श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 781 कोटि करन दीजहि प्रभ प्रीतम हरि गुण सुणीअहि अबिनासी राम ॥ सुणि सुणि इहु मनु निरमलु होवै कटीऐ काल की फासी राम ॥ कटीऐ जम फासी सिमरि अबिनासी सगल मंगल सुगिआना ॥ हरि हरि जपु जपीऐ दिनु राती लागै सहजि धिआना ॥ कलमल दुख जारे प्रभू चितारे मन की दुरमति नासी ॥ कहु नानक प्रभ किरपा कीजै हरि गुण सुणीअहि अविनासी ॥२॥ {पन्ना 781} पद्अर्थ: कोटि करन = करोड़ों कान। दीजहि = दिए जाएं। प्रभ = हे प्रभू! सुणीअहि = सुने जा सकते हैं। सुण = सुन के। निरमलु = पवित्र। कटीअै = काटी जाए। सिमरि = सिमर के। मंगल = खुशी। सुगिआना = आत्मिक जीवन की अच्छी समझ। जपीअै = जपना चाहिए। सहजि = आत्मिक अडोलता में। कलमल = पाप। जारे = जलाए जाते हैं। चितारे = चिक्त में बसा के। दुरमति = खोटी मति। प्रभ = हे प्रभू! ।2। अर्थ: हे (मेरे) प्रीतम प्रभू! हे अविनाशी हरी! (यदि मुझे) करोड़ों कान दिए जाएं, तो (उनसे) तेरे गुण सुने जा सकें। हे भाई! (परमात्मा की सिफत सालाह) सुन-सुन के ये मन पवित्र हो जाता है, और (आत्मिक) मौत की फाही काटी जाती है। अविनाशी प्रभू का नाम सिमर के जम की फाही काटी जाती है (अंतरात्मे) खुशियां ही खुशियां बन जाती हैं, आत्मिक जीवन की समझ पैदा हो जाती है। हे भाई! दिन-रात परमात्मा का नाम जपना चाहिए, (नाम की बरकति से) आत्मिक अडोलता में सुरति टिकी रहती है। प्रभू का नाम चिक्त में बसाने से सारे पाप, सारे दुख जल जाते हैं, मन की खोटी मति नाश हो जाती हैं। हे नानक! कह– हे प्रभू! अगर तू मेहर करे, तो तेरे गुण (इन कानों से) सुने जाएं।2। करोड़ि हसत तेरी टहल कमावहि चरण चलहि प्रभ मारगि राम ॥ भव सागर नाव हरि सेवा जो चड़ै तिसु तारगि राम ॥ भवजलु तरिआ हरि हरि सिमरिआ सगल मनोरथ पूरे ॥ महा बिकार गए सुख उपजे बाजे अनहद तूरे ॥ मन बांछत फल पाए सगले कुदरति कीम अपारगि ॥ कहु नानक प्रभ किरपा कीजै मनु सदा चलै तेरै मारगि ॥३॥ {पन्ना 781} पद्अर्थ: हसत = हस्त, हाथ। कमावहि = कमा रहे हैं, कर रहे हैं। चलहि = चल रहे हैं। मारगि = रास्ते पर। भव सागर = संसार समुंद्र। नाव = बेड़ी। सेवा = भगती। तिसु = उसको। तारगि = पार लंघा देगी। भवजलु = संसार समुंद्र। सगले = सारे। मनोरथ = मुरादें। बाजे = बज पड़े। अनहद = एक रस। तूरे = बाजे, नरसिंघे। मन बांछत = मन माँगे। कीम = कीमत। अपारगि = अपार, बेअंत। प्रभ = हे प्रभू! तेरै मारगि = तेरे राह पर।3। अर्थ: हे प्रभू! (जिन पर तेरी मेहर होती है उन जीवों के) करोड़ों हाथ तेरी टहल कर रहे हैं (उन जीवों के करोड़ो) पैर तेरे रास्ते पर चल रहे हैं। हे भाई! संसार-समुंद्र (से पार लांघने के लिए) परमात्मा की भक्ति (जीवों के लिए) बेड़ी है, जो जीव (इस बेड़ी में) सवार होता है, उसको (प्रभू) पार लंघा देता है। जिसने भी परमात्मा का नाम सिमरा, वह संसार-समुंद्र से पार लांघ गया, उसकी सारी मुरादें प्रभू पूरी कर देता है। (उसके अंदर से) बड़े-बड़े विकार दूर हो जाते हैं (उसके अंदर सुख पैदा हो जाते हैं) (मानो) एक रस बाजे बज उठे हैं। (उस मनुष्य ने) सारी मन-मांगी मुरादें हासिल कर लीं। (हे प्रभू!) तेरी इस कुदरत का मूल्य नहीं पाया जा सकता। हे नानक! कह– हे प्रभू! (मेरे पर भी) मेहर कर, (मेरा) मन सदा तेरे रास्ते पर चलता रहे।3। एहो वरु एहा वडिआई इहु धनु होइ वडभागा राम ॥ एहो रंगु एहो रस भोगा हरि चरणी मनु लागा राम ॥ मनु लागा चरणे प्रभ की सरणे करण कारण गोपाला ॥ सभु किछु तेरा तू प्रभु मेरा मेरे ठाकुर दीन दइआला ॥ मोहि निरगुण प्रीतम सुख सागर संतसंगि मनु जागा ॥ कहु नानक प्रभि किरपा कीन्ही चरण कमल मनु लागा ॥४॥३॥६॥ {पन्ना 781} पद्अर्थ: ऐहो = ये ही। वरु = बख्शीश। वड भागा = बड़ी किस्मत। रस = स्वादिष्ट पदार्थ। करण कारण = सारे जगत का मूल। करण = जगत। ठाकुर = हे ठाकुर! दीन दइआला = हे दीनों पर दया करने वाले! मोहि निरगुण मनु = मैं गुण हीन का मन। प्रीतम = हे प्रीतम! सुख सागर = हे सुखों के समुंद्र! संत संगि = संत जनों की संगति में। प्रभ = हे प्रभू!।4। अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य का) मन परमात्मा के चरणों में जुड़ जाता है, (जिसका) मन प्रभू के चरणों में लीन हो जाता है, जो मनुष्य जगत के मूल गोपाल के चरणों में पड़ा रहता है नाम में टिके रहना ही उस मनुष्य के लिए बख्शिश है, यही (उसके वास्ते) वडिआई है उपमा है, उसके वास्ते धन है, यही उसके वास्ते बड़ी किस्मत है, यही है उसके लिए दुनिया का रंग-तमाशा और सारे स्वादिष्ट पदार्थों का भोगना। हे मेरे प्रभू! हे मेरे ठाकुर! हे दीनों पर दया करने वाले! हरेक दाति (हम जीवों को) तेरी ही बख्शी हुई है। हे मेरे प्रीतम! हे सुखों के समुंद्र! (तेरी मेहर से) मुझ गुण-हीन का मन संतजनों की संगति में (रह के माया के मोह की नींद में से) जाग पड़ा है। हे नानक! कह– हे प्रभू! (जब) तूने मेहर की, तो (मेरा) मन (तेरे) सोहाने चरणों में लीन हो गया।4।3।6। सूही महला ५ ॥ हरि जपे हरि मंदरु साजिआ संत भगत गुण गावहि राम ॥ सिमरि सिमरि सुआमी प्रभु अपना सगले पाप तजावहि राम ॥ हरि गुण गाइ परम पदु पाइआ प्रभ की ऊतम बाणी ॥ सहज कथा प्रभ की अति मीठी कथी अकथ कहाणी ॥ भला संजोगु मूरतु पलु साचा अबिचल नीव रखाई ॥ जन नानक प्रभ भए दइआला सरब कला बणि आई ॥१॥ {पन्ना 781} पद्अर्थ: हरि जपे = हरी का नाम जपने के लिए। मंदरु = घर। हरि साजिआ = हरी ने बनाया है। गावहि = गाते हैं। सिमरि = सिमरि के। सगले = सारे। तजावहि = दूर करवा लेते हैं। गाइ = गा के। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। सहज कथा = आत्मिक अडोलता पैदा करने वाली कथा। कथा = सिफत सालाह। कथी = (संत जनों ने) बयान की। अकथ = जिसका सही रूप बयान ना किया जा सके। अकथ कहाणी = परमात्मा की सिफत सालाह। भला = शुभ। संजोगु = मिलाप (का समय)। मूरतु = महूरत। साचा = सदा स्थिर रहने वाला। अबिचल = ना हिलने वाला। नीव = नींव। अबिचल नीव = कभी ना हिलने वाली नींव, बहुत ही पक्की नींव, सिफत सालाह की पक्की नीव। कला = ताकत।1। अर्थ: हे भाई! (मनुष्य का ये शरीर-) घर परमात्मा ने नाम जपने के लिए बनाया है, (इस घर में) संत जन भक्त जन (परमात्मा के) गुण गाते रहते हैं। अपने मालिक प्रभू (का नाम) हर वक्त सिमर-सिमर के (संत जन अपने अंदर से) सारे पाप दूर कर लेते हैं। हे भाई! (इस शरीर घर में संत-जनों ने) परमात्मा की पवित्र सिफत सालाह की बाणी गा के, परमात्मा के गुण गा के सबसे उच्च आत्मिक दर्जा प्राप्त किया है। (इस शरीर-घर में संत-जनों ने) उस परमात्मा की सिफत सालाह की है जिसका सही स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता, उस प्रभू की अत्यंत मीठी सिफत सालाह की है जो आत्मिक अडोलता पैदा करती है। हे दास नानक! (जिस मनुष्य पर) प्रभू जी दयावान होते हैं (उसके शरीर-घर में वह) शुभ संजोग आ बनता है, वह सदा कायम रहने वाला महूरत आ बनता है जब (परमात्मा के सिफत सालाह करने की) कभी ना हिलने वाली नींव रखी जाती है (और, जिस के अंदर ये नींव रखी जाती है, उसके अंदर) मजबूत आत्मिक शक्ति पैदा हो जाती है। आनंदा वजहि नित वाजे पारब्रहमु मनि वूठा राम ॥ गुरमुखे सचु करणी सारी बिनसे भ्रम भै झूठा राम ॥ अनहद बाणी गुरमुखि वखाणी जसु सुणि सुणि मनु तनु हरिआ ॥ सरब सुखा तिस ही बणि आए जो प्रभि अपना करिआ ॥ घर महि नव निधि भरे भंडारा राम नामि रंगु लागा ॥ नानक जन प्रभु कदे न विसरै पूरन जा के भागा ॥२॥ {पन्ना 781} पद्अर्थ: नित = सदा। वजहि = बजते रहते हैं। मनि = (जिस मनुष्य के) मन में। वूठा = आ बसता है। गुरमुखे = गुरू के सन्मुख रह के। सचु = सदा स्थिर हरी नाम का सिमरन। सारी = श्रेष्ठ। करणी = कतव्र्य। भै = सारे डर (‘भउ’ का बहुवचन)। अनहद = एक रस। वखाणी = उचारी, उचारता है। जसु = सिफत सालह। सुणि = सुन के। हरिआ = हरा भरा, आत्मिक जीवन वाला। प्रभि = प्रभू ने। नव निधि = नौ खजाने, धरती के सारे खजाने। नामि = नाम में। रंगु = प्यार। जा के = जिस जन के।2। तिस ही: ‘तिसु’ की ‘सु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है। अर्थ: हे भाई! (सिफत सालाह की ‘अविचल नींव’ की बरकति से जिस मनुष्य के) मन में परमात्मा आ बसता है (उसके शरीर-मन्दिर में आत्मिक) आनंद के सदैव (मानो) बाजे बजते रहते हैं, (उसके शरीर-घर में से) सारे भ्रम-डर झूठ नाश हो जाते हैं, गुरू के सन्मुख रह के सदा-स्थिर हरी-नाम सिमरना (उस मनुष्य का) श्रेष्ठ कर्तव्य बन जाता है। हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाला वह मनुष्य सदा एक-रस सिफत सालाह की बाणी उचारता रहता है, परमात्मा की सिफत सालाह सुन-सुन के उसका मन उसका तन आत्मिक जीवन वाला हो जाता है। हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा ने अपना (प्यारा) बना लिया, सारे सुख उसके अंदर आ एकत्र हुए। हे भाई! परमात्मा के नाम में जिस मनुष्य का प्यार बन जाता है, उसके (हृदय-) घर में (मानो, धरती के) सारे खजाने और भण्डार भर जाते हैं। हे नानक! जिस दास के पूरे भाग्य जाग पड़ते हैं, उसको परमात्मा कभी नहीं भूलता।2। छाइआ प्रभि छत्रपति कीन्ही सगली तपति बिनासी राम ॥ दूख पाप का डेरा ढाठा कारजु आइआ रासी राम ॥ हरि प्रभि फुरमाइआ मिटी बलाइआ साचु धरमु पुंनु फलिआ ॥ सो प्रभु अपुना सदा धिआईऐ सोवत बैसत खलिआ ॥ गुण निधान सुख सागर सुआमी जलि थलि महीअलि सोई ॥ जन नानक प्रभ की सरणाई तिसु बिनु अवरु न कोई ॥३॥ {पन्ना 781-782} पद्अर्थ: छाइआ = छाया। प्रभि = प्रभू ने। छत्रपति = पातशाह। प्रभि छत्रपति = प्रभू पातशाह ने। सगली = सारी। तपति = तपस, जलन। ढाठा = गिर पड़ा। कारजु = जीवन मनोरथ। आइआ रासी = कामयाब हो गया। साचु धरमु = सदा स्थिर हरी नाम सिमरन (वाला) धर्म। साचु पुंनु = सदा स्थिर हरी नाम सिमरन वाला नेक कर्म। फलिआ = फलना आरम्भ हुआ, बढ़ना शुरू हुआ। धिआईअै = सिमरना चाहिए। सोवत बैसत खलिआ = सोते हुए, बैठे हुए और खड़े रह के। निधान = खजाना। सागरु = समुंद्र। जलि = जल में। थलि = थल में। महीअलि = मही तलि, धरती की तह पर, आकाश में, अंतरिक्ष में।3। अर्थ: हे भाई! प्रभू पातशाह ने (जिस मनुष्य के सिर पर) अपना हाथ रखा, (उसके अंदर से विकारों की) सारी जलन नाश हो गई, (उसके अंदर से) दुखों का विकारों का अड्डा ही गिर गया, उस मनुष्य का जीवन-मनोरथ कामयाब हो गया। हरी-प्रभू ने हुकम दे दिया (और, उस मनुष्य के अंदर से माया) बला (का प्रभाव) खत्म हो गया, सदा स्थिर हरी-नाम सिमरन का परम पून्य (उसके अंदर) बढ़ना शुरू हो गया। हे भाई! सोते हुए बैठे हुए और खड़े हुए (हर वक्त) उस परमात्मा का ध्यान धरना चाहिए। हे दास नानक! (जो मनुष्य ध्यान धरता है, उस को) वह गुणों के खजाने प्रभू सुखों का समुंद्र प्रभू, पानी में, धरती में, आकाश में (हर जगह व्यापक) दिखता है, वह मनुष्य प्रभू की शरण में पड़ा रहता है, उस (प्रभू) के बिना उसको कोई अन्य आसरा नहीं दिखता।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |