श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सूही महला ५ ॥ हरि चरण कमल की टेक सतिगुरि दिती तुसि कै बलि राम जीउ ॥ हरि अम्रिति भरे भंडार सभु किछु है घरि तिस कै बलि राम जीउ ॥ बाबुलु मेरा वड समरथा करण कारण प्रभु हारा ॥ जिसु सिमरत दुखु कोई न लागै भउजलु पारि उतारा ॥ आदि जुगादि भगतन का राखा उसतति करि करि जीवा ॥ नानक नामु महा रसु मीठा अनदिनु मनि तनि पीवा ॥१॥ {पन्ना 778}

पद्अर्थ: चरण कमल = कमल के फूल जैसे कोमल चरण। टेक = सहारा। सतिगुरि = गुरू ने। तुसि कै = प्रसन्न हो के। बलिराम जीउ = (मैं) प्रभू जी से सदके हूँ। अंम्रिति = आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल से। भंडार = खजाने। सभु किछु = हरेक पदार्थ। घरि तिस कै = उस (प्रभू) के घर में। बाबुल = पति प्रभू। समरथा = ताकतों का मालिक। करण कारण हारा = हरेक सबब बना सकने वाला। सिमरत = सिमरते हुए। भउजलु = संसार समुंद्र। आदि = आरम्भ से। जुगादि = जुगों के आरम्भ से। उसतति = उपमा। करि = कर के। जीवा = मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। महा रसु = सब रसों से बड़ा रस। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। मनि = मन से। तनि = तन से। पीवा = मैं पीता हूँ।1।

तिस कै: ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कै’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! मैं सुंदर प्रभू से सदके जाता हूँ (उसकी मेहर से) गुरू ने मेहरवान हो के मुझे उसके सुंदर चरणों का आसरा दिया है। मैं उस प्रभू से कुर्बान हूँ, उसके घर में हरेक पदार्थ मौजूद है, आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल से (उसके घर में) खजाने भरे पड़े हैं।

हे भाई! मेरा प्रभू-पति बड़ी ताकतों का मालिक है, वह प्रभू हरेक सबब बना सकने वाला है। (वह ऐसा है) जिसका नाम सिमरने से कोई दुख छू नहीं सकता, (उसका नाम) संसार-समुंद्र से पार लंघा देता है।

हे भाई! जगत के आरम्भ से ही (वह प्रभू अपने) भक्तों का रखवाला (चला आ रहा) है। उसकी सिफत सालाह कर कर के मैं आत्मिक जीवन हसिल कर रहा हूँ। हे नानक! (कह– हे भाई! उसका) नाम मीठा है, (सब रसों से) बड़ा रस है मैं तो हर वक्त (वह नाम-रस अपने) मन के द्वारा ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा पीता रहता हूँ।1।

हरि आपे लए मिलाइ किउ वेछोड़ा थीवई बलि राम जीउ ॥ जिस नो तेरी टेक सो सदा सद जीवई बलि राम जीउ ॥ तेरी टेक तुझै ते पाई साचे सिरजणहारा ॥ जिस ते खाली कोई नाही ऐसा प्रभू हमारा ॥ संत जना मिलि मंगलु गाइआ दिनु रैनि आस तुम्हारी ॥ सफलु दरसु भेटिआ गुरु पूरा नानक सद बलिहारी ॥२॥ {पन्ना 778}

पद्अर्थ: आपे = खुद ही। थीवई = हो सकता है। किउ थीवई = कैसे हो सकता है? नहीं हो सकता। सद = सदा। जीवई = जीए, आत्मिक जीवन हासिल किए रखता है। तुझै ते = तुझ से ही, तेरे पास से ही। पाई = मिलती है। साचे = हे सदा कायम रहने वाले! मिलि = मिल के। मंगलु = सिफत सालाह का गीत। रैनि = रात। सफलु = हरेक फल देने वाला, हरेक मुराद पूरी करने वाला। भेटिआ = मिला। बलिहारी = कुर्बान।2।

जिस ते: ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ते’ के कारण हटा दी गई है।

जिस नो: ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! मैं सुंदर प्रभू से सदके जाता हूँ, (जिस मनुष्य को) वह स्वयं ही (अपने चरणों से) जोड़ता है (उस मनुष्य का प्रभू से) फिर कभी वियोग नहीं होता।

हे राम! मैं तेरे से कुर्बान हूँ। जिस मनुष्य को तेरा सहारा मिल जाता है, वह सदा ही आत्मिक जीवन हासिल किए रखता है। पर, हे सदा कायम रहने वाले और सब को पैदा करने वाले! तेरा आसरा मिलता भी तेरे पास ही से है। तू ऐसा हमारा मालिक है, जिस (के दर) से कोई खाली (बेमुराद) नहीं जाता। हे प्रभू! तेरे संत जन मिल के (सदा तेरी) सिफत सालाह के गीत गाते हैं, (उनको) दिन-रात तेरी (सहायता की) ही आशा रहती है। हे नानक! (कह– हे प्रभू!) मैं तुझसे सदा सदके जाता हॅूँ (तेरी ही मेहर से वह) पूरा गुरू मिलता है जिसका दीदार हरेक मुराद पूरी करने वाला है।2।

सम्हलिआ सचु थानु मानु महतु सचु पाइआ बलि राम जीउ ॥ सतिगुरु मिलिआ दइआलु गुण अबिनासी गाइआ बलि राम जीउ ॥ गुण गोविंद गाउ नित नित प्राण प्रीतम सुआमीआ ॥ सुभ दिवस आए गहि कंठि लाए मिले अंतरजामीआ ॥ सतु संतोखु वजहि वाजे अनहदा झुणकारे ॥ सुणि भै बिनासे सगल नानक प्रभ पुरख करणैहारे ॥३॥ {पन्ना 778}

पद्अर्थ: संम्लिआ = संभाला। सचु थानु = सदा कायम रहने वाला प्रभू का दर। महतु = महत्वता, वडिआई। सचु = सदा स्थिर हरी। बलि राम जीउ = मैं प्रभू जी से सदके जाता हूँ। दइआलु = दया का घर। गाउ = गाया करो। नित नित = हर रोज, सदा ही। सुभ = भले। दिवस = दिन। गहि = पकड़ के। कंठि = गले से। अंतरजामीआ = सबके दिल की जानने वाला। सतु = ऊँचा आचरण। संतोखु = माया की ओर से तृप्ति। वजहि वाजे = बाजे बजते हैं (जैसे कहीं बाजे बज रहे हों तो उस जगह पर साधारण आवाज में की गई बात नहीं सुनी जा सकती, वैसे ही हृदय में विकारों की प्रेरणा नहीं सुनी जाती)। अनहदा = एक रस, लगातार। झुणकारे = मीठी सुर। सुणि = सुन के। भै = (शब्द ‘भव’ का बहुवचन) भय, सारे डर। करणैहारै = सब कुछ करने वाले की समर्था वाले के।3।

अर्थ: हे भाई! मैं प्रभू जी से सदके जाता हूँ। (प्रभू की मेहर से जिसको) दया का श्रोत गुरू मिल गया, उसने अविनाशी प्रभू के गुण गाने आरम्भ कर दिए, उसने सदा-स्थिर प्रभू के दर पर कब्जा कर लिया, उसको सदा-स्थिर प्रभू मिल गया, (उसको प्रभू के दर से) सम्मान मिला, उपमा मिली।

हे भाई! जिंद के मालिक प्रीतम प्रभू के गुण सदा ही गाया करो, (जो मनुष्य गुण गाता है उसके वास्ते जिंदगी के) सुंदर दिन आए रहते हैं, उसको प्रभू जी अपने गले से लगाए रहते हैं, सबके दिल की जानने वाले प्रभू उससे मिल जाते हैं। (उस मनुष्य के अंदर) उच्च आचरण और संतोष (हर वक्त अपना पूरा प्रभाव डाले रखते हैं, मानो, सत्-संतोख के अंदर) बाजे बज रहे हैं, (सत्-संतोख की उसके अंदर) एक रस मीठी लय बनी रहती है।

हे नानक! सब कुछ करने की समर्था रखने वाले प्रभू अकाल पुरूख के गुण गा-गा के सारे डर नाश हो जाते हैं।3।

उपजिआ ततु गिआनु साहुरै पेईऐ इकु हरि बलि राम जीउ ॥ ब्रहमै ब्रहमु मिलिआ कोइ न साकै भिंन करि बलि राम जीउ ॥ बिसमु पेखै बिसमु सुणीऐ बिसमादु नदरी आइआ ॥ जलि थलि महीअलि पूरन सुआमी घटि घटि रहिआ समाइआ ॥ जिस ते उपजिआ तिसु माहि समाइआ कीमति कहणु न जाए ॥ जिस के चलत न जाही लखणे नानक तिसहि धिआए ॥४॥२॥ {पन्ना 778}

पद्अर्थ: उपजिआ = पैदा हो जाता है। ततु = निचोड़। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। ततु गिआनु = आत्मिक जीवन की असल सूझ। साहुरै = परलोक में। पेईअै = इस लोक में, पिता के घर में। ब्रहमै ब्रहमु मिलिआ = जीवात्मा को परमात्मा (ऐसे) मिल जाता है। भिंन = अलग। बिसमु = आश्चर्य रूप प्रभू। पेखै = देखता है। बिसमादु = आश्चर्यरूप हरी। नदरी आइआ = दिखता है। माहि = में। चलत = चरित्र, करिश्मे। न जाही लखणे = बयान नहीं किए जा सकते। तिसहि = (तिस ही) उस (प्रभू) को ही। जलि = जल में। थलि = थल में, धरती में। महीअलि = मही तलि, धरती की तह के ऊपर, पाताल में, आकाश में।4।

जिस ते: ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ते’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! मैं प्रभू जी से सदके जाता हूँ। (जो मनुष्य उस प्रभू को सदा सिमरता है, उसके अंदर) असल आत्मिक जीवन की सूझ पैदा हो जाती है, (उसको) इस लोक में और परलोक में वही परमात्मा दिखाई देता है। उस जीव को परमात्मा (ऐसे) मिल जाता है कि कोई (भी परमात्मा से उसको) जुदा नहीं कर सकता। (वह मनुष्य हर जगह) उस आश्चर्य-रूप प्रभू को देखता है, (वही हर जगह बोलता हुआ उसे) सुनाई देता है, हर जगह वही उसे दिखता है। पानी में, धरती पर, आकाश में परमात्मा ही उसको व्यापक दिखता है।

हे नानक! (कह– हे भाई!) जिस परमात्मा के करिश्मे-तमाशे बयान नहीं किए जा सकते, (जो मनुष्य सदा) उसका ही ध्यान धरता है, उस मनुष्य की ऊँची हो चुकी आत्मिक अवस्था का मूल्य नहीं डाला जा सकता, (क्योंकि) जिस परमात्मा से वह पैदा हुआ है (सिमरन की बरकति से) उसमें (हर वक्त) लीन रहता है।4।2।

रागु सूही छंत महला ५ घरु २    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ गोबिंद गुण गावण लागे ॥ हरि रंगि अनदिनु जागे ॥ हरि रंगि जागे पाप भागे मिले संत पिआरिआ ॥ गुर चरण लागे भरम भागे काज सगल सवारिआ ॥ सुणि स्रवण बाणी सहजि जाणी हरि नामु जपि वडभागै ॥ बिनवंति नानक सरणि सुआमी जीउ पिंडु प्रभ आगै ॥१॥ {पन्ना 778}

पद्अर्थ: रंगि = प्रेम रंग में। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। जागे = (माया के हमलों से) सचेत हो गए। संत = गुरू। भरम = भटकना। सगल = सारे। सुणि = सुन के। स्रवन = कानों से। सहजि = आत्मिक अडोलता में (टिक के)। जपि = जप के। वड भागै = बड़ी किस्मत से। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर।1।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य प्यारे गुरू को मिल जाते हैं, वे मनुष्य परमात्मा का गुण-गान करने लग जाते हैं, परमात्मा के प्रेम-रंग में (टिक के) वह हर वक्त (माया के हमलों से) सचेत रहते हैं, (ज्यों-ज्यों) वह प्रभू के प्यार-रंग में (टिक के) सचेत होते हैं, (उनके अंदर से) सारे पाप भाग जाते हैं। हे भाई! जो मनुष्य गुरू के चरणों में लगते हैं, उनकी सारी भटकनें दूर हो जाती हैं, उनके सारे काम भी सँवर जाते हैं।

नानक विनती करता है– जो मनुष्य बहुत बड़ी किस्मत से सतिगुरू की बाणी कानों से सुन के परमात्मा का नाम जप के आत्मिक अडोलता में (टिक के परमात्मा के साथ) गहरी सांझ डालता है, वह मनुष्य मालिक प्रभू की शरण पड़ कर अपनी जिंद अपना शरीर (सब कुछ) परमात्मा के आगे (रख देता है)।1।

अनहत सबदु सुहावा ॥ सचु मंगलु हरि जसु गावा ॥ गुण गाइ हरि हरि दूख नासे रहसु उपजै मनि घणा ॥ मनु तंनु निरमलु देखि दरसनु नामु प्रभ का मुखि भणा ॥ होइ रेण साधू प्रभ अराधू आपणे प्रभ भावा ॥ बिनवंति नानक दइआ धारहु सदा हरि गुण गावा ॥२॥ {पन्ना 778-779}

पद्अर्थ: अनहत = एक रस, लगातार, हर वक्त। सुहावा = (कानों को) सुख देने वाला। सचु = सदा स्थिर। मंगलु = सिफत सालाह का गीत। जसु = सिफत सालाह। गावा = (जिन्होंने) गाया। गाइ = गा के। रहसु = खुशी। मनि = मन में। घणा = बहुत। तंनु = तन (पढ़ने में एक मात्रा बढ़ाने के लिए ‘तनु’ से ‘तंनु’ बनाया)। देखि = देख के। मुखि = मुँह से। भणा = (जिसने) उचारा। प्रभ भावा = प्रभू को प्यारे लगे। गावा = मैं गाता रहूँ। रेण = चरण धूल। साधू = गुरू।2।

अर्थ: हे भाई! जिन मनुष्यों ने सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह के गीत हर वक्त गाए, उनको सिफत सालाह की बाणी हर वक्त एक-रस (कानों को) सुखद लगने लग जाती है। परमात्मा के गुण गा-गा के (उनके सारे) दुख नाश हो जाते हैं, (उनके) मन में बहुत आनंद पैदा हो जाता है। हे भाई! जो मनुष्य (अपने) मुँह से परमात्मा का नाम उचारते रहते हैं, (उनका) दर्शन करके मन पवित्र हो जाता है। गुरू की चरण-धूल हो के जो मनुष्य परमात्मा की आराधना करते रहते हैं, वह मनुष्य अपने प्रभू को प्यारे लगने लग जाते हैं।

नानक विनती करता है– हे प्रभू! (मेरे पर) मेहर कर, मैं (भी) सदा तेरे गुण गाता रहॅूँ।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh