श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सूही महला ४ घरु ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ गुरु संत जनो पिआरा मै मिलिआ मेरी त्रिसना बुझि गईआसे ॥ हउ मनु तनु देवा सतिगुरै मै मेले प्रभ गुणतासे ॥ धनु धंनु गुरू वड पुरखु है मै दसे हरि साबासे ॥ वडभागी हरि पाइआ जन नानक नामि विगासे ॥१॥ {पन्ना 776}

पद्अर्थ: संत जनो! = हे संत जनो! मै = मुझे। बुझि गईआसे = बुझ गई है, बुझ गई। हउ = मैं। देवा = मैं भेट करता हूँ। देवा सतिगुरै = सतिगुरू को देता हूँ। गुणतासे = गुण तास, गुणों का खजाना। धनु धंनु = सराहनीय। वड पुरखु = महा पुरुष। दसे हरि = हरी के बारे में बताता है। साबासे = गुरू को शाबाश। वडभागी = बड़े भाग्यों वाला। नामि = नाम में (जुड़ के)। विगासे = खिल गए, आत्मिक आनंद से भरपूर हो गए।1।

अर्थ: हे संत जनो! मुझे प्यारा गुरू मिल गया है (उसकी मेहर से) मेरी (माया की) तृष्णा मिट गई है। (गुरू) मुझे गुणों के खजाने परमात्मा के साथ मिला रहा है, मैं अपना मन, अपना तन गुरू के आगे भेट धरता हूँ।

हे भाई! गुरू सराहनीय है, गुरू महापुरुष है, गुरू को शाबाश। गुरू मुझे परमात्मा के बारे में बता रहा है। हे दास नानक! जिन्हें परमात्मा बड़े भाग्यों से मिल जाता है, (वे मनुष्य परमात्मा के) नाम में जुड़ के आत्मिक आनंद से भरपूर हो जाते हैं।1।

गुरु सजणु पिआरा मै मिलिआ हरि मारगु पंथु दसाहा ॥ घरि आवहु चिरी विछुंनिआ मिलु सबदि गुरू प्रभ नाहा ॥ हउ तुझु बाझहु खरी उडीणीआ जिउ जल बिनु मीनु मराहा ॥ वडभागी हरि धिआइआ जन नानक नामि समाहा ॥२॥ {पन्ना 776}

पद्अर्थ: मै = मुझे। मारगु = रास्ता। पंथु = रास्ता। दसाहा = मैं पूछती हूँ। घरि = (हृदय) घर में। चिरी विछंनिआ = चिरों के बिछुड़े हुए। सबदि गुरू = गुरू के शबद के द्वारा। प्रभ नाहा = हे प्रभू पति! हउ = मैं। खरी = बहुत। उडीणीआ = उदास। मीनु = मछली। नामि = नाम में।2।

अर्थ: हे संत जनो! (जबका) प्यारा गुरू सज्जन मुझे मिला है, मैं (उससे) परमात्मा (के मिलाप) का रास्ता पूछती रहती हूँ, (और प्रभू-पति को भी कहती रहती हूँ-) हे प्रभू-पति! गुरू के शबद के द्वारा मुझ चिरों से विछुड़ी हुई को आ के मिल, मेरे (हृदय-) घर में आ के बस। हे प्रभू! जैसे पानी के बिना मछली (तड़प) के मरती है, (वैसे ही) तेरे बिना मैं बहुत उदास रहती हूँ।

हे दास नानक! जिन मनुष्यों ने बहुत भाग्यों से परमात्मा का सिमरन किया, वे परमात्मा के नाम में (ही) लीन हो गए।2।

मनु दह दिसि चलि चलि भरमिआ मनमुखु भरमि भुलाइआ ॥ नित आसा मनि चितवै मन त्रिसना भुख लगाइआ ॥ अनता धनु धरि दबिआ फिरि बिखु भालण गइआ ॥ जन नानक नामु सलाहि तू बिनु नावै पचि पचि मुइआ ॥३॥ {पन्ना 776}

पद्अर्थ: दह = दस। दिसि = दिशाएं, पासा, तरफ़। दह दिसि = दसों दिशाएं (पूर्व, पश्चिम, उक्तर, दक्षिण ये चार दिशाएं, चारों कोनें और ऊपर-नीचे)। चलि चलि = दौड़ दौड़ के। भरमिआ = भटकता है। मनमुखु = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। भुलाइआ = गलत रास्ते पर पड़ा रहता है। मनि = मन में। चितवै = चितवता है। अनता = अनंत, बेअंत। धरि = धरती में। फिरि = फिर भी। बिखु = आत्मिक मौत लाने वाली माया जहर। पचि = (प्लुष् = to born) जल के, खिझ के। मुइआ = आत्मिक मौत सहेड़ी रखता है।3।

अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (माया की) भटकना में पड़ कर गलत रास्ते पर पड़ा रहता है, (उसका) मन दसों-दिशाओं में दौड़-दौड़ के भटकता रहता है। (अपने मन का मुरीद मनुष्य अपने) मन में सदा (माया की) आशाएं चितारता रहता है, (उसके) मन को (माया की) तृष्णा (माया की) भूख चिपकी रहती है। बेअंत धन धरती में दबा के रखता है, फिर भी आत्मिक मौत लाने वाली और माया-जहर की तलाश करता फिरता है।

हे दास नानक! (कह– हे भाई!) तू परमात्मा का नाम जपता रहा कर। नाम से टूट के मनुष्य (तृष्णा की आग में) जल-जल के आत्मिक मौत सहेड़े रखता है।3।

गुरु सुंदरु मोहनु पाइ करे हरि प्रेम बाणी मनु मारिआ ॥ मेरै हिरदै सुधि बुधि विसरि गई मन आसा चिंत विसारिआ ॥ मै अंतरि वेदन प्रेम की गुर देखत मनु साधारिआ ॥ वडभागी प्रभ आइ मिलु जनु नानकु खिनु खिनु वारिआ ॥४॥१॥५॥ {पन्ना 776}

पद्अर्थ: मोहनु = मन को आकर्षित करने वाला, प्यारा। पाइ करि, पाय करि, पा के। प्रेम बाणी = प्रेम के बाणों से। मेरै हिरदै = मेरे हृदय में। सुधि बुधि = सूझ बूझ। मै अंतरि = मेरे अंदर। वेदन = पीड़ा। साधारिआ = आसरे वाला बन गया है। प्रभ = हे प्रभू! वारिआ = कुर्बान, सदके।4।

अर्थ: हे भाई! प्यारे सुंदर गुरू को मिल के मेरा मन प्रेम के तीरों से भेदा जा चुका है, आशा-चिंता वाली समझ मेरे हृदय में से भूल गई है, मैं अपने मन की आशा और चिंता विसार चुका हॅूँ। (अब) मेरे अंदर प्रेम की चुभन बनी रहती है, गुरू के दर्शन करके मेरा मन धैर्यवान हो गया है।

हे दास नानक! (अब यूँ अरदास किया कर-) हे प्रभू! मेरे अच्छे भाग्यों को मुझे आ के मिल- मैं तुझसे हर वक्त कुर्बान जाता हूँ।4।1।5।

सूही छंत महला ४ ॥ मारेहिसु वे जन हउमै बिखिआ जिनि हरि प्रभ मिलण न दितीआ ॥ देह कंचन वे वंनीआ इनि हउमै मारि विगुतीआ ॥ मोहु माइआ वे सभ कालखा इनि मनमुखि मूड़ि सजुतीआ ॥ जन नानक गुरमुखि उबरे गुर सबदी हउमै छुटीआ ॥१॥ {पन्ना 776}

पद्अर्थ: मारेहिसु = इस (अहंकार) को मार दो। वे जन = हे भाई! बिखिआ = माया। जिनि = जिस (माया) ने। देह = शरीर, काया। कंचन = सोना। वे = हे भाई! कंचन वंनीआ = सोने के रंग वाली, सोहणी। इनि हउमै = इस अहंकार ने। मारि = मार के। विगुतीआ = दुखी कर दी है। इनि मूढ़ि मनमुखि = इस मूर्ख मनमुख ने। मूढ़ि = मूर्ख ने। मनमुखि = मन के मुरीद मनुष्य ने। सजुतीआ = (अपने आप को कालिख से) जोड़ा हुआ है। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। उबरे = (कालिख से) बच जाते हैं। छुटीआ = खत्म हो जाती है, निजात मिल जाती है।1।

अर्थ: हे भाई! जिस अहंकार ने जिस माया ने (जीव को कभी) परमात्मा से मिलने नहीं दिया, इस अहंकार को इस माया को (अपने अंदर से) मार भगाओ। हे भाई! (देखो!) ये शरीर सोने के रंग जैसा सुंदर होता है, (पर जहाँ अहंकार आ घुसा) इस अहंकार ने (उस शरीर को) मार के दुखी कर दिया।

हे भाई! माया का मोह निरी कालिख है, पर अपने मन के मुरीद इस मूर्ख मनुष्य ने (अपने आप को इस कालिख़ से ही) जोड़ रखा है।

हे दास नानक! (कह– हे भाई!) गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य (इस अहंकार से) बच जाते हैं, गुरू के शबद की बरकति से उन्हें अहंकार से निजात मिल जाती है।1।

वसि आणिहु वे जन इसु मन कउ मनु बासे जिउ नित भउदिआ ॥ दुखि रैणि वे विहाणीआ नित आसा आस करेदिआ ॥ गुरु पाइआ वे संत जनो मनि आस पूरी हरि चउदिआ ॥ जन नानक प्रभ देहु मती छडि आसा नित सुखि सउदिआ ॥२॥ {पन्ना 776}

पद्अर्थ: वसि = वश में। वसि आणिहु = (अपने) वश में लाओ। कउ = को। बासा = बाशा, एक शिकारी पक्षी। जिउ = की तरह। दुखि = दुख में। रैणि = (जिंदगी की) रात। विहाणीआ = बीतती है। प्रभ = हे प्रभू! छडि = छोड़ के। सुखि = आनंद में। सउदिआ = लीन रहता है।2।

अर्थ: हे भाई! (अपने) इस मन को (सदा अपने) वश में रखो। (मनुष्य का ये) मन सदा (शिकारी पक्षी) बाशे की तरह भटकता है। सदा आशाएं ही आशाएं बनाते हुए (मनुष्य की सारी जिंदगी की) रात दुख में ही बीतती है।

हे संत जनो! जिस मनुष्य को गुरू मिल गया (वह परमात्मा का नाम जपने लग जाता है, और) नाम जपते हुए (उसके) मन में (उठी हरी-नाम सिमरन की) आशा पूरी हो जाती है। हे दास नानक! (प्रभू के दर पर अरदास किया कर और कह–) हे प्रभू! (मुझे भी अपना नाम जपने की) सूझ बख्शो (जो मनुष्य नाम जपता है, वह दुनियावी) आशाएं छोड़ के आत्मिक आनंद में लीन रहता है।2।

सा धन आसा चिति करे राम राजिआ हरि प्रभ सेजड़ीऐ आई ॥ मेरा ठाकुरु अगम दइआलु है राम राजिआ करि किरपा लेहु मिलाई ॥ मेरै मनि तनि लोचा गुरमुखे राम राजिआ हरि सरधा सेज विछाई ॥ जन नानक हरि प्रभ भाणीआ राम राजिआ मिलिआ सहजि सुभाई ॥३॥ {पन्ना 776-777}

पद्अर्थ: साधन = जीव स्त्री। चिति = चिक्त में। राम राजिआ = हे प्रभू पातशाह! हरि = हे हरी! प्रभ = हे प्रभू! सेजड़ीअै = सुंदर सेज पर, (मेरे हृदय की) सोहणी सेज पे। ठाकुर = मालिक। प्रभ = हे प्रभू! अगम = अपहुँच। दइआलु = दया का घर। करि = कर के। मेरै मनि = मेरे मन में। मेरै तनि = मेरे तन में। लोचा = तमन्ना। गुरमुखे = गुरू की शरण पड़ कर। सरधा सेज = श्रद्धा की सेज। प्रभ भाणीआ = प्रभू को अच्छी लगती है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाई = प्रेम में (टिकी को)।3।

अर्थ: हे भाई! (गुरू की शरण पड़ी रहने वाली) जीव-स्त्री (अपने) चिक्त में (नित्य प्रभू-पति के मिलाप की) आस करती रहती है (और कहती है–) हे प्रभू पातशाह! हे हरी! हे प्रभू! (मेरे हृदय की) सुदर सेज पर आ (के बस)। हे प्रभू पातशाह! तू मेरा मालिक है, तू दया का श्रोत है, (पर तू मेरे लिए) अपहुँच है (तू स्वयं ही) मेहर कर के (मुझे अपने चरणों में) मिला ले। हे प्रभू पातशाह! गुरू की शरण पड़ कर मेरे मन में, मेरे तन में (तेरे मिलाप की) तमन्ना पैदा हो चुकी है। हे हरी! मैंने श्रद्धा की सेज बिछा रखी है।

हे दास नानक! (कह–) हे प्रभू पातशाह! हे हरी! जो जीव-स्त्री तुझे प्यारी लग जाती है, तू उस आत्मिक अडोलता में टिकी को प्रेम में ठहरी हुई को मिल जाता है।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh