श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 782 मेरा घरु बनिआ बनु तालु बनिआ प्रभ परसे हरि राइआ राम ॥ मेरा मनु सोहिआ मीत साजन सरसे गुण मंगल हरि गाइआ राम ॥ गुण गाइ प्रभू धिआइ साचा सगल इछा पाईआ ॥ गुर चरण लागे सदा जागे मनि वजीआ वाधाईआ ॥ करी नदरि सुआमी सुखह गामी हलतु पलतु सवारिआ ॥ बिनवंति नानक नित नामु जपीऐ जीउ पिंडु जिनि धारिआ ॥४॥४॥७॥ {पन्ना 782} पद्अर्थ: घरु = (शरीर-) घर। बनिआ = सुंदर बन गया है। बनु = बाग (शरीर)। तालु = (हृदय) तालाब। प्रभ परसे = जब प्रभ (के चरण) छूए। हरि राइआ = प्रभू पातशाह। सोहिआ = सुंदर बन गया। मीत साजन = मेरे मित्र सज्जन, मेरी सारी ज्ञानेन्द्रियां। सरसे = आत्मिक रस वाले हो गए, आत्मिक जीवन वाले बन गए हैं। मंगल = सिफत सालाह के गीत। गाइ = गा के। धिआइ = सिमर के। साचा = सदा स्थिर प्रभू। सगल = सारी। जागे = (माया के हमलों की ओर से) सचेत हो गए। मनि = मन में। वजीआ वाधाईआ = उत्साह बना रहने लग पड़ा। करी = की। नदरि = मेहर की निगाह। सूखह गामी = सुख पहुँचाने वाले ने। हलतु = यह लोक। पलतु = परलोक। जपीअै = जपना चाहिए। जिउ = जिंद। पिंडु = शरीर। जिनि = जिस (परमात्मा) ने।4। अर्थ: हे भाई! (जब से) प्रभू-पातशाह के चरन परसे हैं, मेरा शरीर मेरा हृदय (सब कुछ) सुंदर (सुंदर आत्मिक रंगत वाला) बन गया है (जब से) मैंने परमात्मा की सिफत सालाह के गीत गाने शुरू किए हैं, मेरा मन सुंदर (सोहणे संस्कारों वाला) हो गया है, मेरे सारे मित्र (सारी ज्ञानेन्द्रियां) आत्मिक जीवन वाली बन गई हैं। हे भाई! प्रभू के गुण गा के सदा-स्थिर हरी का नाम सिमर के सारी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं। जो मनुष्य गुरू की चरणी लगते हैं, वे (माया के हमलों की ओर से) सदा सचेत रहते हैं, उनके अंदर उत्साह-भरा आत्मिक जीवन बना रहता है। हे भाई! सुखों के दाते मालिक-प्रभू ने (जिस मनुष्य पर) मेहर की निगाह की, (उसका उसने) ये लोक और परलोक दोनों सुंदर बना दिए। नानक विनती करता है– हे भाई! जिस (परमात्मा) ने यह जिंद और यह शरीर टिका के रखे हैं, उसका नाम सदा जपना चाहिए।4।4।7। सूही महला ५ ॥ भै सागरो भै सागरु तरिआ हरि हरि नामु धिआए राम ॥ बोहिथड़ा हरि चरण अराधे मिलि सतिगुर पारि लघाए राम ॥ गुर सबदी तरीऐ बहुड़ि न मरीऐ चूकै आवण जाणा ॥ जो किछु करै सोई भल मानउ ता मनु सहजि समाणा ॥ दूख न भूख न रोगु न बिआपै सुख सागर सरणी पाए ॥ हरि सिमरि सिमरि नानक रंगि राता मन की चिंत मिटाए ॥१॥ {पन्ना 782} पद्अर्थ: भै = (‘भउ’ का बहुवचन) सारे डर। भै सागर = अनेकों डरों से भरपूर संसार समुंद्र। धिआऐ = सिमर के। बोहिथड़ा = सुंदर जहाज। मिलि = गुरू को मिल के। तरीअै = पार लांघा जाता है। बहुड़ि = दोबारा। न मरीअै = आत्मिक मौत नहीं आती। चूकै = समाप्त हो जाता है। करै = (परमात्मा) करता है। भल = भला, अच्छा। मानउ = मैं मानता हूँ। ता = तब। सहजि = आत्मिक अडोलता में। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकता। सुख सागर सरणी = सुखों के समुंद्र प्रभू की शरण। रंगि = प्रेम रंग में।1। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम सिमर-सिमर के अनेकों डरों से भरपूर संसार-समुंद्र से पार लांघा जाता है। परमात्मा के चरण सुंदर जहाज हैं, (जो मनुष्य) गुरू को मिल के हरी-चरणों की आराधना करता है, (गुरू उसको संसार-समुंद्र से) पार लंघा देता है। हे भाई! गुरू के शबद के प्रताप से (संसार-समुंद्र से) पार लांघा जाया जाता है, बार-बार आत्मिक मौत का शिकार नहीं होना पड़ता, जनम-मरन के चक्कर समाप्त हो जाते हैं। हे भाई! जो कुछ परमात्मा करता है (गुरू के शबद की बरकति से) मैं उसको भला मानता हूँ। (जब ये रास्ता पकड़ा जाए) तब मन आत्मिक अडोलता में टिक जाता है। हे भाई! सुखों के समुंद्र प्रभू की शरण पड़ने से कोई दुख, कोई रोग कोई भी अपना जोर नहीं डाल सकता। हे नानक! परमात्मा का नाम सिमर-सिमर के जो मनुष्य (प्रभू के) प्रेम रंग में रंगा जाता है, वह अपने मन की हरेक चिंता मिटा लेता है।1। संत जना हरि मंत्रु द्रिड़ाइआ हरि साजन वसगति कीने राम ॥ आपनड़ा मनु आगै धरिआ सरबसु ठाकुरि दीने राम ॥ करि अपुनी दासी मिटी उदासी हरि मंदरि थिति पाई ॥ अनद बिनोद सिमरहु प्रभु साचा विछुड़ि कबहू न जाई ॥ सा वडभागणि सदा सोहागणि राम नाम गुण चीन्हे ॥ कहु नानक रवहि रंगि राते प्रेम महा रसि भीने ॥२॥ {पन्ना 782} पद्अर्थ: हरि मंत्रु = हरी नाम का मंत्र। द्रिढ़ाइआ = (जिस मनुष्य ने) हृदय में पक्का कर लिया। वसगति = वश में। आगै धरिआ = हवाले कर दिया। सरबसु = (सर्वस्व। स्व = धन) सब कुछ। ठाकुरि = ठाकुर ने। करि = कर ली, बना ली। उदासी = बाहर भटकते फिरना। हरि मंदरि = हरी के बनाए (शरीर-) घर में। थिति = पक्का ठिकाना। अनद बिनोद = आनंद खुशियां। साचा = सदा कायम रहने वाला। सा = वह जीव स्त्री। वडभागणि = बड़े भाग्यों वाली। सुहागणि = सोहाग वाली। चीने = पहचाने, सांझ डाली। नानक = हे नानक! रवहि = (जो मनुष्य हरी नाम) सिमरते हैं। रंगि राते = प्यार के रंग में रंगे हुए। प्रेम रसि = प्रेम के स्वाद में। भीने = भीगे रहते हैं।2। अर्थ: हे भाई! संत जनो ने (जिस जीव-स्त्री के) हृदय में परमात्मा का नाम-मंत्र पक्का कर दिया, प्रभू जी उस जीव-स्त्री के प्रेम-वश हो गए। (उस जीव-स्त्री ने) अपना प्यारा मन (प्रभू-ठाकुर के) आगे भेट कर दिया, (आगे से) ठाकुर-प्रभू ने सब कुछ (उस जीव-स्त्री को) दे दिया। ठाकुर-प्रभू ने उस जीव-स्त्री को अपनी दासी बना लिया, (उसके अंदर से माया आदि के लिए) भटकना समाप्त हो गई, उसने परमात्मा के बनाए इस शरीर-मंदिर में ही ठहराव हासिल कर लिया। हे भाई! सदा कायम रहने वाले परमात्मा का नाम सिमरते रहो (तुम्हारे अंदर) आत्मिक आनंद बने रहेंगे। (जो जीव-स्त्री हरी-नाम सिमरती है, वह प्रभू चरणों से) विछुड़ के कभी भी (किसी और तरफ़) भटकती नहीं। जिसने परमात्मा के नाम से, परमात्मा के गुणों से गहरी सांझ बना ली, वह जीव-स्त्री बड़े भाग्यों वाली बन जाती है, वह सदा प्रभू-पति वाली बनी रहती है। हे नानक! कह– जो मनुष्य परमात्मा के प्रेम-रंग में रंगीज के हरी-नाम सिमरते हैं, वे मनुष्य प्रेम के बड़े स्वाद में भीगे रहते हैं।2। अनद बिनोद भए नित सखीए मंगल सदा हमारै राम ॥ आपनड़ै प्रभि आपि सीगारी सोभावंती नारे राम ॥ सहज सुभाइ भए किरपाला गुण अवगण न बीचारिआ ॥ कंठि लगाइ लीए जन अपुने राम नाम उरि धारिआ ॥ मान मोह मद सगल बिआपी करि किरपा आपि निवारे ॥ कहु नानक भै सागरु तरिआ पूरन काज हमारे ॥३॥ {पन्ना 782} पद्अर्थ: बिनोद = (विनोद, pleasure, happiness) खुशी, आनंद। सखीऐ = हे सहेली! म्ंगल = खुशी। प्रभि = प्रभू ने। आपनड़ै प्रभि = अपने प्यारे प्रभू ने। सीगारी = श्रृंगार दी, सोहणे जीवन वाली बना दी। सहज = आत्मिक अडोलता। सुभाइ = सु भाय, प्यार से। सहज सुभाइ = आत्मिक अडोलता वाले प्यार से। हमारै = मेरे हृदय में। कंठि = गले से। उरि = हृदय में। सगल बिआपी = जिन में सारी सृष्टि फसी हुई है। करि = कर के। निवारे = दूर कर दिए। भै सागरु = भयानक संसार समुंद्र।3। अर्थ: हे सहेली! अब मेरे हृदय-गृह में सदा ही आनंद खुशिया व चाव बने रहते हैं, (क्योंकि) मेरे अपने प्यारे प्रभू ने स्वयं मेरी जिंदगी सुंदर बना दी है, मुझे शोभा वाली जीव-स्त्री बना दी है। हे सहेली! प्रभू जी अपने सेवकों को (अपने) गले से लगा लेते हैं, (उनके) हृदय में अपना नाम बसा देते हैं। प्रभू जी अपने सेवकों के गुणों-अवगुणों की ओर ध्यान नहीं देते, अपने आत्मिक अडोलता वाले प्यार के कारण ही (सहज-सह जाएते इति सहजं) अपने सेवकों पर दयावान हो जाते हैं। हे नानक! कह– हे सहेली! अहंकार, माया का मोह, माया का नशा जो सारी सृष्टि पर भारी हो रहे हैं (प्रभू जी ने मेरे पर) मेहर करके (मेरे अंदर से) स्वयं ही दूर कर दिए हैं। (उसकी मेहर से इस) भयानक संसार-समुंद्र से मैं पार लांघ रहा हूँ, मेरे सारे काम (भी) सिरे चढ़ रहे हैं।3। गुण गोपाल गावहु नित सखीहो सगल मनोरथ पाए राम ॥ सफल जनमु होआ मिलि साधू एकंकारु धिआए राम ॥ जपि एक प्रभू अनेक रविआ सरब मंडलि छाइआ ॥ ब्रहमो पसारा ब्रहमु पसरिआ सभु ब्रहमु द्रिसटी आइआ ॥ जलि थलि महीअलि पूरि पूरन तिसु बिना नही जाए ॥ पेखि दरसनु नानक बिगसे आपि लए मिलाए ॥४॥५॥८॥ {पन्ना 782} पद्अर्थ: गोपाल = सृष्टि का पालनहार। सखीहो = हे सहेलियो! मनोरथ = मुरादें। सफल = कामयाब। मिलि साधू = गुरू को मिल के। ऐकंकारु = व्यापक प्रभू। धिआऐ = ध्यान करके, सिमर के। जपि = जप के। रविआ = व्यापक, मौजूद। मंडलि = जगत में। छाइआ = व्यापक। ब्रहमो पसारा = (ये सारा) जगत पसारा परमात्मा ही है। ब्रहमु पसरिआ = परमात्मा (अपने आप का) प्रकाश कर रहा है। सभु = हर जगह। द्रिसटी आइआ = दिखता है। जलि = जल में। थलि = धरती में। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, अंतरिक्ष में, आकाश में। जाऐ = जगह। पेखि = देख के। बिगसे = खिल गए, प्रसन्न चिक्त हो गए।4। अर्थ: हे सहेलियो! सृष्टि के पालनहार प्रभू के गुण सदा गाया करो, वह सारी मुरादें पूरी कर देता है। गुरू को मिल के सर्व-व्यापक प्रभू का नाम सिमरने से जीवन कामयाब हो जाता है। हे सहेलियो! वह एक परमात्मा अनेकों में व्यापक है, सारे जगत में व्यापक है, ये सारा जगत-पसारा प्रभू स्वयं ही है, (सारे जगत में) परमात्मा (अपने आप का) प्रकाश कर रहा है, (उसका नाम) जप के हर जगह वह प्रभू ही दिखाई देने लग पड़ता है। हे सहेलियो! उस परमात्मा के बिना कोई भी जगह नहीं है (कोई भी जगह उस परमात्मा से खाली नहीं है)। पानी में, धरती में, आकाश में हर जगह वह मौजूद है। हे नानक! (कह– हे सहेलियो! जिनको वह) खुद (अपने चरणों में) जोड़ लेता है, वे (उस सर्व-व्यापक का) दर्शन करके आनंद भरपूर रहते हैं।4।5।8। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |