श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गुर मिलि सागरु तरिआ ॥ हरि चरण जपत निसतरिआ ॥ हरि चरण धिआए सभि फल पाए मिटे आवण जाणा ॥ भाइ भगति सुभाइ हरि जपि आपणे प्रभ भावा ॥ जपि एकु अलख अपार पूरन तिसु बिना नही कोई ॥ बिनवंति नानक गुरि भरमु खोइआ जत देखा तत सोई ॥३॥ {पन्ना 779}

पद्अर्थ: गुर मिलि = गुरू को मिल के। सागरु = (संसार-) सागर। जपत = जपते हुए। निसतरिआ = निस्तारा हो गया, पार उतारा हो सकता है। धिआऐ = सुरति जोड़ता है। सभि = सारे। आवण जाणा = जनम मरण के चक्कर। भाइ = प्यार से। भगति सुभाइ = भक्ति वाले स्वभाव में टिक के। जपि = जप के। प्रभ भावा = प्रभू को अच्छा लगता है। अलख = जिसका सही स्वरूप बताया ना जा सके। अपार = जिसकी हस्ती का परला छोर ना मिले। गुरि = गुरू ने। जपि = जपा कर। जत = जिधर। देखा = मैं देखता हॅूँ। तत = उधर। सोई = वही प्रभू।3।

अर्थ: हे भाई! गुरू को मिल के परमात्मा का नाम जपने से संसार-समुंद्र से पार लांघा जा सकता है।

जो मनुष्य परमात्मा के चरणों में सुरति जोड़े रखता है वह सारी मुँह मांगी मुरादें प्राप्त कर लेता है, उसके जनम-मरण के चक्कर भी मिट जाते हैं। प्यार के द्वारा, भक्ति वाले स्वभाव के द्वारा परमात्मा का नाम जप के वह मनुष्य अपने प्रभू को प्यारा लगने लगता है।

हे भाई! अदृश्य बेअंत और सर्व-व्यापक परमात्मा का नाम जपा कर, उसके बिना और कोई नहीं है।

नानक विनती करता है– गुरू ने (मेरी) भटकना दूर कर दी है, (अब) मैं जिधर देखता हूँ, उधर वह (परमात्मा) ही (दिखता है)।3।

पतित पावन हरि नामा ॥ पूरन संत जना के कामा ॥ गुरु संतु पाइआ प्रभु धिआइआ सगल इछा पुंनीआ ॥ हउ ताप बिनसे सदा सरसे प्रभ मिले चिरी विछुंनिआ ॥ मनि साति आई वजी वधाई मनहु कदे न वीसरै ॥ बिनवंति नानक सतिगुरि द्रिड़ाइआ सदा भजु जगदीसरै ॥४॥१॥३॥ {पन्ना 779}

पद्अर्थ: पतित = (विकारों में) गिरे हुए। पावन = पवित्र (करने वाला)। पतित पावन = विकारियों को पवित्र करने वाला। के कामा = के (सारे) काम। पाइआ = पाया, मिलाप हासिल किया। सगल = सारी। इछा = मुराद। पुंनीआ = पूरी हो गई। हउ ताप = अहंकार का ताप। सरसे = प्रसन्न। प्रभ मिले = प्रभू को मिल गए। चिरी = चिरों के। मनि = मन में। साति = शांति, ठंढ। वजी वधाई = चढ़ती कला प्रबल हो गई। मनहु = मन से। सतिगुरि = गुरू ने। जगदीसरै = (जगत+ईसरै) जगत के ईश्वर को। भजु = भजन किया कर।4।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम विकारियों को पवित्र करने वाला है और संत जनों के सारे काम सिरे चढ़ाने वाला है।

जिनको संत-गुरू मिल गया, उन्होंने प्रभू का नाम सिमरना आरम्भ कर दिया, उनकी सारी मुरादें पूरी होने लग पड़ीं, (उनके अंदर से) अहंकार के कलेश नाश हो गए, वे सदैव प्रफुल्लित रहने लग पड़े, चिरों से विछुड़े हुए वे प्रभू को मिल गए। उनके मन में (सिमरन की बरकति से) ठंड पड़ गई, उनके अंदर चढ़दीकला (प्रगतिशील जीवन की उमंग) प्रबल हो गई, परमात्मा का नाम उन्हें कभी नहीं भूलता।

नानक विनती करता है– (हे भाई! गुरू ने ये बात हृदय में) पक्की कर दी है कि सदा जगत के मालिक का नाम जपते रहा करो।4।1।3।

रागु सूही छंत महला ५ घरु ३    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ तू ठाकुरो बैरागरो मै जेही घण चेरी राम ॥ तूं सागरो रतनागरो हउ सार न जाणा तेरी राम ॥ सार न जाणा तू वड दाणा करि मिहरमति सांई ॥ किरपा कीजै सा मति दीजै आठ पहर तुधु धिआई ॥ गरबु न कीजै रेण होवीजै ता गति जीअरे तेरी ॥ सभ ऊपरि नानक का ठाकुरु मै जेही घण चेरी राम ॥१॥ {पन्ना 779}

पद्अर्थ: ठाकुरो = ठाकुर, मालिक, पालनहार। बैरागरो = वासना रहित, चाहत बगैर, बैरागी। मै जेही = मेरे जैसी। घण = अनेकों। चेरी = दासियाँ। राम = हे राम! रतनागरो = रत्नों की खान, रतनाकरु, रत्न आकर। हउ = मैं। सार = कद्र। दाणा = सियाना, समझदार। मिहरंमति = मेहर। सांई = हे सांई! कीजै = करिए। दीजै = दे। मति = अकल। सा = ऐसी। धिआई = मैं ध्याऊँ। गरबु = अहंकार। रेण = चरण धूड़। होवीजै = हो जा। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। जीअरे = हे जीव!।1।

अर्थ: हे (मेरे) राम! तू (सब जीवों का) मालिक है, तेरे पर माया अपना प्रभाव नहीं डाल सकती। मेरे जैसी (तेरे दर पे) अनेकों दासियाँ हैं। हे राम! तू समुंद्र है। तू रत्नों की खान है। हे प्रभू! मैं तेरी कद्र नहीं समझ सकी।

हे मेरे मालिक! मैं (तेरे गुणों की) कद्र नहीं जानती, तू बड़ा समझदार है (सब कुछ जानने वाला है), (मेरे पर) मेहर कर। कृपा कर, मुझे ऐसी समझ बख्श कि आठों पहर मैं तेरा सिमरन करती रहूँ।

हे जिंदे! अहंकार नहीं करना चाहिए, (सबके) चरणों की धूड़ बने रहना चाहिए, तब ही तेरी उच्च आत्मिक अवस्था बन सकेगी।

हे नानक! (कह–) मेरा मालिक प्रभू सबके सिर पर है। मेरे जैसी (उसके दर पे) अनेकों दासियां हैं।1।

तुम्ह गउहर अति गहिर ग्मभीरा तुम पिर हम बहुरीआ राम ॥ तुम वडे वडे वड ऊचे हउ इतनीक लहुरीआ राम ॥ हउ किछु नाही एको तूहै आपे आपि सुजाना ॥ अम्रित द्रिसटि निमख प्रभ जीवा सरब रंग रस माना ॥ चरणह सरनी दासह दासी मनि मउलै तनु हरीआ ॥ नानक ठाकुरु सरब समाणा आपन भावन करीआ ॥२॥ {पन्ना 779}

पद्अर्थ: गउहर = (बहुत ही कीमती) मोती। गहिरा = गहरा, अथाह (समुंद्र)। गंभीरा = बड़े जिगरे वाला। पिर = पति। हम = हम जीव। बहुरीआ = दुल्हनें। लहुरीआ = छोटी। इतनीक = बहुत ही छोटी। हउ = मैं। आपे = स्वयं ही। सुजाना = समझदार। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाली। द्रिसटि = निगाह। निमख = (निमेष) आँख झपकने जितना समय। प्रभ = हे प्रभू! जीवा = जीऊँ, मैं जी पड़ती हूँ। माना = मान ले। मनि मउलै = मन खिल उठा। हरीआ = हरा भरा। भावन = मर्जी।2।

अर्थ: हे प्रभू! तू एक (अनमोल) मोती है, तू अथाह (समुंद्र) है, तू बहुत बड़े जिगरे वाला है, तू (हमारा) पति है, हम जीव तेरी पत्नियाँ हैं। तू बेअंत बड़ा है, तू बेअंत ऊँचा है। मैं बहुत ही छोटी सी हस्ती वाली हूँ।

हे भाई! मेरी कुछ भी पाया नहीं है, एक तू ही तू है, तू खुद ही खुद सब कुछ जानने वाला है। हे प्रभू! आँख झपकने जितने समय के लिए मिली तेरी अमृत-दृष्टि से मुझे आत्मिक जीवन मिल जाता है (ऐसे होता है जैसे) मैंने सारे रंग-रस भोग लिए हैं। मैंने तेरे चरणों की शरण ली है, मैं तेरे दासों की दासी हूँ (आत्मिक जीवन देने वाली तेरी निगाह की बरकति से) जब मेरा मन खिल उठता है, मेरा शरीर (भी) हरा-भरा हो जाता है।

हे नानक! (कह– हे भाई!) मालिक-प्रभू सब जीवों में समा रहा है, वह (हर वक्त हर जगह) अपनी मर्जी करता है।2।

तुझु ऊपरि मेरा है माणा तूहै मेरा ताणा राम ॥ सुरति मति चतुराई तेरी तू जाणाइहि जाणा राम ॥ सोई जाणै सोई पछाणै जा कउ नदरि सिरंदे ॥ मनमुखि भूली बहुती राही फाथी माइआ फंदे ॥ ठाकुर भाणी सा गुणवंती तिन ही सभ रंग माणा ॥ नानक की धर तूहै ठाकुर तू नानक का माणा ॥३॥ {पन्ना 779}

पद्अर्थ: माणा = मान, फख़र। ताणा = ताण, बल, सहारा। मति = बुद्धि। सुरति = सूझ। जाणाइहि = (जो कुछ) तू समझाता है। जाणा = मैं समझता हूँ। सेई = वही मनुष्य। जा कउ = जिस पर। नदरि = मिहर की निगाह। सिरंदे = सृजनहार की। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाली जीव स्त्री। भुली = सही जीवन की ओर से भटकी हुई। राही = राहों में। फंदे = फाही में। भाणी = अच्छी लगी। तिन ही = (‘तिनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है) उस ने ही। धर = आसरा। ठाकुर = हे ठाकुर!।3।

अर्थ: हे राम! मेरा माण तेरे ऊपर ही है, तू ही मेरा आरसरा है। (जो भी कोई) सूझ, बुद्धि, समझदारी (मेरे अंदर है, वह) तेरी (ही बख्शी हुई है) जो कुछ तू मुझे समझाता है, वही मैं समझता हूँ।

हे भाई! वही मनुष्य (सही जीवन को) समझता-पहचानता है, जिस पर सृजनहार की मेहर की निगाह होती है। अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री अनेकों और रास्तों पर चल-चल के (सही जीवन-राह से) भटकी रहती है, माया के जंजाल में फसी रहती है। जो जीव-स्त्री मालिक-प्रभू को अच्छी लगती है, वह गुणवान हो जाती है, उसने ही सारे आत्मिक आनंद भोगे हैं।

हे ठाकुर! नानक का सहारा तू ही है, नानक का माण (भी) तू ही है।3।

हउ वारी वंञा घोली वंञा तू परबतु मेरा ओल्हा राम ॥ हउ बलि जाई लख लख लख बरीआ जिनि भ्रमु परदा खोल्हा राम ॥ मिटे अंधारे तजे बिकारे ठाकुर सिउ मनु माना ॥ प्रभ जी भाणी भई निकाणी सफल जनमु परवाना ॥ भई अमोली भारा तोली मुकति जुगति दरु खोल्हा ॥ कहु नानक हउ निरभउ होई सो प्रभु मेरा ओल्हा ॥४॥१॥४॥ {पन्ना 779-780}

पद्अर्थ: हउ = मैं। वारी वंञा = वारी वंजा, मैं कुर्बान जाती हूँ, मैं तुझसे सदके कुर्बान जाती हूँ। घोली = सदके। ओला = पर्दा। बलि जाई = मैं सदके जाती हूँ। बरीआ = बारी। जिनि = जिसने। भ्रमु = भटकना। तजे = त्याग दिए। सिउ = साथ। माना = मान गया। प्रभ भाणी = प्रभू को अच्छी लगी। निकाणी = बेमुथाज। भारा तोली = भार वाले तोल वाली। मुकति = विकारों से मुक्ति। जुगति = जीवन की जाच। दरु = दरवाजा।4।

अर्थ: हे प्रभू! मेरे लिए (तो) तू पहाड़ (के समान) ओट है, मैं तुझसे लाखों बार सदके जाती हॅूँ, जिसने (मेरे अंदर से) भटकना वाली दूरी मिटा दी है।

हे भाई! जिस जीव-स्त्री का मन मालिक-प्रभू के साथ पतीज जाता है, वह सारे विकार त्याग देती है। (उसके अंदर से माया के मोह वाले) अंधेरे दूर हो जाते हैं। (जो जीव-स्त्री) प्रभू को अच्छी लगने लग जाती है, वह (दुनिया की ओर से) बे-मुथाज हो जाती है, उसकी जिंदगी कामयाब हो जाती है, वह प्रभू दर पर कबूल हो जाती है। उसकी जिंदगी बहुत ही कीमती हो जाती है, भार वाले तोल वाली हो जाती है, उसके लिए वह दरवाजा खुल जाता है जहाँ उसको विकारों से खलासी मिल जाती है और सही जीवन की जाच आ जाती है।

हे नानक! जब से वह प्रभू मेरा सहारा बन गया है, मैं (विकारों, माया के हमलों की ओर से) निडर हो गई हूँ।4।1।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh