श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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इकतु सेजै हरि प्रभो राम राजिआ गुरु दसे हरि मेलेई ॥ मै मनि तनि प्रेम बैरागु है राम राजिआ गुरु मेले किरपा करेई ॥ हउ गुर विटहु घोलि घुमाइआ राम राजिआ जीउ सतिगुर आगै देई ॥ गुरु तुठा जीउ राम राजिआ जन नानक हरि मेलेई ॥४॥२॥६॥५॥७॥६॥१८॥ {पन्ना 777}

पद्अर्थ: इकतु = (शब्द ‘इकसु’ से बना अधिकरण कारक एक वचन) एक पर ही। इकतु सेजै = एक ही हृदय सेज पर। हरि प्रभो = हरी प्रभू (बसता है)। दसे = बताता है। मेलेई = मिला देता है। मै मनि = मेरे मन में। मै तनि = मेरे तन में। बैरागु = तीव्र तमन्ना। करेई = करता है। हउ = मैं। विटहु = से। घोलि घुमाइआ = सदके कुर्बान जाता हूँ। जीउ = जिंद। देई = मैं देता हूं। तुठा = प्रसन्न होया हुआ। जीउ राम राजिआ = हे प्रभू पातशाह जी!।4।

नोट: शब्द ‘राम राजिआ’ छंत की टेक के लिए ही है।

अर्थ: हे भाई! (जीव-स्त्री की) एक ही (हृदय-) सेज पर हरी प्रभू (बसता है), (जिस जीव स्त्री को) गुरू बताता है, उसको हरी से मिलवा देता है। मेरे मन में मेरे हृदय में (प्रभू के मिलाप के लिए) आकर्षण है तमन्ना है (पर जिस जीव स्त्री पर) गुरू मेहर करता है, उसको (प्रभू से) मिलाता है।

हे भाई! मैं गुरू से सदके कुर्बान जाता हूँ, मैं (अपनी) जिंद को गुरू के आगे अर्पित करता हूँ। हे दास नानक! (कह–) जिस पर गुरू दयालु होता है, उसको हरी-प्रभू से मिला देता है।4।2।6।18।

अंकों का वेरवा:
महला १---------------– 5
महला ३---------------– 7
महला ४---------------– 6
कुल जोड़---------------18


रागु सूही छंत महला ५ घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सुणि बावरे तू काए देखि भुलाना ॥ सुणि बावरे नेहु कूड़ा लाइओ कुस्मभ रंगाना ॥ कूड़ी डेखि भुलो अढु लहै न मुलो गोविद नामु मजीठा ॥ थीवहि लाला अति गुलाला सबदु चीनि गुर मीठा ॥ मिथिआ मोहि मगनु थी रहिआ झूठ संगि लपटाना ॥ नानक दीन सरणि किरपा निधि राखु लाज भगताना ॥१॥ {पन्ना 777}

पद्अर्थ: बावरे = (माया के मोह में) पागल हुए हे मनुष्य! काऐ = क्यों? देखि = (इस माया को) देख के। भुलाना = (जीवन राह से) भटक गया है। कूड़ा = झूठा, ना निभ सकने वाला। कुसंभ रंगाना = कुसंभ के फूल के रंग। कूड़ी = नाशवंत। डेखि = देख के। अढु = आधी कौड़ी। थीवहि = तू हो जाएगा। लाला = एक फूल का नाम। चीनि् = पहचान के। मिथिआ = नाशवंत पदार्थ। मोहि = मोह में। मगनु = मस्त। संगि = साथ। दीन = गरीबी। किरपा निधि = हे कृपा के खजाने! लाज = इज्जत।1।

अर्थ: (माया के मोह में) पागल हो रहे हे मनुष्य! (जो कुछ मैं कह रहा हूँ, इसको ध्यान से) सुन। तू (माया को) देख के क्यों (जीवन राह से) भटक रहा है। हे बावरे! सुन, (ये माया) कुसंभ के रंग (जैसी है, तूने इससे) प्यार डाला हुआ है जो सदा निभने वाला नहीं। तू (उस) नाशवंत (माया) को देख के जीवन-राह से भटक रहा है, (जो आखिर) आधी कौड़ी के बदले में भी नहीं खरीदी जा सकती। हे भाई! परमात्मा का नाम ही मजीठ के पक्के रंग की तरह सदा साथ (निभाने वाला) है। अगर तू गुरू के मीठे शबद से गहरी सांझ डाल के (परमात्मा का नाम जपता रहे, तो) तू सुंदर गहरे रंग वाले लाल फूल बन जाएगा। पर तू तो नाशवंत (माया) के मोह में मस्त हो रहा है, तू उन पदार्थों के साथ चिपक रहा है जिनसे तेरा साथ नहीं निभना।

हे नानक! (कह–) हे दया के खजाने प्रभू! (मैं) गरीब (तेरी) शरण (आया हूँ मेरी) लाज रख, (जैसे) तू अपने भक्तों की (लाज रखता आया है)।1।

सुणि बावरे सेवि ठाकुरु नाथु पराणा ॥ सुणि बावरे जो आइआ तिसु जाणा ॥ निहचलु हभ वैसी सुणि परदेसी संतसंगि मिलि रहीऐ ॥ हरि पाईऐ भागी सुणि बैरागी चरण प्रभू गहि रहीऐ ॥ एहु मनु दीजै संक न कीजै गुरमुखि तजि बहु माणा ॥ नानक दीन भगत भव तारण तेरे किआ गुण आखि वखाणा ॥२॥ {पन्ना 777}

पद्अर्थ: सेवि = सेवा भक्ति कर। नाथु पराणा = प्राणों के नाथ, जिंद के मालिक। तिसु जाणा = उसको (यहाँ से) जाना (भी पड़ेगा)। हभ = सारी सृष्टि। निहचलु = अटल। रहीअै = मिल के रहना चाहिए, (प्रभू की याद में) मिले रहना चाहिए। पाईअै = मिलता है। बैरागी = (माया के मोह की ओर से) उपराम (रह कर)। गहि = पकड़ के। रहीअै = टिके रहना चाहिए। दीजै = भेटा कर दे। संक = शंका, झिझक। न कीजै = नहीं करनी चाहिए। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। माणा = अहंकार। भव = संसार समुंद्र। आखि = कह के। वखाणा = मैं बताऊँ।2।

अर्थ: हे बावरे! सुन; जिंद के मालिक प्रभू की सेवा-भक्ति किया कर। हे झल्ले! सुन! (यहाँ सदा किसी ने नहीं बैठे रहना) जो (जीव जगत में) आया है उसको (यहाँ से) जाना भी पड़ेगा।

हे पराए देश में आए जीव! सुन, (जिस जगत को तू) अटल (समझ रहा है, यह) सारी सृष्टि नाश हो जाएगी। हे परदेसी! साध-संगति में टिक के प्रभू-चरणों में जुड़े रहना चाहिए। हे भाई! सुन, (माया के मोह से) उपराम (हो के ही) अच्छी किस्मत से प्रभू को मिला जा सकता है, (इस वास्ते) प्रभू के चरणों को अच्छी तरह पकड़ के रखना चाहिए।

हे भाई! ये मन गुरू के हवाले कर, (इसमें रक्ती भर भी) झिझकना नहीं चाहिए। गुरू की शरण पड़ कर (अपने अंदर से) अहंकार दूर कर।

हे नानक! (प्रभू दर पर अरदास कर और कह–) हे (शरण पड़े) गरीबों को और भक्तों को संसार-समुंद्र से पार लंघाने वाले! (तू बेअंत गुणों का मालिक है) मैं तेरे कौन-कौन से गुण कह के बता सकता हूँ?।2।

सुणि बावरे किआ कीचै कूड़ा मानो ॥ सुणि बावरे हभु वैसी गरबु गुमानो ॥ निहचलु हभ जाणा मिथिआ माणा संत प्रभू होइ दासा ॥ जीवत मरीऐ भउजलु तरीऐ जे थीवै करमि लिखिआसा ॥ गुरु सेवीजै अम्रितु पीजै जिसु लावहि सहजि धिआनो ॥ नानकु सरणि पइआ हरि दुआरै हउ बलि बलि सद कुरबानो ॥३॥ {पन्ना 777}

पद्अर्थ: किआ कीचै = नहीं करना चाहिए। कूड़ा = झूठा। मानो = अहंकार। हभु = सारा। गरबु = गर्व, अहंकार। निहचलु = अटल। हभ = सारी सृष्टि। मिथिआ = झूठा। होइ = बना रहे। जीवत मरीअै = अगर जीते जी मरे रहें, अगर सदा स्वै भाव दूर किए रखें। भउजलु = संसार समुंद्र। थीवै = होए। करमि = (प्रभू की) मेहर से। सेवीजै = शरण पड़ना चाहिए। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। पीजै = पीना चाहिए। लावहि = (हे प्रभू!) तू जोड़ता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। जिसु धिआनो = जिस की सुरति। हरि दुआरै = हरी के दर पे। हउ = मैं। सद = सदा।3।

अर्थ: हे बावरे! (नाशवंत पदार्थों का) झूठा अहंकार नहीं करना चाहिए। हे बावरे! सुन, (पदार्थों से संबंध टूटने पर ये) सारा गर्व और गुमान भी खत्म हो जाएगा। हे भाई1 जिस जगत को (तू) सदा स्थिर समझता है, यह सारी सृष्टि चलायमान है, इसका मान करना झूठा कर्म है। (यहाँ) गुरू का प्रभू का दास बने रहना चाहिए। अगर सदा स्वै भाव दूर किए रखें, तो संसार-समुंद्र से पार लांघा जाता है, (पर ये तब ही हो सकता है,) अगर (परमात्मा की) मेहर से (माथे पर लेख) लिखे हों। हे भाई! गुरू की शरण पड़े रहना चाहिए (गुरू से ही) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीया जा सकता है। (पर, हे प्रभू! वही मनुष्य तेरा नाम-अमृत पीता है) जिसकी सुरति तू आत्मिक अडोलता में टिकाता है।

हे हरी! (तेरा दास) नानक तेरे दर पर तेरी शरण आ पड़ा है। मैं (तुझसे) सदा-सदा कुर्बान जाता हूँ।3।

सुणि बावरे मतु जाणहि प्रभु मै पाइआ ॥ सुणि बावरे थीउ रेणु जिनी प्रभु धिआइआ ॥ जिनि प्रभु धिआइआ तिनि सुखु पाइआ वडभागी दरसनु पाईऐ ॥ थीउ निमाणा सद कुरबाणा सगला आपु मिटाईऐ ॥ ओहु धनु भाग सुधा जिनि प्रभु लधा हम तिसु पहि आपु वेचाइआ ॥ नानक दीन सरणि सुख सागर राखु लाज अपनाइआ ॥४॥१॥ {पन्ना 777}

पद्अर्थ: मतु जाणहि = कहीं तू ये समझे। पाइआ = पा लिया है। थीउ = हो जा। रेणु = चरण धूल। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। तिनि = उसने। पाईअै = प्राप्त होता है। सद = सदा। आपु = स्वै भाव। धनु = धन्य, सराहनीय। भाग सुधा = शुद्ध भाग्य, अच्छे भाग्य। लधा = पा लिया, ढूँढ लिया। हम = मैं। आपु = अपना आप। पहि = पास। सुख सागर = हे सुखों के समुंद्र! अपनाइआ = अपने (सेवक की)।4।

अर्थ: हे (माया के मोह में) झल्ले (हो रहे) मनुष्य (जो कुछ मैं कर रहा हूँ, ध्यान से) सुन। ये ना समझ कि (माया के गुमान में रहके भी) मैंने (भाव, तूने) परमात्मा का मिलाप हासिल कर लिया है। हे बावरे! सुन, जिन लोगों ने परमात्मा का सिमरन किया है, (उनके) चरणों की धूल बना रह (तब ही प्रभू-मिलाप होता है)।

हे भाई! जिस (मनुष्य) ने परमात्मा का सिमरन किया है, उसने आत्मिक आनंद प्राप्त कर लिया है। बड़े भाग्यों से ही (परमात्मा के) दर्शन होते हैं। गरीब स्वभाव वाला बना रहा कर, (जिन्होंने प्रभू का सिमरन किया है, उन पर से) सदा सदके हुआ कर। हे भाई! सवै भाव (अहंकार भाव) अच्छी तरह से दूर कर देना चाहिए।

हे भाई! जिस (मनुष्य) ने परमात्मा का मिलाप हासिल कर लिया, वह साराहनीय हो गया, उसके भाग्य उक्तम हो गए। मैंने तो अपना-आप ऐसे मनुष्य के आगे भेट कर दिया है।

हे नानक! (कह–) हे गरीबों की सहायता करने वाले! हे सुखों के समुंद्र! (मैं तेरी शरण आया हूँ) अपने सेवक की लाज रख।4।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh