श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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नव निधि सिधि रिधि दीने करते तोटि न आवै काई राम ॥ खात खरचत बिलछत सुखु पाइआ करते की दाति सवाई राम ॥ दाति सवाई निखुटि न जाई अंतरजामी पाइआ ॥ कोटि बिघन सगले उठि नाठे दूखु न नेड़ै आइआ ॥ सांति सहज आनंद घनेरे बिनसी भूख सबाई ॥ नानक गुण गावहि सुआमी के अचरजु जिसु वडिआई राम ॥२॥ {पन्ना 784}

पद्अर्थ: नव निधि = (धरती के सारे) नौ खजाने (नव = नौ। निधि = खजाने)। सिधि रिधि = करामाती ताकतें। दीने = दे दिए। काई = रक्ती भर भी। बिलछत = भोगते हुए। दाति = (नाम की) बख्शिश। सवाई = बढ़ती जाती है। अंतरजामी = (हरेक के) दिल की जानने वाला। कोटि बिघन = करोड़ों रुकावटें। सहज = आत्मिक अडोलता। घनेरे = अनेकों। सबाई = सारी। गावहि = गाते हैं। जिसु वडिआई = जिस परमात्मा की महिमा। अचरजु = हैरान करने वाला काम।2।

अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य मालिक-प्रभू की मेहर से उसके गुण गाते हैं उनको) ईश्वर ने ये एक ऐसी दाति बख्शी है जो, धरती के सारे ही नौ खजाने हैं, जो मानो, सारी ही करामाती ताकतें हैं, इस दाति में कभी कोई कमी नहीं होती। इस नाम-दाति को खाते हुए बाँटते हुए और भोगते हुए वे आत्मिक आनंद पाते हैं, करतार की ये बख्शिश (दिन-ब-दिन) बढ़ती रहती है। (यकीन जानो, ये) दाति बढ़ती ही रहती है, कभी खत्म नहीं होती, इस दाति की बरकति से उनको हरेक दिल की जानने वाला परमात्मा मिल जाता है, (जिंदगी के सफर में आने वाली) करोड़ों रुकावटें (उनके रास्ते में से) सारी ही दूर हो जाती हैं, कोई दुख उनके नजदीक नहीं फटकता। (उनके अंदर से माया की) सारी ही भूख नाश हो जाती है, (उनके अंदर) ठंडक बनी रहती है, आत्मिक अडोलता के अनेकों आनंद बने रहते हैं।

हे नानक! वह मनुष्य उस मालिक-प्रभू के गुण गाते रहते हैं, जिसकी महिमा करना हैरान कर देने वाला उद्यम है।2।

जिस का कारजु तिन ही कीआ माणसु किआ वेचारा राम ॥ भगत सोहनि हरि के गुण गावहि सदा करहि जैकारा राम ॥ गुण गाइ गोबिंद अनद उपजे साधसंगति संगि बनी ॥ जिनि उदमु कीआ ताल केरा तिस की उपमा किआ गनी ॥ अठसठि तीरथ पुंन किरिआ महा निरमल चारा ॥ पतित पावनु बिरदु सुआमी नानक सबद अधारा ॥३॥ {पन्ना 784}

पद्अर्थ: जिस का = जिस (परमात्मा) का (‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है)। कारजु = काम, (जीव को अपने साथ मिलाने का) काम। तिन ही = (‘तिनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है) उस (परमात्मा) ने ही। किआ वेचारा = क्या है बिचारा? कोई स्मर्था नहीं। सोहनि = शोभा देते हैं। गावहि = गाते हैं। करहि = करते हैं। जैकारा = (परमात्मा की) सिफत सालाह। गाइ = गा के। अनद = आनंद। संगि = साथ। बनी = प्रीति बनी रहती है। जिनि = जिस (प्रभू) ने। ताल केरा = (हृदय) तालाब (में ‘अमृत = जल’ भरने) का। केरा = का। तिस की = उस (परमात्मा) की (‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है)। उपमा = वडिआई। किआ गनी = मैं क्या गिनूँ? मैं बयान नहीं कर सकता। अठसठि = अढ़सठ। निरमल = पवित्र। चारा = (चारु) सुंदर। पतित पावनु = विकारियों को पवित्र करना। बिरदु = ईश्वर का मूल स्वभाव। सबद अधारा = (गुरू के) शबद का आसरा (दे के)।3।

अर्थ: हे भाई! (संतजनों को अपने चरणों के साथ जोड़ना- यह) काम जिस (परमात्मा) का (अपना) है, उसने ही (सदा ये काम) किए हैं। (ये काम करने की) मनुष्य की कोई समर्था नहीं। (उसी की ही मेहर से उसके) भक्त (उस) हरी के गुण गाते रहते हैं, सदा सिफत सालाह करते रहते हैं, और सुंदर आत्मिक जीवन वाले बने रहते हैं। परमात्मा के गुण गा गा के (उनके अंदर आत्मिक) आनंद (के हिलोरे) पैदा होते रहते हैं, साध-संगति में (टिक के परमात्मा) के साथ (उनकी प्रीति) बनी रहती है। हे भाई! जिस (परमात्मा) ने (संतजनों के हृदय-) तालाब (में आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल भरने) का उद्यम (सदा) किया है, मैं उसकी कोई वडिआई महिमा बयान करने के योग्य नहीं हूं।

हे भाई! आत्मिक आनंद देने वाला नाम-जल नाम भरपूर इस संत हृदय में ही अढ़सठ तीर्थ आ जाते हैं, बड़े-बड़े पवित्र और सुंदर पुन्य कर्म आ जाते हैं। हे नानक! गुरू के शबद का आसरा (दे के) बड़े-बड़े विकारियों को पवित्र कर देना- मालिक-प्रभू का ये मूल कदीमों वाला बिरद वाला स्वभाव चला आ रहा है।3।

गुण निधान मेरा प्रभु करता उसतति कउनु करीजै राम ॥ संता की बेनंती सुआमी नामु महा रसु दीजै राम ॥ नामु दीजै दानु कीजै बिसरु नाही इक खिनो ॥ गुण गोपाल उचरु रसना सदा गाईऐ अनदिनो ॥ जिसु प्रीति लागी नाम सेती मनु तनु अम्रित भीजै ॥ बिनवंति नानक इछ पुंनी पेखि दरसनु जीजै ॥४॥७॥१०॥ {पन्ना 784}

पद्अर्थ: गुण निधान = सारे गुणों का खजाना। करता = करतार। उसतति = महिमा, उपमा, वडिआई। कउनु = कौन सा (मनुष्य) ? करीजै = की जा सकती है। सुआमी = हे स्वामी! महा रसु नामु = बेअंत स्वादिष्ट हरी का नाम। दीजै = दे। दानु = बख्शिश। कीजै = करें। खिनो = छिन भर भी। उचरु = उचारा कर। रसना = जीभ (से)। गाईअै = सिफत सालाह करनी चाहिए। अनदिनो = हर रोज, हर वक्त। सेती = साथ। अंम्रित भीजै = आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल से भीग जाता है। पुंनी = पूरी हो जाती है। पेखि = देख के। जीजै = आत्मिक जीवन मिल जाता है।4।

अर्थ: हे भाई! मेरा करतार मेरा प्रभू सारे गुणों का खजाना है। कोई भी ऐसा मनुष्य नहीं, जिससे, (उसकी पूरी) महिमा की जा सके। (उसके) संतजनों की (उसके दर पर सदा यह) प्रार्थना होती है - हे मालिक प्रभू! बेअंत स्वादिष्ट अपना नाम बख्शे रख; ये मिहर कर कि अपना नाम दिए रख, एक छण भर के लिए भी (हमारे हृदय में से) ना भूल।

हे भाई! (अपनी) जीभ से गोपाल के गुण उचारता रहा कर। हर वक्त् उसकी सिफत सालाह करते रहना चाहिए। परमात्मा के नाम से जिस मनुष्य का प्यार बन जाता है, उसका मन उसका तन आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल से (सदा) तर रहता है। नानक विनती करता है - हे भाई! (परमात्मा के) दर्शन करके आत्मिक जीवन मिल जाता है, हरेक इच्छा पूरी हो जाती है।4।7।10।

रागु सूही महला ५ छंत    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मिठ बोलड़ा जी हरि सजणु सुआमी मोरा ॥ हउ समलि थकी जी ओहु कदे न बोलै कउरा ॥ कउड़ा बोलि न जानै पूरन भगवानै अउगणु को न चितारे ॥ पतित पावनु हरि बिरदु सदाए इकु तिलु नही भंनै घाले ॥ घट घट वासी सरब निवासी नेरै ही ते नेरा ॥ नानक दासु सदा सरणागति हरि अम्रित सजणु मेरा ॥१॥ {पन्ना 784}

पद्अर्थ: मिठ बोलड़ा = मीठे बोलों वाला। मोरा = मेरा। हउ = मैं। समंलि = याद कर कर के। कउरा = कड़वे (बोल)। बोलि न जानै = बोलना जानता ही नहीं। अउगुणु को = कोई भी अवगुण। चितारे = याद रखता। पतित पावनु = विकारियों को पवित्र करने वाला। बिरदु = मूल कदीमी स्वभाव। सदाऐ = कहलवाता है। तिलु = रक्ती भर भी। भंनै = तोड़ता, व्यर्थ जाने देता। घाले = की हुई मेहनत को। घट = शरीर। नेरै ही तें नेरा = बहुत ही नजदीक। सरणागति = शरण में आया रहता है। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला।1।

अर्थ: हे भाई! मेरा मालिक-प्रभू मीठे बोलों वाला प्यारा मित्र है। मैं याद कर-कर के थक गई हूँ (कि उसका कभी कोई कठोर कड़वा बोल याद आ जाए, पर) वह कभी भी कड़वे बोल नहीं बोलता।

हे भाई! वह सारे गुणों से भरपूर भगवान खरवे (कड़वे) बोलना जानता ही नहीं, (क्योंकि वह हमारा) कोई भी अवगुण याद ही नहीं रखता। वह विकारियों को पवित्र करने वाला है– ये उसका मूल कदीमी स्वभाव बताया जाता है, (और वह किसी की भी) की हुई मेहनत-कमाई को तिल भर भी व्यर्थ नहीं जाने देता।

हे भाई! मेरा सज्जन हरेक शरीर में बसता है, सब जीवों में बसता है, हरेक जीव के अत्यंत नजदीक बसता है दास नानक सदा उस की शरण पड़ा रहता है। हे भाई! मेरा सज्जन प्रभू आत्मिक जीवन देने वाला है।1।

हउ बिसमु भई जी हरि दरसनु देखि अपारा ॥ मेरा सुंदरु सुआमी जी हउ चरन कमल पग छारा ॥ प्रभ पेखत जीवा ठंढी थीवा तिसु जेवडु अवरु न कोई ॥ आदि अंति मधि प्रभु रविआ जलि थलि महीअलि सोई ॥ चरन कमल जपि सागरु तरिआ भवजल उतरे पारा ॥ नानक सरणि पूरन परमेसुर तेरा अंतु न पारावारा ॥२॥ {पन्ना 784}

पद्अर्थ: हउ = मैं। बिसमु = विस्मय में, हैरान। जी = हे जीउ! देखि = देख के। अपारा दरसनु = बेअंत के दर्शन। चरन कमल पग छारा = कमल के फूल जैसे सुंदर चरणों की धूल। पग = पैर, चरण।

पेखत = देखते हुए। जीवा = जीऊँ, मैं आत्मिक जीवन हासिल कर लेती हूँ। ठंडी = शांत चिक्त। थीवा = मैं हो जाती हॅूँ। तिसु जेवडु = उसके जितना बड़ा, उसके बराबर का। आदि = जगत के आरम्भ में। अंति = जगत के आखिर में। मधि = अब जगत के अस्तित्व के बीच। जलि = जल में। थलि = धरती में। महीअलि = मही तलि, धरती पर, अंतरिक्ष में, आकाश में। सोई = वही प्रभू! जपि = जप के। सागरु = संसार समुंद्र। भवजल = संसार समुंद्र से। परमेसुर = हे परमेश्वर। पारावारा = पार+अवार, परला और इधर का किनारा।2।

अर्थ: हे भाई! उस बेअंत हरी के दर्शन करके मैं हैरान हो रही हॅूँ। हे भाई! वह मेरा सुंदर मालिक है, मैं उसके सोहणे चरणों की धूल हूँ।

हे भाई! प्रभू के दर्शन करते हुए मेरे अंदर जिंद पड़ जाती है, मैं शांत-चिक्त हो जाती हॅूँ, उसके बराबर का और कोई नहीं है। जगत के शुरू में वही था, जगत के आखिर में भी वही होगा, अब इस वक्त भी वही है। पानी में, धरती में, आकाश में वही बसता है।

हे भाई! उसके सुंदर चरणों का ध्यान धर के संसार-समुंद्र तैरा जा सकता है, अनेकों ही जीव संसार-समुंद्र से पार लांघते आ रहे हैं। हे नानक! (कह–) हे पूर्ण परमेश्वर! मैं तेरी शरण आया हूँ, तेरी हस्ती का अंत, तेरा उरला-परला किनारा नहीं पाया जा सकता।2।

हउ निमख न छोडा जी हरि प्रीतम प्रान अधारो ॥ गुरि सतिगुर कहिआ जी साचा अगम बीचारो ॥ मिलि साधू दीना ता नामु लीना जनम मरण दुख नाठे ॥ सहज सूख आनंद घनेरे हउमै बिनठी गाठे ॥ सभ कै मधि सभ हू ते बाहरि राग दोख ते निआरो ॥ नानक दास गोबिंद सरणाई हरि प्रीतमु मनहि सधारो ॥३॥ {पन्ना 784-785}

पद्अर्थ: हउ = मैं। निमख = (निमेष) आँख झपकने जितना समय। छोडा = मैं छोड़ता। प्रान अधारो = प्राणों का आसरा, जिंद का आसरा। गुरि सतिगुर = सतिगुरू गुरू ने। जी = हे भाई! साचा = सदा कायम रहने वाला, अटल। अगम बीचारो = अपहुँच परमात्मा के बारे में विचार की बात।

मिलि साधू = गुरू को मिल के। दीना = (गुरू के नाम की दाति) दी। ता = तब। लीना = जपा जा सकता है। नाठे = भाग जाते हैं। सहज सूख = आत्मिक अडोलता के सुख। बिनठी = नाश हो जाती है। गाठे = गाँठ।

कै मधि = के बीच। ते = से। राग = मोह। निआरो = अलग, निर्लिप। दोख = ईष्या। मनहि सधारो = मन को आसरा देने वाला।3।

अर्थ: हे भाई! प्रीतम हरी (हम जीवों की) जिंद का आसरा है, मैं आँख झपकने जितने समय के लिए भी उसकी याद को नहीं छोड़ूंगा - गुरू ने (मुझे) अपहुँच परमात्मा (से मिलाप) के बारे में यह अटल विचार की बात बताई है।

हे भाई! गुरू को मिल के (जब गुरू के द्वारा नाम की दाति) मिलती है, तब ही परमात्मा का नाम जपा जा सकता है, (जो मनुष्य नाम जपता है, उसके) जनम से ले के मरने तक के सारे दुख नाश हो जाते हैं, (उसके अंदर) आत्मिक अडोलता के अनेकों सुख पैदा हो जाते हैं, (उसके अंदर से) अहंकार की गाँठ का विनाश हो जाता है।

हे नानक! परमात्मा सब जीवों के अंदर है, सबसे अलग भी है, (सबके अंदर होता हुआ भी वह) मोह और ईष्या (आदि) से निर्लिप रहता है। उसके सेवक सदा उसकी शरण पड़े रहते हैं, वह प्रीतम हरी सब जीवों के मन का आसरा (बना रहता है)।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh