि जीउ आपि सवारी ॥ सुरि नर गण गंधरब मिलि आए अपूरब जंञ बणाई ॥ नानक प्रभु पाइआ मै साचा ना कदे मरै न जाई ॥४॥१॥३॥ {पन्ना 775}

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभू ने। काजु = विवाह का कार्य। रचाइआ = रचाया, आरम्भ कर दिया। गुरमुखि = गुरू के द्वारा। साधन = (वह) जीव स्त्री। कंत पिआरी = पति प्रभू को प्यारी लगती है। मिलि = मिल के। मंगल = सिफत सालाह के गीत। सवारी = सुंदर जीवन वाली बना दी। सुरि = देवते। सुरि नर = दैवी स्वभाव वाले मनुष्य। गण = शिवजी के उपासक। गंधरब = गंधर्व, देवताओं के रागी। सुरि...गंधरब = उच्च जीवन वाले संत जन। अपूरब = अपूर्व, जो पहले देखने में ना आई हो। प्रभ मै = मै प्रभू, मेरा प्रभू। साचा = सदा कायम रहने वाला। जाई = पैदा होता।4।

अर्थ: हे भाई! हरी प्रभू ने (जिस जीव-स्त्री के विवाह का) काम रच दिया, उसको वह गुरू के द्वारा ब्याहने के लिए आ पहुँचा (जिस जीव-स्त्री को परमात्मा अपने चरणों से जोड़ता है, उसको गुरू की शरण में टिकाता है)।

हे भाई! (जिस जीव-स्त्री को) प्रभू अपने साथ जोड़ने की मेहर करता है, उसको गुरू के माध्यम से मिल जाता है, वह जीव-स्त्री प्रभू-पति को प्यारी लगने लग जाती है। वह जीव-स्त्री संत जनों के साथ मिल के प्रभू-पति की सिफत-सालाह के गीत गाती है, प्रभू स्वयं उसका जीवन सुंदर बना देता है।

(जैसे विवाह के समय बाराती मिलजुल के आते हैं, वैसे ही जीव स्त्री को प्रभू-पति से मिलाने के लिए) दैवी-गुणों वाले संत-जन, प्रभू की सिफत सालाह करने वाले भक्तजन मिल के आते हैं (उस जीव-स्त्री का प्रभू-पति के साथ विवाह करने के लिए) एक अद्वितीय बारात बनाते हैं। हे नानक! (सत्संगियों की उस बारात की बरकति से, भाव, उस सत्संग की कृपा से उस जीव-स्त्री को) वह प्यारा प्रभू मिल जाता है, जो सदा कायम रहने वाला है, जो कभी पैदा होता मरता नहीं।4।1।3।

रागु सूही छंत महला ४ घरु ३    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आवहो संत जनहु गुण गावह गोविंद केरे राम ॥ गुरमुखि मिलि रहीऐ घरि वाजहि सबद घनेरे राम ॥ सबद घनेरे हरि प्रभ तेरे तू करता सभ थाई ॥ अहिनिसि जपी सदा सालाही साच सबदि लिव लाई ॥ अनदिनु सहजि रहै रंगि राता राम नामु रिद पूजा ॥ नानक गुरमुखि एकु पछाणै अवरु न जाणै दूजा ॥१॥ {पन्ना 775}

पद्अर्थ: आवहो = आओ। संत जनहु = हे संत जनो! गावह = आओ, हम गाएं। केरे = के। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख हो के। मिलि रहीअै = (प्रभू के चरणों में) खड़े रहना चाहिए। घरि = (हृदय-) घर में। वाजहि = बज पड़ते हैं, अपना प्रभाव डाले रखते हैं। शबद = (परमात्मा की सिफत सालाह के) शबद। घनेरे = अनेकों, बहुत। प्रभ = हे प्रभू! थाई = जगहों में। अहि = दिन। निसि = रात। जपी = मैं जपता रहूँ। सालाही = मैं सलाहता रहूँ। साच सबदि = सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह के शबद में। लिव लाई = सुरति जोड़े रखूँ। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। सहजि = आत्मिक अडोलता में। रंगि = प्रेम रंग में। राता रहै = रंगा रहता है। रिद पूजा = हृदय की पूजा (बनाता है)।1।

अर्थ: हे संत जनो! आओ, (साध-संगति में मिल के) परमात्मा के गुण गाते रहें। (हे संत जनों!) गुरू की शरण पड़ कर (प्रभू चरणों में) जुड़े रहना चाहिए (प्रभू चरणों में जुड़ने की बरकति से) हृदय-घर में प्रभू की सिफत-सालाह के शबद अपना प्रभाव डाले रखते हैं।

हे प्रभू! (ज्यों-ज्यों) तेरी सिफत सालाह के शबद (मनुष्य के हृदय में) प्रभाव डालते हैं, (त्यों-त्यों तू, हे प्रभू!) उसको हर जगह बसता दिखाई देता है। (हे प्रभू! मेरे ऊपर भी मेहर कर) मैं दिन-रात तेरा नाम जपता रहूँ, मैं सदा तेरी सिफत-सालाह करता रहूँ, मैं तेरी सदा सिफत सालाह में सुरति जोड़े रखूँ।

हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा के नाम को अपने हृदय की पूजा बनाता है (भाव, हर वक्त हृदय में बसाए रखता है) वह मनुष्य हर समय आत्मिक अडोलता में टिका रहता है, वह मनुष्य परमात्मा के प्रेम-रंग में रंगा रहता है। गुरू की शरण पड़ कर वह एक प्रभू के साथ ही सांझ डाले रखता है, किसी और दूसरे के साथ सांझ नहीं डालता।1।

सभ महि रवि रहिआ सो प्रभु अंतरजामी राम ॥ गुर सबदि रवै रवि रहिआ सो प्रभु मेरा सुआमी राम ॥ प्रभु मेरा सुआमी अंतरजामी घटि घटि रविआ सोई ॥ गुरमति सचु पाईऐ सहजि समाईऐ तिसु बिनु अवरु न कोई ॥ सहजे गुण गावा जे प्रभ भावा आपे लए मिलाए ॥ नानक सो प्रभु सबदे जापै अहिनिसि नामु धिआए ॥२॥ {पन्ना 775}

पद्अर्थ: रवि रहिआ = व्यापक है। अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला। सबदि = शबद के द्वारा। रवै = सिमरता है। घटि घटि = हरेक शरीर में। रविआ = व्यापक। सोई = वही। सचु = सदा स्थिर प्रभू। पाईअै = मिलता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समाईअै = टिके रहना है। अवरु = और। सहजे = आत्मिक अडोलता में (टिक के)। गावा = मैं गा सकता हूँ। प्रभ भावा = प्रभू को अच्छा लगूँ। आपे = आप ही। सबदे = शबद के द्वारा। जापै = जाना जा सकता है, गहरी सांझ पड़ सकती है। अहि = दिन। निसि = रात।2।

अर्थ: हे भाई! वह परमात्मा हरेक के दिल की जानने वाला है, और सब जीवों में व्यापक है। (पर जो मनुष्य) गुरू के शबद के द्वारा (उसको) सिमरता है, उसको ही वह मालिक प्रभू (सब जगह) व्यापक दिखाई देता है। (उस मनुष्य को ये निश्चय हो जाता है कि कहीं भी) उस परमात्मा के बिना और कोई नहीं।

हे भाई! (प्रभू की अपनी ही मेहर से) अगर मैं उस प्रभू को अच्छा लग पड़ूँ, तो आत्मिक अडोलता में टिक के मैं उसके गुण गा सकता हूँ, वह खुद ही (जीव को अपने साथ) मिलाता है। हे नानक! गुरू के शबद के द्वारा ही उस प्रभू के साथ गहरी सांझ पड़ सकती है (जो मनुष्य शबद में) जुड़ता है, (वह) दिन-रात परमात्मा का नाम सिमरता रहता है।2।

इहु जगो दुतरु मनमुखु पारि न पाई राम ॥ अंतरे हउमै ममता कामु क्रोधु चतुराई राम ॥ अंतरि चतुराई थाइ न पाई बिरथा जनमु गवाइआ ॥ जम मगि दुखु पावै चोटा खावै अंति गइआ पछुताइआ ॥ बिनु नावै को बेली नाही पुतु कुट्मबु सुतु भाई ॥ नानक माइआ मोहु पसारा आगै साथि न जाई ॥३॥ {पन्ना 775}

पद्अर्थ: जगो = जगत। दुतरु = (दुष्तर) जिससे पार लांघना मुश्किल है। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। पारि न पाई = परले पासे नहीं पहुँच सकता। अंतरे = (मनमुख के) अंदर ही। ममता = अपनत्व, मल्कियत की लालसा। थाइ = जगह में। थाइ न पाई = (प्रभू की हजूरी में) जगह नहीं मिलती, परवान नहीं होता। बिरथा = व्यथा, व्यर्थ। जम मगि = जमराज के रास्ते पर। पावै = सहता है। अंति = आखिरी वक्त, अंत के समय। को = कोई मनुष्य। बेली = मददगार। सुतु = पुत्र। भाई = भ्राता। पसारा = खिलारा। आगै = परलोक में। साथि = साथ।3।

अर्थ: हे भाई! ये जगत (एक ऐसा समुंद्र है, जिससे) पार लांघना मुश्किल है। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (इसके) दूसरे छोर पर नहीं पहुँच सकता, (क्योंकि उसके) अंदर ही अहंकार, अस्लियत की लालसा, काम, क्रोध चतुराई (आदि बुराईयाँ) टिकी रहती हैं।

हे भाई! (जिस मनुष्य के) अंदर अपनी समझदारी का मान टिका रहता है वह मनुष्य (प्रभू के दर पर) प्रवान नहीं होता, वह अपना मानस जन्म व्यर्थ गवा लेता है। (वह मनुष्य सारी उम्र) जमराज के रास्ते पर चलता है, दुख सहता है (आत्मिक मौत की) चोटें खाता रहता है, अंत के समय यहाँ से हाथ मलता जाता है। हे भाई! (जीवन-यात्रा में यहाँ) पुत्र, परिवार, भाई - इनमें से कोई भी मददगार नहीं, परमात्मा के नाम के बिना कोई बेली नहीं बनता। हे नानक! ये सारा माया के मोह का पसारा (ही) है, परलोक में (भी मनुष्य के) साथ नहीं जाता।3।

हउ पूछउ अपना सतिगुरु दाता किन बिधि दुतरु तरीऐ राम ॥ सतिगुर भाइ चलहु जीवतिआ इव मरीऐ राम ॥ जीवतिआ मरीऐ भउजलु तरीऐ गुरमुखि नामि समावै ॥ पूरा पुरखु पाइआ वडभागी सचि नामि लिव लावै ॥ मति परगासु भई मनु मानिआ राम नामि वडिआई ॥ नानक प्रभु पाइआ सबदि मिलाइआ जोती जोति मिलाई ॥४॥१॥४॥ {पन्ना 775-776}

पद्अर्थ: हउ = मैं। पूछउ = मैं पूछता हूँ। किन बिधि = किस तरीके से? दुतरु = मुश्किल से तैरा जा सकने वाला समुंद्र। तरीअै = तैरा जा सकता है। सतिगुर भाइ = गुरू की रजा में। इव = इस तरह। मरीअै = मर सकते हैं, विकारों की ओर से मुर्दा हो जाया जाता है। भउजलु = संसार समुंद्र। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। नामि = नाम में। समावै = लीन रहता है। वडभागी = बड़े भाग्यों से। सचि = सदा स्थिर में। सचि नामि = सदा स्थिर हरी नाम में। लिव लावै = सुरति जोड़े रखता है। परगासु = आत्मिक जीवन की समझ से रौशन। मानिआ = पतीज जाता है। वडिआई = इज्जत, शोभा। सबदि = गुरू के शबद द्वारा। जोती = प्रभू की ज्योति में। जोति = जिंद, जीवात्मा।4।

अर्थ: हे भाई! (जब) मैं (नाम की) दाति देने वाले अपने गुरू को पूछता हूँ कि ये दुष्तर संसार-समुंद्र कैसे पार लांघा जा सकता है (तो आगे से उक्तर मिलता है कि) गुरू की रजा में (जीवन की चाल) चलते रहो, इस तरह दुनिया की किरत-कार करते हुए ही विकारों से बचे रहा जा सकता है। (गुरू की रजा में चलने से) दुनिया के काम करते हुए ही विकारों की ओर से मृतक रहा जाता है, संसार-समुंद्र से पार लांघा जाता है। (क्योंकि) जो मनुष्य गुरू के सन्मुख रहता है, वह परमात्मा के नाम में लीन रहता है उसको बड़े-भाग्यों से सारे गुणों से भरपूर प्रभू मिल जाता है, सदा स्थिर हरी नाम में वह सुरति जोड़े रखता है। उसकी मति में आत्मिक जीवन की सूझ का प्रकाश हो जाता है, उसका मन नाम में पतीज जाता है, उसको नाम की बरकति से (लोक-परलोक में) इज्जत मिल जाती है। हे नानक! जो मनुष्य गुरू के शबद में जुड़ता है उसे प्रभू मिल जाता है, उसकी जीवात्मा प्रभू की ज्योति में एक-मेक हुई रहती है।4।1।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh